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गपशप

कोविड (चीन) से तबाह, बदली दुनिया!

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एक महामारी ने पूरी पृथ्वी और इक्कीसवीं सदी का कैसा भुर्ता बनाया है, इसकी गहराई में जाएं तो लगेगा मानो बरबादी की सदी। दूसरी बात, वायरस के अलावा चीन से ही दुनिया की लगातार तबाही! कोविड के साथ यदि जलवायु परिवर्तन में भी चीन को जोड़ें तो सभी मामलों में वह विनाशकारी। हर वैश्विक आपदा-विपदा चीन का परिणाम। हां, चीन जलवायु परिवर्तन की आपदाओं में भी इसलिए जिम्मेवार क्योंकि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भी तो वही नंबर एक है। चीन की फैक्टरियों से हर साल पृथ्वी के कुल धुएं का एक-चौथाई उत्सर्जन होता है। ऐसे में चीन को क्या माना जाए? चीन पर क्या नजरिया बनाएं?

फिलहाल मुद्दा दुनिया की आर्थिकी और राजनीति का है। इतनी उथल-पुथल है कि किसी को समझ नहीं आ रहा है कि भविष्य में क्या बनेगा? ताजा संकट बैंकिंग व्यवस्था का है। स्विट्जरलैंड का नंबर एक बैंक और अमेरिका की स्टार्ट अप उद्यमिता के बैंकों का दिवाला निकलना या उनका गड़बड़ाना पूरी दुनिया की दशा बिगाड़ने वाला है। कह सकते है दुनिया के बैंक हों, देशों की आर्थिकी सहित विश्व इकोनॉमी में इधर-उधर शिफ्टिंग, उथल-पुथल सबकी वजह चीन है। ऐसे ही विश्व राजनीति और चौतरफा सैनिक-सामरिक-कूटनीतिक उठापटक भी कोविड और चीन की वजह से।

पहले बैंकों का मसला जानें। कोविड से पहले अमेरिका, जापान और विकसित देशों के बैंकों में पैसा जमा करना या उनसे कर्ज लेना लगभग जीरो, एक-दो प्रतिशत की रेट पर हुआ करता था। ब्याज की इतनी कम रेट के कारण ही बैकों के असेट्स बांड्स (मतलब लंबी अवधि के डिपॉजिट से ज्यादा ब्याज का तयशुदा रिटर्न) थे। लेकिन महामारी आई तो सरकारों को जहां नोट छापने-बांटने पड़े वही लोगों की खरीदारी तथा कमाई के बाजे बजे। विकास गतिहीन तो महंगाई आसमान पर।

सो, महंगाई घटाने के लिए रिजर्व-केंद्रीय बैंकों को ब्याज की रेट बढ़ानी पड़ी। इससे जीरो ब्याज रेट के समय बैंको ने चार-पांच-छह प्रतिशत ब्याज की गारंटी की जो लंबी अवधि की प्रतिभूतियां (बांड्स) खरीदे थे उनकी वैल्यू घटी। क्योंकि अब चार-पांच या सात-आठ प्रतिशत ब्याज की कमाई तो चालू व बचत खातों से ही है तो स्वाभाविक जो पुराने कम ब्याज वाले दीर्घकालीन बांड्स जैसे असेट वैल्यू गंवाते हुए याकि कागजी होते हुए। तभी अमेरिकी, यूरोपीय और विकसित दुनिया के तमाम बैंक अपनी बैलेंसशीट की चिंता में हैं। घाटा खाते हुए हैं और बैंकों के शेयर गिरते हुए हैं।

सो, पहली बात, ब्याज दर, महंगाई, सप्लाई चेन का गड़बड़ाना, चीन से इनवेस्टमेंट-मैन्यूफैक्चरिंग का दूसरे देशों में शिफ्ट होना, बेरोजगारी और मंदी की सभी देशों की हकीकत की जड़ में वजह कोरोना महामारी है। दूसरी बात, चीन ने वायरस को जैसे छुपाया, उसने अपने यहां नहीं लेकिन दुनिया में फैलने दिया तो इसके चलते अमेरिका, यूरोप जैसे सभ्य देशों में उसको लेकर गुस्सा, एलर्जी बनी तो उससे भी एक के बाद एक घटनाएं हैं। अप्रत्याशित विश्व राजनीति है। दूसरे महायुद्ध के बाद बनी विश्व व्यवस्था का बिगड़ना है।

दरअसल अमेरिका, यूरोप के सभ्य नागरिकों के दिल-दिमाग में चीन अछूत व घृणास्पद हुआ है। जैसे पहले उसका मान-सम्मान था, वह लगभग खत्म है। और ऐसा राष्ट्रव्यापी आम सहमति के साथ है। डोनाल्डी ट्रंप भी चीन विरोधी तो बाइडेन भी। बोरिस जॉनसन भी चीन का खतरा बताते हुए तो ऋषि सुनक भी। इससे राष्ट्रपति शी जिनफिंग, चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी का सभ्यतागत घमंड बिलबिलाया। राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने बदला लेने के मनोविज्ञान में विश्व राजनीति में उथल-पुथल को हवा दी। यों वे पहले से ही चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था, वित्तीय व्यवस्था, आर्थिक वर्चस्वता, वैश्विक साम्राज्य के सपने बनाए हुए थे। मगर डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट में चीन की आर्थिकी को निशाना बनाया तो वह पश्चिम के बदले मूड की शुरुआत थी। मगर विश्व राजनीति और चीन के प्रति धारणा, परस्पेशन का निर्णायक मोड़ तब था जब वुहान के बाजार (प्रयोगशाला) से दिसंबर 2019 में कोविड वायरस का फैलना शुरू हुआ।

तभी दिसंबर 2019 से मार्च 2023 के कोई चालीस महीनों पर गौर करें। घटनाओं को सिलसिलेवार याद करें तो तस्वीर अपने आप जाहिर होगी? इसलिए वैश्विक परिप्रेक्ष्य में चीन पर फोकस लगातार है। इस बहस का अर्थ नहीं है कि पुतिन को शी जिनफिंग ने यूक्रेन पर हमला करने के लिए उकसाया या नहीं? असल बात पहले दिन से रूस के पीछे चीन के होने की धारणा है। पुतिन से क्योंकि यूरोप लड़ाई का मैदान बना है और एक स्वतंत्र-सार्वभौम यूरोपीय देश पर हमले से दुनिया दो खेमों की मूंछ की लड़ाई में बदली है तो चीन एक खेमें की धुरी है। चीन इससे न परेशान है और न इंकार कर रहा है बल्कि वह कमान बनाए हुए है। अपनी विश्व व्यवस्था बनाने, दुनिया का चौकीदार होने की आक्रमकता में कूटनीति कर रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका और उसके साथी देश चीन को घेरते हुए। यूक्रेन की लड़ाई में रूस को नहीं जीतने देना पश्चिमी देशों की प्राथमिकता है मगर मगर चीन को घेरने की कूटनीति भी कम नहीं है।

और इसमें क्या होता हुआ? शक्ति परीक्षण के लिए दोनों तरफ से कमर करना। पंद्रह साल बाद पहली बार जापान और दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री ने मिलकर चीन के खिलाफ सैनिक तैयारियों और रणनीति बनाई। अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया (AUKUS) के बाइडेन, सुनक व एंथनी अल्बानीज ने चीन के मुकाबले अगली पीढ़ी की पनडुब्बियां बनाने का फैसला किया। ये परमाणु ऊर्जा चालित होंगी। ये कब बनेगी? सन् 2040 में। तो जापान-भारत-ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका का क्वाड हो या जापान-दक्षिण कोरिया का साझा या इंडो-पैसिफिक के देशों के एलायंस सबके पीछे चीन को रोकने की हड़बड़ी। वह इसलिए क्योंकि अब वाशिंगटन, पेरिस, टोक्यो यह सोच कर भी घबरा रहे हैं कि चीन की नौसेना नंबर एक है।

हां, उसका नंबर एक हो जाना और अमेरिका व भारत जानते हुए भी बेखबर। सोचें, क्या भारत में कभी चिंता बनी कि चीन की नौसेना दुनिया की नंबर एक और हिंद महासागर में दादा है तो हम क्या करें? वह अपनी सरपंची में ईरान और सऊदी अरब में दोस्ती करा रहा है तो हमारा क्या मतलब? ! सोतमाम बातें अनहोनी। तभी देश-दुनिया सबके लिए मौजूदा समय अनिश्चितताओं वाला! क्या नहीं?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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