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इतिहास था सुनहरा और वर्तमान व भविष्य है काला

ईरान में आज महिलाएं आजादी की मांग को लेकर सड़कों पर उतरी हुई है। इसका दुनिया में जबरदस्त हल्ला है, कवरेज है। बताया जाता है कि आयतुल्ला अली खामैनी की सेहत भी बिगडी हुई हैं। इस्लामी सरकार और उसके संरक्षक मौलाना और इमाम लोग पुलिस तथा खुफिया एजेंसियों से महिलाओं को कुचलने की तमाम तरह के तरीके, आदेश व धमकियां देते हुए है। मगर नाराज महिलाओं की संख्या बढ रही  है। कई जगह महिलाओं द्वारा मसजिद में मुल्लाओं को पीटने की खबर है।… तब क्या बदलेगा ईरान?…. विरोध  के कुछ और दिनों के बाद आंदोलनकारी महिलाए डर जाएगी।  लड़कियां बाहर निकलना बंद कर देंगी और अगर निकलेगी भी तो घरवाले एक के बजाय लड़कियों को दो बुर्के पहना कर बाहर जाने देंगे।

तब परसिया और अब ईरान

ईरान कभी परसिया था। शहरजादे के किस्से काहनियों वाला। अब वह क्या है?  वह इन दिनों काले कपड़े से महिलाओं की आजादी के संर्घष की खबरों में है। ईरान इतिहास की गिनीचुनी महान सभ्यताओं में कभी एक देश था। वह परसिया था जो शहजादे और शहजादी के किस्सों और राजसी वैभव में लकदक हुआ करता था।  बहुत ख़ूबसूरत और मनभावक। इतिहास परसिया को चमत्कारी माया की शानशौकत वाला, ग्लैमर और आनंद से भरी सभ्यता के किस्से लिए हुए है। वह परसिया जहां शहरजादे याकि शहजादे की प्रेम दांस्ता जादूई नीले आकाश और चांदी सी नदियों में तरबतर थी। परसिया का वैभव, उसका शाहीपना इतिहास में हमेशा बाहरी लोगों को लुभाता रहा। उसकी  हमेशा राजसी ख्याति रही। कोई आश्चर्य नहीं जो प्रारंभिक शताब्दियों में यह देश  अरबों, तुर्कों और मंगोलों सबके लिए ईर्ष्या का केंद्र था।

वह परसिया, फारस, ईरान हुआ आधुनिक काल में। बीसवीं सदी में तब जब वहा तेल मिला और दुनिया ने उसे रंग दिए। वहा एक नए शंहशाह, नई राजशाही का जन्म हुआ।  राजशाही की दिखावे वाली, भव्य वैश्विक महत्वाकांक्षाओं ने देश में नया जोश भरा। परसिया बन गया ईरान। मगर वह नया नाम शायद अशुभ था। नए नाम के साथ उसके मिजाज का ग्लैमर, उसकी चमक मिटती गई।  सिल्वर नदी की जगह बहने लगा काला चिपचिपा तेल। मगर क्योंकि  तेल दुनिया की जरूरत था तो पेंट्रोलियम पदार्थों के कारण बाकि दुनिया के लिए ईरान वापिस अमीर और शाही हुआ?  इस सरजमीं पर ब्रिटेन और रूस की नजरे गंढी। दोनों देशों ने सन् 1907 में एक समझौता करके ईरान को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र के दो हिस्सों में बांट लिया।

आधुनिक शहंशांह याकि शाह रजा ने परसिया को एक आधुनिक ईरान बनाने का सपना देखा। खूब निर्माण कराएं। ऐसे मानों योरोप बनाना हो।  देश को वापिस दुनिया की एक महान सभ्यता बनाने का मकसद। उन्होंने महिलाओं के लिए काले टेंट जैसे चादर, बुर्कों पर प्रतिबंध लगाया। सड़क, रेल, हवाई अड्डों, आधुनिक बस्तियों  का भारी इंफ्रास्ट्रक्चर बनवाया। देश की एक मजबूत सेना बनाई। ईरानी आधुनिक पढ़े-लिखे बने।

बीसवीं सदी के ईरान के आधुनिक शाह ने ईरान को सैनिक ताकत और आधुनिक बनाने के लिए बहुत मेहनत की। इतना ही नहीं योरोप में जब हिटलर से जर्मनी का वैभव बना तो शाह ने  हिटलर की प्रशंसा की और जर्मन इंजीनियरों को बुला कर उन्हे देश का ‘बुनियादी ढांचा’  विकसित करने का काम दिया। उनके शासन में एक साहसी प्रधान मंत्री हुए। नाम था मोहम्मद मोसादिक। उन्होने तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया। और ईरान में लोकतंत्र बनवाने, जमाने की बातें की।  लोकतंत्र, स्वतंत्र प्रेस और चुनाव जैसी आधुनिक समझदारी ईरानियों में बने, इसका संकल्प लिया।

मगर राजशाही के राज में ऐसे विचार कैसे अमल में आ सकते थे?  लोगों ने अपने प्रधानमंत्री के नए आईडियां को पसंद करना शुरू किया तो ईरान के शाह को यह अपने लिए खतरा समझ आया। मगर जनप्रिय प्रधानमंत्री ने अपनी कर दिखाई। टकराव हुआ और कुछ दिन के लिए शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को देश छोड़ना पड़ा।

मगर उन्होने विदेश रहते हुए पश्चिमी देशों में अपने लिए लॉबिंग की। पेट्रोलियम पदार्थों से देश के महत्व को मित्र पश्चिमी देशों को समझाया। वे उनकी मदद से फिर वापिस ईरान लौट आए। राजधानी तेहरान और लोगों की आजादी पसंदगी को काबू में किया। पश्चिमी तेल कंपनियों के साथ कारोबारी सौदे करके, अमेरिका और योरोप का दिल जीत कर शाह रजा ने अपनी सत्ता की सभी चुनौतियों को खत्म किया। वह शाह की राजशाही में ईरान का जकड़ना था। जनता में खौफ बनाने, आजादी चाहने वालों पर नजर रखने, उन्हे दबाने के लिए शाह ने सावाक (SAVAK) नाम की खुफिया एजेंसी का आंतक बनाया। इस एजेंसी के जरिए वे दशकों विरोधियों को कुचलते रहे।

लेखक जेम्स बुखान (Days of God: The Revolution in Iran and its Consequences- James Buchan) ने अपनी किताब में लिखा है कि शाह के समय देश में अमीरी आई। पेट्रोल पदार्थों की कमाई से रौनक बनी। बावजूद इसके गरीबी बनी रही। लोगों को गरीबी से बाहर निकालने पर ध्यान नहीं रहा तो अंत में हुआ यह  कि – शाह यदि आधुनिकता को फटाफट ला देने की जल्दबाजी में थे तो वे उसे फटाफट मिटा देने का काम भी करते हुए थे। उन्होने सदियों से चले आ रहे टकराव को कुछ सालों में निचोड कर खत्म कर देने की गलतफहमी पाली।

राजशाही को पश्चिमी देशों से दम मिला हुआ था तो पहले रजा शाह और फिर उनके बेटे का बेखटके शासन हुआ। ईरान कोई  उनतालीस वर्ष पहलवीं शहंशाही के राज में रहा।

अचानक विदेश में, फ्रांस में निर्वासित  एक आयतुल्लाह खुमैनी गरीब- मध्यवर्गीय लोगों का इस्लाम की मशाल का मसीहा बन शाह के लिए चुनौती बना। ऐसा घटनाक्रम हुआ. ऐसे हालात बने कि सन् 1970 में ईरानी लोगो का ग़ुस्सा उबल पड़ा। गरीब रूढ़िवादी ग्रामीण इलाकों और पवित्र धार्मिक शहर कुम के मदरसों से निकले लोगों ने बगावत की। खुमैनी का राजशाही और उसके गैर-इस्लामी शासन को उखाड़ फेंकने का आव्हान हुआ। उस दौरान का हैरानी का एक पहलू है कि दुनिया की एक लोकतांत्रिक आजाद आवाज बीबीसी ने बगावत में रोल अदा किया। बीबीसी परसिया ने ईरानी लोगों की बगावत को दुनिया भर में, ईरान के भीतर घर-घर पहुंचाया। उसका प्रचार किया। शाह रजा डावडोल हुए।

यह आज समझ नहीं आने वाली बात है कि ईरान के अंदरूनी मामले की राजनैतिक उथलपुथल को बीबीसी, परसिया ने क्योंकर तूल दिया? लेकिन सच्चाई है कि कई बार लोकतंत्र की चाहना का औजार ही जनता को दूसरे एक्स्ट्रीम पर ले जाता है। आज ईरान जिस कठमुल्लाई व्यवस्था में है और यदि  औरते बेसिक आजादी की भी मोहताज है तो इस दशा में पहुंचाने में बीबीसी परसिया की तब की कवरेज का हाथ है।

ध्यान रहे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान रेडियों का अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण देशों की कूटनीति का एक महत्वपूर्ण औजार था। लंदन के बुश हाऊस याकि बीबीसी मुख्यालय ने ईरान के लिए बीबीसी परसिया प्रसारण सर्विस शुरू की। मकसद दो टूक था। ईरान पर ब्रिटिश प्रभाव बनाना, बढाना। और सचमुच दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बीबीसी फ़ारसी सेवा ने ईरानियों में गजब प्रतिष्ठा पाई। उसने युद्ध के वक्त भी जर्मनी की फारसी प्रसारण सेवा को जोरदार टक्कर दी।

बहरहाल, 1970 के दशक में फारस की खाडी और पश्चिम एसिया में ईरान की ताकत का दबदबा बना तब बीबीसी की फारसी सेवा की तटस्थ कवरेज हुई तो  शाह मोहम्मद रजा पहलवी और उनकी सरकार के लोगों में खटका बना। बीबीसी परसिया को पसंद नहीं किया गया। इस सबके गडबडझाले में आयतुल्ला खुमैनी ने जब फ्रांस से अपनी मुहिम शुरू की तो बीबीसी परसिया ने राजशाही याकि शाह रजा के खिलाफ उनके भाषणों को  खूब प्रसारित किया।

कुल मिलाकर इस्लामी कट्टरपंथ और आयतुल्लाह की बनवाई बगावत से सन् 1979 में ईरान में तख्ता पटल हुआ। कथित ईरानी क्रांति शाह रजा ने भाग कर विदेश में शरण ली। फ्रांस में वर्षों तक निर्वासित रहे आयतुल्लाह रौहोला खौमनी ने ईरान लौट कर इस्लामी सत्ता बनवाई। ईरान एक इस्लामी गणंतत्र बना।

और फिर क्या था। तब का दिन और आज का दिन है। ईरान अपने अंदरूनी भंवरों, इस्लामी बंधनों और दुनिया व खासकर पश्चिम एसिया में, सुन्नी बहुल सऊदी अरब के खिलाफ शिया राज की इस्लामी ताकत की महत्वकांक्षा में बुरी भटका और कंगला हुआ देश है। उसने अमेरिका के खिलाफ खूब हल्ला किया। नतीजतन अपने आपको दुनिया का अछूत देश बनाया। फारस के शहरजादे और शहरजादियों के किस्से-कहानियों, चमक-धमक, ग्लैमर को गंवा कर दुनिया का वह जैसे तैसे गुजारा करता देश है, वह भी पेट्रोल जैसे संसाधन के बावजूद। मुल्लाओं की लीडरशीरप में देश हर तरह से रूढ़िवादी हुआ पडा है।

खौमेनी और उनके बाद के अयातुल्ला, धर्मगुरू इंच भर भी सुधारवादी और आधुनिक नहीं है। न अनुयायियों और न जनता को वे हक देने के पक्षधर है। जैसा वे कहे वैसे ही जनता वोट दें, राष्ट्रपति बने। उनके बताएं तौर-तरीकों में ही लोग जिंदगी गुजारे। इतना ही नहीं दुनिया को भी अपने रंग में रंगना। सलमान रशदी ने किताब लिखी तो उसके खिलाफ मुसलमान को सीधे यह फतवा कि इस लेखक को मारों!

सन् 1989 में खौमेनी की मौत हुई। तब तक वे ईरान की रेत में वह इबारत लिख गए  जिससे कोई टस से मस नहीं हो सकता। उनकी इस्लामी व्यवस्था से सरकार और लोगों के दिल-दिमाग में, यादों में इतना कुछ पैठ चुका है कि बदलाव की गुंजाईस ही नहीं है। एक तरफ धर्म को समर्पित लोग और दूसरी तरह हताश-निराश-निर्वासित और गुस्से-असंतोष से मन ही मन फडफडाते ईरानी।

तभी खौमेनी की मौत के बाद भी वक्त नहीं बदला। उनकी मौत के बाद अयातुल्लाह अली खामैनी ने गद्दी संभाली। इनके राज में भी चार राष्ट्रपति आ- जा चुके हैं। मगर किसी से कोई परिवर्तन नहीं हुआ। न घरेलू मामले में और न विदेशी मामलों में। सरकार और राष्ट्रपति बदलना सब बेमतलब। सरकार परिवर्तन और नया करने के लिए नहीं बल्कि खौमेनी के बताएं इस्लामी संस्करण के अनुसार काम करने के लिए पाबंद।

यों दो बार छुट-पुट विद्रोह हुआ है।एक बार सन 2009 में, मोहम्मद अहमदीनजादे के शासन में। उन्हे अयातुल्ला खामेनेई का चेला समझा जाता था। उनके द्वारा चुनाव में धांधली को लेकर देश में बहुत आंदोलन-प्रदर्शन हुए।  फिर सन् 2019 में हसन रौहानी की सरकार के वक्त में आर्थिक बदहाली से लोग सडकों पर उतरे थे। अमेरिका ने 2018 में जब उसके साथ हुए परमाणु समझौते को रद्द किया और ईरान पर वापिस प्रतिबंध लगे तब भी आर्थिक हालात नाजुक हुए। चौतरफा विरोध-प्रदर्शन हुए। नवंबर 2019 के विरोध प्रदर्शनों में, तो “तानाशाह की मौत” के नारे भी सुने गए।

फिलहाल ईरान अलग तरह के संकट में है। वहां महिलाएं आजादी की मांग को लेकर सड़कों पर उतरी हुई है। इसका दुनिया में इजबरदस्त हल्ला है, कवरेज है। बताया जाता है कि आयतुल्ला अली खामैनी की सेहत भी बिगडी हुई हैं। इस्लामी सरकार और उसके संरक्षक मौलाना और इमाम लोग पुलिस तथा खुफिया एजेंसियों से महिलाओं को कुचलने की तमाम तरह के तरीके, आदेश व धमकियां देते हुए है। मगर नाराज महिलाओं की संख्या बढ रही  है। कई जगह महिलाओं द्वारा मसजिद में मुल्लाओं को पीटने की खबर है। जैसे देश के दक्षिणी शहर शिराज में 17 सिंतबर को आठ इमामों की मार-मार कर हत्या हुई।

स्वभाविक है जो तेहरान की हुकूमत घबराइए।  वह हिली हुई है। सीएनएन की क्रिस्टीना अमनपोर को “ईरान की स्थिति” के कारण अमेरिका की धरती पर राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी का साक्षात्कार करते समय एक हेडस्कार्फ़ पहनने के लिए कहा गया। ईरान में बुर्के, हिजाब को सरेआम जलाने, सडकों पर औरतों के सार्वजनिक तौर पर बाल काटने और इस्लामी सरकार और उसके कायदों के खिलाफ आंदोलन की घटनाएं लगातार बढती हुई है। इसमें आर्थिक बदहाली आग में घी का काम करते हुए है। ईरान दुनिया का वह देश है जहां प्रति व्यक्ति आय का आंकडा साल-दर साल घटते हुए है। सन् 2012 में जीडीपी 8000 डालर थी वह अब तीन हजार डालर से भी नीचे है।

बावजूद इस सबके इस्लामी सरकार बेफिक्र भी लगती है। तेहरान के जानकार बता रहे है कि सरकार को वक्त के साथ महिलाओं के ठंडे पड जाने का विश्वास है। कई लोगों को लग रहा हे कि हत्या, विरोध  के कुछ और दिनों के बाद आंदोलनकारी महिलाए डर जाएगी।  लड़कियां बाहर निकलना बंद कर देंगी और अगर निकलेगी भी तो घरवाले एक के बजाय लड़कियों को दो बुर्के पहना कर बाहर जाने देंगे। ईरान नहीं बदल सकता है। ईरान का आज और आने वाला कल इतिहास शहरजादे याकि शहजादे की  दांस्ता वाले जादूई  नीले आकाश और चांदी सी नदियों वाला परसिया नहीं हो सकता है। उसके नसीब में बंजर, रेतीली और काले कपड़ों में लिपटने रहने की ही जिंदगी है।

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Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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