मराठाओं का महाराष्ट्र में जनसंख्या के साथ-साथ आर्थिक-राजनीतिक प्रभुत्व भी है, इसलिए उनका समर्थन पाने की होड़ में सभी दलों ने आरक्षण की उनकी मांग को हवा दी। अब मुद्दा ज्यादा भड़क गया है, तो सबको मुश्किलें नज़र आ रही हैं।
मराठा आरक्षण का आंदोलन का चेहरा बने जरांगे पाटिल महाराष्ट्र में सभी राजनीतिक दलों के गले की फांस बन गए हैँ। वे इन दलों की जातीय पहचान आधारित राजनीति के सच को बेपर्द करने का जरिया भी बने हुए हैँ। निर्विवाद है कि इस मुद्दे पर महाराष्ट्र में जो हो रहा है, उसका संदर्भ राष्ट्रीय है। इसलिए कि देशभर में इसी तरह की सियासत ने अलग-अलग समूहों में आरक्षण की उम्मीदें जगाई हुई हैं। और हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि एक समूह की अपेक्षाएं अक्सर किसी दूसरे समूह या समूहों से टकराने लगी है। चूंकि मराठाओं का महाराष्ट्र में जनसंख्या के साथ-साथ आर्थिक- राजनीतिक प्रभुत्व भी है, इसलिए उनका समर्थन पाने की होड़ में खुद राजनीतिक दलों ने आरक्षण की उनकी मांग को हवा दी।
अब ये मुद्दा इन दलों की मुट्ठी से बाहर निकल चुका है, तो मुश्किलें सबको नज़र आ रही हैं। पहली, यह कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है, इसलिए ओबीसी श्रेणी से बाहर जाकर मराठा समुदाय को रिजर्वेशन देना फिलहाल कानूनन संभव नहीं है। तो रास्ता यह बचता है कि पूरे मराठा समुदाय को कुनबी श्रेणी में डाला जाए, जैसी मांग जरांगे पाटिल कर रहे हैं। मराठाओं में कुनबी वे समूह हैं, जिन्हें ओबीसी माना गया है। मगर ऐसा करने का मतलब ओबीसी आरक्षण के भीतर नए दावेदारों को शामिल करना होगा, जिसका दूसरी ओबीसी जातियां पुरजोर विरोध कर रही हैं।
ऐसे में पाटिल की मांग के समर्थन का मतलब अन्य ओबीसी जातियों का विरोध भाव मोल लेना भी हो गया है। यह जोखिम उठाने को सत्ता पक्ष या विपक्ष की पार्टियां तैयार नहीं हैं। इसलिए जरांगे पाटिल वे महज हमदर्दी जता पा रही हैं। पाटिल की मांग पर उन सबका रुख अस्पष्ट बना हुआ है। उधर अनशन पर बैठे पाटिल ने अब जल त्याग करने की धमकी भी दी है। इससे दलों का राजनीतिक संकट बढ़ गया है। अब नजर इस पर है कि वे इसका क्या हल निकालते हैं। आखिर महाराष्ट्र में जो होगा, उसका संदेश बाकी देश में भी जाएगा। वहां भी इसका असर देखने को मिलेगा।