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सितमगर से इश्क़ के ख़ब्ती दौर में

अपने पर अत्याचार करने वाले को ही प्रेम करते रहने की गाथाएं भारतीय समाज में कोई कम तो नहीं हैं। जो जान निकाले रहते हैं, उन्हीं पर जान छिड़कते रहने वाली सूक्तियों को आपने भी यहां-वहां देखा होगा। रोज़ किसी न किसी से आप भी सुनते होंगे कि मारता है, पीटता है, लेकिन घर भी तो वही चलाता है। यह भाव भारतीय मानस में भीतर तक घुसा हुआ है। ऐसे भी हैं, जो मारते हैं, पीटते हैं, घर भी नहीं चलाते, उलटे परिश्रम कर के लाई पत्नी के पैसे भी उड़ा देते हैं; लेकिन कितनों को कोई बाहर का रास्ता दिखा पाता है?

ठीक पचास बरस पहले की बात है। तब स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम के मशहूर क्रेडिट बैंक को लूटने की नाकाम कोशिश हुई थी। उस ज़माने में वह स्वीडन का सबसे बड़ा बैंक था। क़ैद की सज़ा भुगत रहा एक अपराधी जन-एरिक ओइसॉ कुछ दिनों के पैरोल पर जेल से छूटा था। उसने अपने एक साथी क्लॉर्क ओल्फसॉ के साथ मिल कर यह वारदात की थी। बैंक डकैती के वक़्त ओइसॉ और ओल्फसॉ ने बैंक के चार कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। इनमें तीन महिलाएं थीं और एक पुरुष। बंधक 6 दिन अपने बंदीकर्ताओं के कब्जे में रहे – 23 से 28 अगस्त 1973 तक। पुलिस ने अंततः बंदीकर्ताओं को पकड़ लिया और बंधकों को छुड़ा लिया। लेकिन छूटने के बाद कर्मचारियों ने ख़ुद को बंदी बनाने वालों के ख़िलाफ़ ग़वाही देने से इनकार कर दिया। डर के मारे नहीं, इसलिए कि अपने बंदीकर्तााओं के साथ उनका एक भावनात्मक-सा रिश्ता बन गया था।

बंधकों में एक थी क्रिस्टीन एनमार्क। उन्होंने ऐसे सभी लोगों की खुल कर आलोचना की, जो बंदीकर्ताओं के ख़िलाफ़ तीखी और उत्तेजना भरी टिप्पणियां कर रहे थे। क्रिस्टीन बहुत नाराज़ थी कि पुलिस ने बंधकों की जान की परवाह किए बिना बंदीकर्ताओं पर बंदूकें तान दीं। यह भी नहीं सोचा कि दोनों तरफ़ से गोलीबारी होने से बंधक मारे जा सकते थे। क्रिस्टीन ने अख़बारों को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि पुलिस से अच्छे तो हमें बंदी बनाने वाले थे, जिसमें एक ने गोलीबारी में हमें बचाने की कोशिश भी की। बंधकों ने स्वीडन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ओलोफ़ पाल्मे की भी आलोचना की कि उन्होंने बंदीकर्ताओं से बातचीत कर बंधकों को छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की।

बैंक लूटने के मक़सद से गए दो लोगों में से एक ओल्फसॉ ने स्वीडन के मीडिया के दिए हर इंटरव्यू में एक ही बात कही कि यह तो बंधकों की ग़लती थी कि वे मेरी हर बात मानते रहे और जैसा मैं कहता था, करते रहे। अगर वे मेरा कहा नहीं करते तो मैं आज यहां होता ही नहीं। उसने कहा कि बंधकों को मारना बहुत मुश्क़िल था। एक के बाद एक दिन बीतता जाता था और वे बकरियों की तरह हमारे साथ रहते रहे। ओल्फसॉ ने बताया कि छह दिन तक चार लोगों को बंधक बना कर रखना मामूली बात नहीं है। अगर बंधक सहयोग न करें तो तीन-चार दिन बाद बंधक बनाने वालों की शामत भी आ सकती है।

मैं ने यह किस्सा आपको इसलिए नहीं सुनाया है कि आप इसका कोई बहुत गहन अर्थ निकालें। मैं ने यह इसलिए भी याद नहीं दिलाया है कि आप इसकी समातंर सामाजिक-राजनीतिक मिसालों पर निग़ाहें दौड़ाएं और इस किस्से से जोड़ कर उन्हें समझने-गुनने की कोशिश करें। मुझे तो यह घटना इसलिए याद आई है कि ‘स्टॉकहोम संलक्षण’ यानी ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ शब्द तभी से हमारी ज़िंदगी में शामिल हुआ है। यह एक ऐसे रोग को परिभाषित करता है, जिसमें बंदियों का अपने बंदीकर्ता से एक भावुक मानसिक रिश्ता बन जाता है। बंदियों और बंदीकर्ता के बीच का शक्ति संतुलन, ज़ाहिर है कि, बंदी बनाने वाले के पक्ष में बेतरह झुका होता है। बंदी निहत्थे होने की वज़ह से अपने को बेहद कमज़ोर मानते हैं और बंदीकर्ता अपने हथियारों, आतंक और धमकियों के बूते बहुत ताक़तवर दिखाई देते हैं।

बंदी चूंकि भयभीत रहते हैं, इसलिए अपने को बंधक बना लेने वालों की सारी बातें वे मन मार कर मानते रहते हैं। फिर कुछ वक़्त बाद उन्हें यह राहत-सी महसूस होने लगती है कि बंदीकर्ताओं ने उन्हें अपना कोई ख़ास मक़सद हासिल करने के लिए बंधक बनाया है और उनका मूल इरादा बंधकों को नुक़सान पहुंचाना नहीं है। ऐसे में वे अपने बंदीकर्ताओं से एक क़िस्म का सहयोग करने लगते हैं। वे बजाय इसके कि बंदीकर्ताओं के खि़लाफ़ एकजुट हो कर, कुछ जोख़िम उठा कर, उन्हें झपट कर काबू में करने का सोचें, यह सोचने लगते हैं कि किस तरह सहयोगी-भाव अपना कर बंदीकर्ताओं की सदाशयता हासिल करें और अपने प्राण बचाएं। बंदी बनाने वालों से रोज़मर्रा की ज़रूरी बातचीत का थोड़ा सिलसिला शुरू होने पर जब बंदियों को उनके लक्ष्यों के बारे में पता चलता है तो बहुत बार यह होता है कि बंदी के मन में अपने बंदीकर्ता के मक़सद से सहानुभूति के भाव उपजने लगते हैं। ऐसे में बंदीकर्ता भी अपने लक्ष्य की कथित महानता और उसे हासिल करने के लिए अपने कथित संघर्ष की कथाएं परोस-परोस कर बंदियों की सद्भाव-तरंगों को दुगना-चौगुना कर लेते हैं।

ख़ुद को बंदी बनाने वाले पर ही फ़िदा हो जाने की यह अकेली रूमानी कथा नहीं है। अमेरिका के एक अति-वामपंथी उग्रवादी संगठन एसएलए ने भी पांच दशक पहले जब मशहूर प्रकाशक विलियम रेंडोल्फ़ हर्स्ट की पोती पैटी का अपहरण कर उसे बंधक बना लिया था तो उसका तो ऐसा मानसिक-कल्प हो गया था कि उसने अपना नाम बदल कर तानिया रख लिया। पैटी ने अपने परिवार और पुलिस पर तोहमतें लगानी शुरू कर दीं और बाद में एसएलए के शहरी गुरिल्लों के साथ बैंक डकैतियां डालने लगी। दो साल बाद वह पकड़ी गई तो उसने अपहरणकर्ताओं के खि़लाफ़ कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। उसे सात साल की जेल हो गई। जब बिल क्लिंटन राष्ट्रपति थे तो उन्होंने समय से पहले उसे रिहा कर दिया। उसके वकीलों ने दलील दी थी कि पैटी जानबूझ कर नहीं, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव का शिकार हो जाने की वज़ह से अपराध में हमसफ़र बन गई थी।

सदमा पहुंचाने वाले से भी बहुत बार आहिस्ता-आहिस्ता एक भावभीना संबंध इसलिए बन जाता है कि प्रताड़ित होने वाले को लगता है कि प्रताड़ना देने वाला उस पर और भी बहुत-से ज़ुल्म कर सकता था, लेकिन उसने नहीं किए। छूट जाने पर बंधक महसूस करने लगता है कि बंदी बनाने वाला उसकी जान भी तो ले सकता था, मगर उसने नहीं ली। ऐसे में वह ख़ुद पर हुए अत्याचार को भूल जाता है और सोचता है कि वह तो असहाय था और उस पर बहुत कुछ बीत सकती थी, जो बंदीकर्ता की मेहरबानी से नहीं बीती। वह अपने उत्पीड़क को प्राणदाता की तरह देखने लगता है और उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भर जाता है।

अपने पर अत्याचार करने वाले को ही प्रेम करते रहने की गाथाएं भारतीय समाज में कोई कम तो नहीं हैं। जो जान निकाले रहते हैं, उन्हीं पर जान छिड़कते रहने वाली सूक्तियों को आपने भी यहां-वहां देखा होगा। रोज़ किसी न किसी से आप भी सुनते होंगे कि मारता है, पीटता है, लेकिन घर भी तो वही चलाता है। यह भाव भारतीय मानस में भीतर तक घुसा हुआ है। ऐसे भी हैं, जो मारते हैं, पीटते हैं, घर भी नहीं चलाते, उलटे परिश्रम कर के लाई पत्नी के पैसे भी उड़ा देते हैं; लेकिन कितनों को कोई बाहर का रास्ता दिखा पाता है? एक बार सिर पर बैठ गए तो आपका शिकार खटते-मरते आपकी शरण में ज़िंदगी गुज़ार ही देता है। तो किसी तरह एक बार सिर पर सवार भर हो जाइए।

मैं नहीं जानता कि हम भारत के लोग एकाध दशक से किसी स्टॉकहोम-संलक्षण की चपेट में हैं या नहीं। मैं यह भी नहीं जानता कि इस सिंड्रोम के इलाज़ की कोई कारगर दवा अब तक ईज़ाद हुई है या नहीं। लेकिन इतना मैं ज़रूर समझ गया हूं कि सितमगर से इश्क़ का यह रोग जिसे लग जाए, उसे भगवान ही बचाएं तो बचाएं।

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By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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