आवश्यकता इस बात की है कि आर्थिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन की समस्या को आरक्षण के विमर्श से बाहर निकाला जाए। तभी मसले के सही कारणों की पहचान होगी और कारगर समाधान पर चर्चा करना संभव हो पाएगा। क्या इसका साहस कोई दल दिखाएगा?
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का सवाल फिर गरमा गया है। जालना में आरक्षण समर्थकों पर पुलिस कार्रवाई के बाद सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी पर दबाव इतना बढ़ा कि गृह मंत्री देवेंद्र फड़णवीस को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी। जाहिर है, जिस समय चुनाव सिर पर हैं, भाजपा सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली मराठा समुदाय को नाराज नहीं रखना चाहती। दूसरी तरफ विपक्षी दल इस समुदाय की भावनाओं को हवा देने में कोई कसर नहीं बरत रहे हैं। मगर मुद्दा यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को अवैध ठहरा दिया है, तो फिर कोई सरकार इस समुदाय की मांग को कैसे पूरा करेगी? यह मसला नया नहीं है। तकरीबन चार दशक से मराठा आरक्षण की मांग चुनाव से ठीक पहले जोर पकड़ती है। दोनों पक्ष की सरकारों ने आरक्षण देने के निर्णय भी किए, जो न्यायिक परीक्षण में टिक नहीं सके। मराठा समुदाय के प्रभाव का हाल यह है कि महाराष्ट्र में आज तक बने 20 मुख्यमंत्रियों में से 12 इस समुदाय से आए हैँ।
जहां तक आबादी बढ़ने के साथ जमीन विभाजित होने और शैक्षिक स्तर पर आम मराठा व्यक्तियों के पिछड़े होने की बात है, तो इस समस्या से कोई बचा हुआ नहीं है। लेकिन आरक्षण इस समस्या का समाधान है, यह मानने का कोई तर्क नहीं हो सकता। जिस समस्या की जड़ें आर्थिक व्यवस्था और विकास नीति से जुड़ी हुई हैं, उनका सामाजिक समाधान ढूंढने की कोशिश निरर्थक है। मगर ऐसे समाधान से सिर्फ भावनाओं को संतुष्ट किया जा सकता है, लेकिन कथित पिछड़ेपन को दूर नहीं किया जा सकता। मगर वोट की राजनीति में सियासी पार्टियों के लिए भावनाओं को संतुष्ट करना एक महत्त्वपूर्ण दांव होता है। इसलिए वर्तमान केंद्र सरकार ने सवर्ण जातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर दी, हालांकि उसे आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण बताया गया। बहरहाल, आवश्यकता इस बात की है कि आर्थिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन की समस्या को आरक्षण के विमर्श से बाहर निकाला जाए। तभी मसले के सही कारणों की पहचान होगी और कारगर समाधान पर चर्चा करना संभव हो पाएगा। क्या इसका साहस कोई दल दिखाएगा?