जम्मू कश्मीर के पहलगाम में पर्यटकों की हत्या के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली जनसभा बिहार में हुई, जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसको लेकर सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री की खूब आलोचना हो रही है और एक दुखद घटना का राजनीतिक इस्तेमाल करने के आरोप भी लग रहे हैं। इस सिलसिले में सवाल उठाने वाली एक लोक गायिका के ऊपर उत्तर प्रदेश में मुकदमा भी हो गया है। सवाल है कि क्या यह घटना और इसके तुरंत बाद बिहार की धरती से प्रधानमंत्री का आतंकवादियों को कल्पनातीत सजा देने के ऐलान का बिहार के चुनाव में भाजपा और एनडीए को लाभ होगा?
इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतना तय है कि यह घटना चुनाव को कई तरह से प्रभावित करेगी। पहलगाम कांड और उस पर संभावित प्रतिक्रिया से राष्ट्रवाद और देशभक्ति की जो भावना पैदा होगी वह लोगों के मतदान व्यवहार को प्रभावित कर सकती है। हो सकता है कि पुलवामा के बाद हुए लोकसभा चुनाव जैसी सुनामी नहीं आए फिर भी राष्ट्रवाद की धारणा चुनाव को प्रभावित करेगी। असल में बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एजेंडा वैसे काम नहीं करता है, जैसे लोकसभा चुनाव में करता है।
विधानसभा चुनाव में धर्म या सांप्रदायिकता का एजेंडा विफल ही साबित होता है। भाजपा 2015 में इसे आजमा चुकी है। विधानसभा चुनाव में जाति का समीकरण ज्यादा कारगर होता है। तभी सवाल है कि धर्म या सांप्रदायिकता की तरह क्या राष्ट्रवाद का मुद्दा भी काम नहीं करेगा? क्या देशभक्ति का मुद्दा भी लोगों को एनडीए के पक्ष में एकजुट होने के लिए मजबूर नहीं करेगा? यह बड़ा सवाल है। इस पर बिहार चुनाव का बहुत कुछ निर्भर करेगा।
प्रधानमंत्री की मधुबनी की 24 अप्रैल की जनसभा को इस नजरिए से देखने की जरुरत है। उन्होंने अपनी सभा में कोई हिंदू-मुस्लिम वाली बात नहीं कही। सबको पता है कि पहलगाम में आतंकवादियों ने लोगों से धर्म पूछ कर उनको गोली मारी। लोगों को कलमा पढ़ने को कहा गया और जो नहीं पढ़ पाया उसे गोली मार दी गई। लेकिन प्रधानमंत्री ने जान बूझकर इसका जिक्र नहीं किया। पता नहीं आगे क्या होगा? हो सकता है कि आगे धर्म के आधार पर हत्या का जिक्र किया जाए लेकिन पहली सभा में प्रधानमंत्री का भाषण राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर केंद्रित रहा।
इसके साथ धर्म का मामला स्वाभाविक रूप से जुड़ेगा। वह एक अंतर्धारा की तरह होगा। जितना प्रत्यक्ष अभी है उतना नहीं होगा। अभी खुल कर यह बात कही जा रही है कि आतंकवादियों ने धर्म पूछ कर लोगों की हत्या की। इस आधार पर कहा जा रहा है कि अब यह धारणा टूट गई कि आतंकवाद का धर्म नहीं होता है। आतंकवाद का धर्म होता है और वह हिंदू विरोधी है। गौरतलब है कि पहलगाम की घटना के तुरंत बाद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ की ओर से सोशल मीडिया में पोस्ट डाली गई कि, ‘उन्होंने धर्म पूछा जाति नहीं’।
इसका मतलब है कि जाति नहीं धर्म पर ध्यान देने की जरुरत है। उधर बिहार में सभी पार्टियां अपना अपना जातिगत समीकरण बैठाने में लगी हैं। ऐसे में अचानक यह नैरेटिव बने कि जाति नहीं धर्म महत्वपूर्ण है और धर्म सिर्फ पहचान के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए सबसे अहम तत्व है, तो क्या होगा? जाति तोड़ने के लिए धर्म की इस अंतर्धारा के ऊपर राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ा होगा, जो चुनाव को प्रभावित करेगा। ध्यान रहे बिहार में महिलाएं नीतीश कुमार का समर्थन करती रही हैं। अगर वे बदलना चाह रही होंगी तब भी पहलगाम में नवविवाहित महिलाओं के सामने उनके पतियों को गोली मारने की घटना उनके ऊपर असर डाल सकती है।
यह भी सवाल है कि क्या धर्म और राष्ट्रवाद की धारणा इतनी प्रबल होगी कि वह 20 साल के नीतीश कुमार के राज के खिलाफ पैदा एंटी इन्कम्बैंसी को समाप्त कर देगी? लोग भूल जाएंगे कि बिहार में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है? बिहार विकास के हर पैमाने पर सबसे नीचे है? टिकाऊ विकास के सारे लक्ष्यों में बिहार सबसे नीचे है? सबसे ज्यादा अशिक्षा, गरीबी और पलायन बिहार में है? लोग क्या यह भी भूल जाएंगे कि नीतीश कुमार की मानसिक अवस्था अब शासन संभालने वाला नहीं रह गई है?
प्रशांत किशोर ने बड़ी मेहनत से लोगों को मन में यह बात बैठाई है कि बिहार को बदलाव की जरुरत है। क्या लोग बदलाव की जरुरत को भूल जाएंगे? पता नहीं! इस समय इन सवालों का जवाब मुश्किल है। लेकिन इतना तय़ है कि प्रशांत किशोर और तेजस्वी यादव दोनों के लिए पहलगाम की घटना से नई चुनौतियां पैदा हो गई हैं। ये दोनों एनडीए के वोट आधार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
अगर बिहार और बिहारियों के जीवन से जुड़े मुद्दे राष्ट्रवाद, देशभक्ति और धार्मिक ध्रुवीकरण के एजेंडे से ढक जाते हैं तो प्रशांत किशोर के लिए ज्यादा मुश्किल होगी क्योंकि उनके पास कोई जातीय समीकरण नहीं है। वे बदलाव की आकांक्षा रखने वाले वर्ग के सहारे राजनीतिक सफलता की उम्मीद कर रहे हैं। इसके अलावा उनकी उम्मीद एनडीए खास कर जनता दल यू के वोट से भी जुड़ी हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि नीतीश की सेहत बिगड़ने और उनके हाशिए में जाने से उस वोट का एक बड़ा हिस्सा प्रशांत किशोर की ओर जा सकता है।
पिछले दिनों सी वोटर के सर्वे में भी दिखा कि नीतीश कुमार की लोकप्रियता 18 से घट कर 15 हुई तो प्रशांत किशोर की 15 से बढ़ कर 17 फीसदी हो गई। प्रशांत किशोर की लोकप्रियता सीधे तौर पर नीतीश कुमार की अलोकप्रियता के समानुपातिक है। लेकिन अगर नीतीश कुमार के चेहरे से चुनावी विमर्श हट जाता है तो प्रशांत किशोर के लिए समस्या होगी।
जहां तक राजद के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ ब्लॉक की बात है तो ध्रुवीकरण चाहे राष्ट्रवाद के नाम पर हो या सांप्रदायिकता के आधार पर हो, सबसे बड़ा नुकसान उसी को होना है। हालांकि नुकसान कम करने के लिए राजद, कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक की दूसरी पार्टियां भी पहलगाम हमले के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं। आतंकवादियों और पाकिस्तान को निशाना बना रही हैं। पीड़ितों से सहानुभूति दिखा रही हैं। लेकिन यह वोट दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। ‘इंडिया’ ब्लॉक को अपनी रणनीति बदलनी होगी। दुर्भाग्य से यह बदली हुई रणनीति मुस्लिम प्रतिनिधित्व और कम कर सकती है।
ध्यान रहे बिहार में सभी पार्टियों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कम हो रहा है। पहलगाम कांड के साए में होने वाले चुनाव में यह और कम हो जाएगा। मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ ज्यादा और सहज तरीके से ध्रुवीकरण होगा। प्रशांत किशोर कहते थे कि वे उन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार देंगे, जहां ठीक ठाक मुस्लिम आबादी होने के बावजूद लालू प्रसाद अपना यादव उम्मीदवार उतार कर उसकी जीत सुनिश्चित करते हैं। क्या अब वे ऐसी सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार दे पाएंगे? जिन सीटों पर मुस्लिम मतदाता अपने दम पर जीत सुनिश्चित करने की स्थिति में नहीं होंगे, उन पर कोई भी पार्टी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं देगी।
बहरहाल, विपक्ष के सामने यह चुनौती है कि माहौल अभी ठंडा नहीं होना है। सरकार की ओर से होने वाली प्रतिक्रिया के बाद माहौल में और गर्मी आएगी। उसके मुकाबले विपक्ष को भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, पलायन आदि मुद्दों पर लोगों को जोड़े रखने की कोशिश करनी होगी।
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