nayaindia same sex marriage एक फिजूल की बहस

एक फिजूल की बहस

एक तरफ समलैंगिक विवाह का समर्थन प्रगतिशील दिखने का एक आसान रास्ता है, वहीं इसका विरोध एक मजहबी सोच वाले समाज में परंपरावादी खेमों के बीच अपना नैतिक भाव बढ़ाने का जरिया साबित होता है।

समलैंगिक विवाह का मसला एक अत्यधिक और संभवतः जरूरत से ज्यादा महत्त्व पाने वाला विषय है। इसकी एक वजह संभवतः इससे जुड़ा यौन का पक्ष होता है, जिसको लेकर समाज में एक स्वाभाविक कौतूहल का भाव रहता है। फिर इसके समर्थन और विरोध में बंटना सियासी लिहाज से भी फायदेमंद बना रहा है। एक तरफ समलैंगिक विवाह का समर्थन प्रगतिशील दिखने का एक आसान रास्ता है, वहीं इसका विरोध एक मजहबी सोच वाले समाज में परंपरावादी खेमों के बीच अपना नैतिक भाव बढ़ाने का जरिया साबित होता है। वरना, ऐसे मुद्दों को लोगों की निजी जिंदगी के लिए छोड़ा जा सकता है। असल में ऐसा ही सदियों से रहा है। जैसे रिश्ते आम तौर पर लोगों को पसंद ना हों, उन्हें कानूनी मान्यता दिलवाने की कोशिश असल में उतनी ही गैर-जरूरी है, जितनी उन्हें गैर-कानूनी बनाने के लिए वैधानिक उपाय करने की मांगें हो सकती हैं। लेकिन जब किसी समाज में इनसान की आम खुशहाली के मुद्दों को राजनीतिक और सामाजिक विमर्श से हटा दिया जाता है, तब ऐसे मुद्दे केंद्र में चले आते हैं। तो अब सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह की वैधता के मसले पर सुनवाई शुरू कर रहा है।

सोमवार को केंद्र सरकार ने इस बारे में अपना रुख उसे बताया। केंद्र ने ऐसे चलन का विरोध किया है। केंद्र ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की बेंच के सामने सुनवाई से पहले एक नया आवेदन दायर किया है। उसमें कहा गया है कि समलैंगिक विवाह की मांग सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल “शहरी संभ्रांतवादी” विचार है। इसे मान्यता देने का मतलब कानून की एक पूरी शाखा को दोबारा लिखना होगा। केंद्र ने कहा है कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। किसी विवाह को मान्यता देना अनिवार्य रूप से विधायी कार्य है और कोर्ट को इस पर फैसला करने बचना चाहिए। उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र की इस दलील को स्वीकार कर ले। कानून बनाना निर्विवाद रूप से संसद का ही दायित्व है।

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