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आर्थिक संकट से अशांति

अभी तीन साल पहले तक यह सोचना कठिन था कि जर्मनी जैसे धनी देश में किसान  प्रतिरोध का ऐसा का नजारा देखने को मिलेगा। लेकिन जर्मन सरकार की प्राथमिकताओं ने देश को संकट में फंसा दिया। उसका नतीजा सामने है।  

यूरोप में पसरते आर्थिक संकट का असर बढ़ती सामाजिक अशांति के रूप में दिख रहा है। बात अब महाद्वीप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था जर्मनी तक पहुंच चुकी है। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से जर्मनी की मुश्किलें बढ़ती चली गई हैं। जर्मनी भी रूस पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों में उत्साह से शामिल हुआ। नतीजतन, रूस से सस्ती ऊर्जा का मिलना बंद हुआ, जिसका असर उसके उद्योग जगत पर पड़ा है। उत्पादन महंगा होने से जर्मनी के उत्पाद विश्व बाजार में पहले जैसे सस्ते नहीं रह गए हैं। इससे उनका बाजार गिरा है। दूसरी तरफ यूक्रेन युद्ध के कारण भड़की महंगाई का असर भी पड़ा। इस कारण कुछ महीने पहले जर्मनी सरकार को कमखर्ची का नीति अपनानी पड़ी। इसके तहत डीजल सब्सिडी में कटौती कर दी गई। उसका नतीजा है कि अब राजधानी बर्लिन समेत कई शहरों में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। खेती में काम आने वाली गाड़ियों में मिलने वाली टैक्स की छूट कम कर दी गई है। इसके खिलाफ किसानों के प्रदर्शन से कई जगहों पर हाई-वे जाम हो गए हैं।

इस कारण बड़े स्तर पर यातायात-परिवहन के प्रभावित होने की आशंका पैदा हुई है। सात जनवरी से ही बड़ी संख्या में किसान बर्लिन आने लगे। वहां ऐतिहासिक ब्रैंडनबुर्ग द्वार के पास उन्होंने बड़ी संख्या में ट्रैक्टर खड़े कर दिए। किसान उनके हॉर्न बजाकर भी अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। देशभर में ऐसे सैकड़ों प्रदर्शन जारी हैं। उत्तरी और पूर्वी जर्मनी में भी कई जगहों पर यातायात और जनजीवन प्रभावित होने की खबर है। कई जगहों पर किसानों की रैलियां भी प्रस्तावित हैं। किसान संगठनों ने कहा है कि विरोध कार्यक्रम और रैलियां इस पूरे सप्ताह जारी रहेंगी और 15 जनवरी को बर्लिन में एक बड़ा प्रदर्शन किया जाएगा। सरकार ने कमखर्ची की नीति के तहत करीब 6,000 करोड़ यूरो की बचत की योजना बनाई है। इसी का असर किसानों पर पड़ा है। अभी तीन साल पहले यह सोचना कठिन था कि जर्मनी जैसे धनी देश में इस तरह का नजारा देखने को मिलेगा। लेकिन जर्मन सरकार की प्राथमिकताओं ने देश को संकट में फंसा दिया। उसका नतीजा सामने है।

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