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ब्रह्मकपाल पितरों की मुक्ति का अंतिम द्वार

ब्रह्म कपाल उत्तराखंड के चमोली जिले में बद्रीनाथ धाम के पास अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है। यह तीर्थ स्थल धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, विशेषकर उन लोगों के लिए जो अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान और श्राद्ध कर्म करना चाहते हैं। 

ऐसा माना जाता है कि यह वही जगह है, जहां स्वयं भगवान शिव ने ब्रह्महत्या जैसे महापाप से मुक्ति पाई थी।

मान्यता है कि ब्रह्म कपाल में पिंडदान करने से सौ पीढ़ियों तक के पितरों को मुक्ति मिलती है। गरुड़ पुराण और स्कंद पुराण में इस तीर्थ स्थल की महिमा का विस्तार से उल्लेख किया गया है।

कहते हैं कि जिन पितरों को किसी स्थान पर मुक्ति नहीं मिलती, उनका यहां श्राद्ध करने से उन्हें मुक्ति मिल जाती है। ब्रह्मकपाल पर पुरोहितों की सहायता से विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म किए जाते हैं।

ब्रह्म कपाल की कथा पौराणिक ग्रंथों और पुराणों से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि सृष्टि के आरंभ में भगवान ब्रह्मा ने अपने मन से चार मुख उत्पन्न किए ताकि वे चारों दिशाओं में देख सकें और सृष्टि की रचना कर सकें। किंतु बाद में उन्होंने पांचवां मुख भी उत्पन्न कर लिया जो ऊपर की दिशा में था।

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इस पांचवें मुख के बाद उनमें अहंकार आ गया, क्योंकि ब्रह्मा स्वयं को सृष्टि में सर्वोच्च समझने लगे। जब यह अहंकार अत्यधिक बढ़ गया और ब्रह्मा ने दावा किया कि वे शिव से भी श्रेष्ठ हैं, भगवान शिव ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, लेकिन वे नहीं माने।

भगवान शिव ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया। यह सिर उनके हाथ में चिपक गया और ब्रह्महत्या का पाप उन पर लग गया। यह पाप इतना घोर था कि भगवान शिव को इसके प्रायश्चित के लिए भिक्षाटन पर जाना पड़ा।

वह पूरे संसार में भटकते रहे, लेकिन ब्रह्मा का कटा हुआ सिर उनके हाथ से नहीं छूटा। अंत में जब वह बद्रीनाथ पहुंचे तो ब्रह्मा का कटा हुआ सिर उनके हाथ से गिर गया। ऐसा कहा जाता है कि जिस स्थान पर ब्रह्मा जी का सिर गिरा, उसी स्थान को ब्रह्मकपाल कहा गया।

मान्यता है कि गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए पांडवों ने अपने परिजनों की आत्म शांति के लिए ब्रह्म कपाल पर पिंडदान किया था। यही वजह है कि ब्रह्मकपाल को बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है।

गरुड़ पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्म कपाल के समान पुण्य देने वाला कोई अन्य तीर्थ नहीं है। यहां किया जाने वाला पिंड दान अंतिम माना जाता है. इसके बाद उस पूर्वज के लिए कोई पिंड दान या श्राद्ध कर्म नहीं किया जाता है। पितृ पक्ष के दौरान यहां बड़ी संख्या में लोग पर पितरों का श्राद्ध करने आते हैं।

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By Naya India

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