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गोखले, तिलक, सावरकर,चव्हाण,ठाकरे के महाराष्ट्र में यह क्या!

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सत्ता के लोभी, लालची लोगों से राजकीय भाषा बदल गई है। नेताओं के परस्पर व्यवहार व राजकीय संवाद में घोर पतन है। सत्ता के खेल में, लोक संवाद में गैंगेस्टरों की गुंडा भाषा बोली जाने लगी है। राजनीति को गैंग में बदल जो गैंगस्टर भाषा बनी है उसके इन चंद शब्दों पर गौर करें- “हमने बदला लिया है”, “इसको सुपारी दी है,”..”हमने कार्यक्रम(खेल ख़तम) किया है,” “गद्दार’ “खोके “, पीठ में खंजीर खोपना,” “ईडी लगाएंगे–जेल में भेजेंगे… आदि, आदि। ये जुमले, ऐसी भाषा भाजपा औरउसकी जूनियर पार्टनर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के नेताओं की है। वह भाजपा इस नई राजकीय भाषा को आगे बढ़ा रही है जो एक ज़माने में “चाल,चेहरा और चरित्र को बदलने की बात करती थी।

सत्ता के खेल में महाराष्ट्र का नया चरित्र देश के सामने उभरा हैं। मैं महाराष्ट्र का हूं। तीन दशक नागपुर, मुंबई और दिल्ली में पत्रकारिता करते हुए मैंने महाराष्ट्र कवर किया है। राजनैतिक तौर पर महाराष्ट्र जागरूक और सभी विचारों का समावेशी प्रदेश था। नरम-गरम, सेकुलर-हिंदू, मराठा-दलित राजनैतिक विविधताओं से भरापूरा। महाराष्ट्र के समाज-राजनीति की देश में पहचान में छत्रपति शिवाजी,लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गांधीजी के राजनैतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले, विनोबा भावे, जोतीराव फुले, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर, श्रीपादअमृत डांगे, यशवंतराव चव्हाण, मधु लिमये, बाल ठाकरे जैसे महापुरुषों प्रदेशों की कर्मभूमि के रूप में थी।

सब जानते है कि मराठी भाषा की साहित्यिक, कला-संस्कृति, रंगमंच, सजृनात्मक उपलब्धियों और समाज सुधार व सहकारिता में आजादी से पहले और आजादी के बाद की महाराष्ट्र की प्राप्तियां की भी पूरे देश में धमक रही। मुंबई में, महाराष्ट्र में सबको न केवल समान अवसर मिले बल्कि देश की तमाम पार्टियों को नेता मिले, साधन मिले तो महाराष्ट्र में खेती, सहकारिता, औद्यौगिक विकास, कला-संस्कृति-फिल्म के म़ॉडल मिले। कांग्रेस हो या समाजवादी पार्टी या कम्युनिस्ट या फिर जनसंघ-भाजपा सब को महाराष्ट्र से ताकत मिली। देश के सभी प्रदेशों और केंद्र की राजनीति ने महाराष्ट्र से जाना-सीखा कि लोकशाही में कैसे एक-दूसरे का आदर-सम्मान करते हुएराजकीय कामों का व्यवहार बनता है। अफसरशाही से काम लिया जाता है।

ऐसा तब भी था जब मुंबई में बालासाहेब ठाकरेने हिंदुत्व का हुंकारा मारा। तब नरेंद्र मोदी, अमित शाहराजनीति और हिंदुत्वके `बाल कलाकार’भी नहीं रहे होंगे। मराठी मानस, कॉस्मोपॉलिटनमुंबई में बाल ठाकरे ने अपना जैसा जो रूतबा बनाया उससे प्रदेश की राजनीति में खूब हंगामे हुए लेकिन मैंने अपनी पत्रकारिता में कभी कांग्रेस या किसी और पार्टी के नेताओं ने बालासाहेब को लेकर या परस्पर एक-दूसरे के खिलाफ अपशब्द, गालीगलौज या तू तू, मैं- मैं नहीं सुनी। एक-दूसरे के विचारों को लेकर तिखी टीका होती थी लेकिन वह नहीं था जैसे इन दिनों एक दूसरे पर कीचड फैंकने की चीखलबाजी है। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी, वीर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघसे हिंदू राजनीति का मानस में मान रहा है। मुझे ध्यान है राजनीति में नए-नए कूदे बाल ठाकरे के यहां 1971में नानाजी देशमुख केघर जा कर एलायंस के लिए उन्हे मनाया।हालांकि समझौता नहीं हो पाया मगर परस्पर सद्भाव रहा। जनसंघ के नानाजी देशमुख हो या कन्नड-मराठी भाषी जगन्नाथ राव जोशी से ले कर यशवंत राव केलकर सभी संघ-जनसंघ नेता प्रदेश के राजकीय कामों में तमाम बाकि पार्टियों के साथ परस्पर एक-दूसरे के साछ आदर-सम्मान से बात करते थे।

वह सब अब खत्म है। राजकीय मर्यादाओं-संस्कारों का हर तरह से पतन है। पिछले एक सालसे महाराष्ट्र में ऐसा राजकीय तमाशा चल रहा है जो सभी को शर्मसार बना दे रहा है। संस्कारी-सांस्कृतिक महाराष्ट्र की राजकीय परंपरा और भाषा खत्म हो गई है। सत्ता के लोभी, लालची लोगों से राजकीय भाषा बदल गई है। नेताओं के परस्पर व्यवहार व राजकीय संवाद में घोर पतन है। सत्ता लालचियों ने महाराष्ट्र की संस्कृति, राजनीति का ऐसा पतन किया है कि बाते सुनकर पुराने लोग शर्मसार होते है। सत्ता के खेल में लोक संवाद में गैंगेस्टरों की गुंडा भाषा बोली जाने लगी है।राजनीति को गैंग में बदल जो गैंगस्टर भाषा बनी है उसके इन चंद शब्दों पर गौर करें- “हमने बदला लिया है”, “इसको सुपारी दी है,”..”हमने कार्यक्रम(खेल ख़तम) किया है,” “गद्दार’ “खोके “, पीठ में खंजीर खोपना,” “ईडी लगाएंगे–जेल में भेजेंगे!

ये जुमले, ऐसी भाषा भाजपा औरउसकी जूनियर पार्टनर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के नेताओं की है। उस भाजपा के नेता इस नई राजकीय भाषा को लोकप्रिय बना रहे है जोएक ज़माने में “चाल,चेहरा और चरित्र को बदलने की बात करती थी।2022-23  केमोदी राज में, अमृतकाल में इस तरह के जुमलों को सुनकर हैरानी होती है कि महाराष्ट्र अब क्या हो गया।

इन दिनों महाराष्ट्र के कई जिलों में पीनेका पानी नहीं मिल रहा है। महाराष्ट की समृद्धि मुंबई, पुणे, नाशिक,ठाणे औरनागपुर जैसे महानगरों में सिमटती जा रही है। मुंबई से पुणे में सबकुछ स्थांतरित होता हुआ है। मानों आधा महाराष्ट्र पुणे में!और पूरा शहर केहोस में। सत्ताधरियोंके पास समग्र विकास की न दृष्टी है और न इच्छाशक्ति! सरकार शहरोंके नाम बदल रही है और इनके उद्योग गुजरात और दूसरे राज्योंमें जा रहे हैं। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे औरउपमुख़्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अयोध्या में जा कर रामलल्ला के दर्शन करते है लेकिन इनकी भक्ति का इनके वोट बैंक से बाहर असर नहीं है। भाजपा के नए युग के नेता”जी हुजूर” चरित्र बनाते हुए है। इसके असर में प्रदेश के बाकि दलोंका चरित्र बन रहा है।  नेताओंका कद जिलास्तर या जातिके दायरे में सिकुड़ रहा है। हाईकमांड कीसंस्कृति फैल रही है।

वैसे महाराष्ट्र के राजकीय पतन का इतिहास 1980 सेतब शुरू हुआ जब ए. आर. अंतुले मुख्यमंत्री बने थे। जब कांग्रेस में वसंतदादा पाटिल जैसे जमीनी नेता आउट होने लगे। शिवसेना-भाजपा की 1995 में मिलीजुली सरकार बनी तोउसका रिमोट बालासाहब ठाकरे के हाथ में था लेकिन सत्ता मनोहर जोशी, नारायण राणे (शिवसेना) और भाजपाके गोपीनाथ मुंडे ने चलाई। उस सरकारके दौरान पोलिस दल में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट तैयार हुए। यह हल्ला बनाया गया कि “हमने मुंबई के गैंगवॉर ” को ख़त्म किया। लेकिन फिर नए तरह के गैंग बनने लगे। बिल्डरों-ठेकेदारों-सत्ताधारियों का मुंबई से ले कर जिलास्तर तक वह ताना-बाना और वे गैंग बने है जिसकी वजह सेराजकीय संस्कृति पूरी तरह पैसे और भ्रष्टाचार में जकड़ गई है। मुंबई में किसी भी कीमत पर सत्ता अपनी हो इस जिद्द की वजह पैसा और भ्रष्टाचार है। जैसे कर्नाटक में 40 प्रतिशत कमीशन का हल्ला सुना गया वैसे महाराष्ट्र में घर-घर हल्ला हो गया है कि सरकारी दफ्तरों मेंपैसे दिए बगैर काम नहीं होता। अफसरों की पहचान काम से नहीं बल्कि अब उनकी मंत्रियों से निकटता से है।

महाराष्ट्र में वह अफसरशाही है ही नहीं जो हुआ करती थी। मुंबई और पुणे का पढ़ा-लिखा युवा विदेश जाने की कोशिशों में है।महाराष्ट्र के छोटे शहरों व देहात में या तो बूढ़े लोग दिखाई देंगेया ड्रॉपआउट!पश्चिमी महाराष्ट्र में कभी सहकारिता क्षेत्र में नए-नए प्रयोग होते थे। नए प्रोजेक्ट बनते थे। अब वैसा कुछ भी नहीं। नीतिन गड़करीने जरूर मुंबई-पुणे महामार्ग बनवा, इंफ्रास्ट्रक्चर का नया जाल बनाया है लेकिन प्रदेश की सरकार के स्तर पर न देवेंद्र फड़नवीस ने पांच साल के अपने कार्यकाल में कोई विजन और ईच्छाशक्ति दिखाई और न एकनाथ शिंदे की सरकार से कुछ होता हुआ है। यदि कुछ हुआ है और हो रहा है तो वह नेताओं का एक-दूसरे को देखने, सुपारी देने, ठोकने जैसी बाते है। तिलक-गोखले-सावरकर की भूमि के राजकीय पतन की रोज-रोज की खबरों ने मेरे जैसे पुराने पत्रकार के आगे यह पहेली बनाई है कि ऐसा कैसे है जो प्रदेश के पुराने जमीनी नेताओं, नागपुर के संघ पदाधिकारियों को दिख नहीं रहा कि महाराष्ट्र का कैसा बेड़ा गर्क हो रहा है!

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