सत्ता की राजनीति देश को कहां तक ले जाएगी इसकी कई मिसालें इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर पिछले कुछ दिनों में देखने को मिली हैं। लोग खुल कर इमरजेंसी का बचाव करते दिखे और बौद्धिक तर्कों के साथ उसकी तारीफ करते भी दिखे। ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उनको केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार का विरोध करना था। चूंकि नरेंद्र मोदी की सरकार इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने पर ‘संविधान हत्या दिवस’ के नाम पर पूरे देश में कार्यक्रम कर रही है तो मोदी विरोधी जमात को इमरजेंसी के पक्ष में खड़ा होना था। यह बौद्धिक पतन का सबसे निचला स्तर हो सकता है। हालांकि अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए क्योंकि देश का बौद्धिक, चाहे वह राइटविंग का या लेफ्टविंग का, कितना गिर सकता है इसकी सीमा तय नहीं की जा सकती है। यह संयोग है कि 25 जून, महान लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्मदिन भी होता है। ऑरवेल ने हर तरह के अधिनायकवाद और फासीवाद का विरोध किया और सच कहने की आजादी को अपने लेखन में सबसे ज्यादा महत्व दिया। उन्होंने ब्रिटेन के बारे में 1945 में अपने एक लेख ‘द फ्रीडम ऑफ द प्रेस’ में लिखा था, ‘इस देश में किसी लेखक या पत्रकार का सबसे बड़ा शत्रु बौद्धिक जमात की कायरता है’। भारत तो दशकों से अपने बौद्धिक जमात की कायरता या सुविधा के हिसाब से सिद्धांत बदलने की सोच का सामना कर रहा है!
बहरहाल, भारत में राजनीतिक विभाजन इतना बढ़ गया है कि अगर भाजपा ने या केंद्र की मोदी सरकार ने इमरजेंसी की आलोचना की है तो एक जमात ऐसी खड़ी हो जाएगी, जो इमरजेंसी का न सिर्फ बचाव करेगी, बल्कि उसकी तारीफ करेगी। इस बार यह जमात पूरे फॉर्म में दिखाई दी। इमरजेंसी की तारीफ में एक से एक बौद्धिक जुमले गढ़े गए। जो लोग पहले खुल कर इमरजेंसी का विरोध करते थे, सड़कों पर उतरते थे, हर साल 25 और 26 जून को सेमिनार करते थे, बौद्धिक विमर्श करते थे, देश में फिर कभी इमरजेंसी न लगे इसके उपाय सोचते थे उनमें से काफी सारे लोग या तो चुप दिखे या बहुत दबी जुबान में अगर मगर के साथ इमरजेंसी की आलोचना करते दिखे। कांग्रेस पार्टी जो पहले 25 जून को पूरी तरह से खामोश हो जाती थी। उसके नेता कोई बयान नहीं देते थे। वह भी इस बार इमरजेंसी के बचाव में उतरी। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की! सोचें, क्या कुछ दिन पहले तक यह सोचा जा सकता था कि इमरजेंसी की बरसी पर कांग्रेस का अध्यक्ष प्रेस कॉन्फ्रेंस करेगा? लेकिन इस बार खड़गे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। आने वाले दिनों में अगर कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम के बौद्धिक इमरजेंसी का उत्सव मनाने लगें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए!
यह राजनीति से लोकलाज खत्म होते जाने का संकेत भी है। जिस तरह से कुछ दिन पहले तक कोई नहीं सोच सकता था कि इस देश में नाथूराम गोडसे को सेलिब्रेट किया जाएगा और महात्मा गांधी की जयंती या पुण्यतिथि के मौके पर गोडसे ट्रेंड करेगा उसी तरह से यह भी नहीं सोचा जा सकता था कि इमरजेंसी का बचाव किया जाएगा, उसकी तारीफ की जाएगी। लेकिन बचाव और तारीफ शुरू हो गई, अब सेलिब्रेट किया जाना बाकी है। सोचें, इमरजेंसी में क्या तारीफ के लायक है या किस चीज का बचाव किया जा सकता है? इमरजेंसी कुल 21 महीने रही थी लेकिन आखिरी दो महीने चुनाव के थे। उससे पहले के 19 महीनों में प्रेस की आजादी समाप्त कर दी गई थी। मीडिया संस्थानों पर ताले लगा दिए गए थे या उन्हें मजबूर किया गया था कि वे सरकार के हिसाब से खबरें छापें। जिन लोगों ने ऐसा नहीं किया, उनकी प्रेस जब्त कर ली गई, बिजली की लाइन काट दी गई, मालिकों-संपादकों पर मुकदमे किए गए और आयकर विभाग की फाइलें खोल दी गईं। आम आदमी की अभिव्यक्ति की आजादी समाप्त कर दी गई। विपक्षी नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाए गए। घरों से उठा कर लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई। और सबसे ऊपर नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए। उनसे सम्मानपूर्वक जीने का उनका अधिकार कानूनी रूप से छीन लिया गया। इससे बुरा भी कुछ हो सकता है?
इमरजेंसी की काली किताब का एक अध्याय सुप्रीम कोर्ट का भी है, जहां एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल केस में पांच जजों की बेंच ने चार-एक से फैसला सुनाया कि इमरजेंसी में नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए जाएंगे। पांच जजों की बेंच के सामने सवाल था कि, इमरजेंसी के दौरान नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के हनन के खिलाफ पीड़ित व्यक्ति अदालत जा सकता है या नहीं? बेंच की अध्यक्षता चीफ जस्टिस अजित नाथ रे कर रहे थे और अन्य जज थे, जस्टिस हंसराज खन्ना, जस्टिस एमएच बेग, जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़। भारत सरकार की ओर से तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नरेन डे ने दलीलें पेश कीं। जब जस्टिस हंसराज खन्ना ने उनसे पूछा कि यदि कोई पुलिस अधिकारी व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी व्यक्ति की हत्या कर दे क्या तब भी कोई कार्रवाई नहीं होगी? इस पर अटॉर्नी जनरल का जवाब था, ‘हां, जब तक इमरजेंसी जारी रहेगी, ऐसे मामले में भी कोई अदालत दखल नहीं दे सकती है’।
इस संविधान बेंच के चार जजों ने अटॉर्नी जनरल नरेन डे की दलीलों को स्वीकार किया और फैसला सुनाया कि इमरजेंसी जारी रहेगी तो जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार निलंबित रहेगा। यह सोच कर शरीर में सिहरन होती है! अकेले जज जस्टिस हंसराज खन्ना थे, जिन्होंने कहा कि कोई भी सरकार या कानून व्यक्ति से जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकता है। उन्होंने कहा कि जीवन का अधिकार संविधान ने नहीं दिया है, व्यक्ति इस अधिकार के साथ जन्म लेता है और संविधान नहीं था तब भी व्यक्ति के पास यह अधिकार था। अपने इस महान फैसले की कीमत जस्टिस खन्ना को चुकानी पड़ी। इंदिरा गांधी की सरकार ने उनसे जूनियर एमएच बेग को चीफ जस्टिस बना दिया, जिसके तुरंत बाद जस्टिस हंसराज खन्ना ने इस्तीफा दे दिया। सरकार के पक्ष में फैसला सुनाने वाले जस्टिस भगवती और जस्टिस चंद्रचूड़ भी बाद में चीफ जस्टिस बने। लेकिन जस्टिस हंसराज खन्ना से यह अधिकार छीन लिया गया। उनकी तस्वीर सर्वोच्च अदालत के कोर्ट नंबर एक में नहीं लग पाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इतिहास की सबसे उजली और चमकदार तस्वीर जस्टिस हंसराज खन्ना की है। इतिहास अनंतकाल तक उनको समादर देता रहेगा।
इन सचाइयों के बावजूद इमरजेंसी की 50वीं बरसी पर यह देखने को मिला की लोग यह तर्क दे रहे थे कि इमरजेंसी भले अलोकतांत्रिक थी लेकिन असंवैधानिक नहीं थी। सोचें, क्या यह सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 352 के इस्तेमाल का मामला था? यह सही है कि संविधान में इमरजेंसी का प्रावधान है लेकिन क्या वह प्रावधान लाखों, करोड़ों लोगों पर अत्याचार का अधिकार देता है? दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विद्वान प्रोफेसर यह तर्क देते सुनाई दिए कि इमरजेंसी का विरोध पूंजीपतियों ने किया और जमींदारों व राजा रजवाड़ों ने किया। उनकी मानें तो प्रिवी पर्स समाप्त करने और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने की वजह से पूंजीपति और जमींदार इंदिरा गांधी से नाराज थे और उन्होंने इंदिरा गांधी का तख्तापलट किया। सोचें, देश के एक बौद्धिक एक अधिनायकवादी सरकार के खिलाफ हुए सबसे बड़े जन आंदोलन को कैसे अपमानित कर रहे हैं! अपने किसी छोटे से स्वार्थ या लाभ के लिए इतने बड़े आंदोलन की साख बिगाड़ने का काम इस देश के बौद्धिक कर रहे हैं! उनकी बातें महान स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण और उनके साथ साथ जेल की यातना सहने वाले लाखों लोगों के त्याग, बलिदान और साहस का अपमान हैं। लेकिन इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि वे एक तात्कालिक लाभ की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसके लिए इतिहास की एक परिघटना को नगण्य साबित करने में उनको कोई समस्या नहीं है। ऐसे ही कोई मणिपुर का मामला खोज कर ला रहा है कि वहां दो साल से जो हो रहा है उस पर प्रधानमंत्री क्यों चुप हैं और इमरजेंसी पर क्यों बोल रहे हैं तो कोई देश में अघोषित इमरजेंसी की बात कर रहा है। ये बातें सही हैं और इन बातों को उठाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भगवान के लिए इनकी आड़ में इमरजेंसी का बचाव और उसकी तारीफ मत कीजिए। कुछ चीजों पर यह देश हमेशा सहमत रहा है। इमरजेंसी उनमें से एक है, जिसके बारे में यह आम सहमति थी कि यह आजाद भारत के इतिहास का काला अध्याय है। लेकिन राजनीतिक विभाजन और बौद्धिक जमात के लोभ व कायरता ने इस काले अध्याय पर पांच दशक की सहमति को समाप्त कर दिया है।