हालात ऐसे बन गए हैं कि अगर कहीं जांच एजेंसियां न्यायिक कारणों से भी कदम उठाती हैं, तो उसको लेकर समाज के एक हिस्से में संदेह और विरोध की भावना उबल पड़ती है।
दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने आबकारी नीति बदलने के क्रम में सचमुच भ्रष्टाचार किया या नहीं, इस बारे में न्यायालय का फैसला आने तक किसी के लिए कुछ कहना उचित नहीं होगा। लेकिन यह सवाल जायजा है कि क्या न्यायिक कार्रवाई के किसी नतीजे पर पहुंचने तक उन्हें (या किसी भी मामले में किसी व्यक्ति को) जेल भेजना सही प्रक्रिया है? यह सवाल महाराष्ट्र सहित दूसरे राज्यों में कई विपक्षी राजनेताओं की हुई गिरफ्तारी के समय भी उठ चुका है। इस सवाल की वजह सीबीआई सहित दूसरी केंद्रीय जांच एजेंसियों का रुख है, जिनके बारे में यह धारणा बन चुकी है कि वे केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के सियासी हित साध रही हैं। सिसोदिया की गिरफ्तारी पर विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया में आम तौर पर यही बात कही गई कि यह गिरफ्तारी राजनीतिक कारणों से हुई है। ऐसी गिरफ्तारियों पर भारतीय जनता पार्टी के नेता एक पक्ष बन कर जिस तरह मीडिया के जरिए अपनी जीत का उद्घोष करने लगते हैं, उसकी एक बड़ी भूमिका ऐसा संदेह पैदा करने में रही है।
मसलन, सिसोदिया की गिरफ्तारी की खबर आते ही भाजपा नेता यह कहने के लिए सक्रिय हो गए कि सिसोदिया लंबे समय तक जेल में रहेंगे और उनके बाद जांच एजेंसी के हाथ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तक पहुंचेंगे। सवाल है कि कौन कितने दिन जेल में रहेगा, इस बारे में किसी पार्टी के नेता कोर्ट का निर्णय आने के पहले कैसे इतने भरोसे के साथ इस तरह के बयान दे सकते हैं? तो साफ है कि सिसोदिया की गिरफ्तारी पर दोनों ही तरफ से सियासी प्रतिक्रियाएं आईं। नतीजतन, इस घटना से यह धारणा और गहराएगी कि विपक्ष के नेताओं को केंद्रीय एजेंसियां राजनीतिक कारणों से उत्पीड़ित कर रही हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इससे देश में तनाव और ध्रुवीकरण का माहौल लगातार तीखा हो रहा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि अगर कहीं जांच एजेंसियां न्यायिक कारणों से भी कदम उठाती हैं, तो उसको लेकर समाज के एक हिस्से में संदेह और विरोध की भावना उबल पड़ती है। और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस माहौल को खत्म करने का कोई प्रयास सत्ता पक्ष की तरफ से नहीं हो रहा है।