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गहरी असमानता का देश है भारत

यह निष्कर्ष पुराना है कि भारत एक गहरी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक असमानता वाला देश है। सामाजिक असमानता में जातीय, धार्मिक और लैंगिक असमानता सब शामिल है। यह निष्कर्ष हर साल आने वाली इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट से प्रमाणित होता है। इस साल की फ्रांस की इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट बुधवार, 10 दिसंबर को प्रकाशित हुई। पिछले साल के मुकाबले इस रिपोर्ट में ज्यादा कुछ नहीं बदला है। भारत की एक फीसदी आबादी के पास देश की 40 फीसदी संपत्ति है। अगर इसका दायरा थोड़ा बड़ा करें तो दिखेगा कि शीर्ष 10 फीसदी आबादी के पास कुल संपत्ति का 65 फीसदी हिस्सा है। इनकी तुलना में सबसे नीचे के 50 फीसदी लोगों को देखें तो उनके पास सिर्फ 6.4 फीसदी दौलत है।

इसका मतलब है कि बीच के 40 फीसदी यानी मध्य वर्ग के पास 30 फीसदी से कुछ कम संपत्ति है। दुनिया के स्तर पर यह असमानता थोड़ी ज्यादा दिखती है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सिर्फ 60 हजार लोगों यानी कुल आबादी के 0.001 फीसदी के पास इतनी संपत्ति है, जितनी नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास नहीं है। दुनिया की आधी आबादी यानी करीब चार सौ करोड़ लोगों से ज्यादा संपत्ति सिर्फ 60 हजार लोगों के पास है।

असमानता की ताजा रिपोर्ट से यह मिथक भी टूटा है कि मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण देश में असमानता बढ़ रही है। असल में भारत में पहले जो आर्थिक असमानता थी इस सरकार ने उसी को मेंटेन किया है। देश के सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों और सबसे गरीब 50 फीसदी लोगों की आय के बीच 2014 में 38 फीसदी का अंतर था, जो 2024 में 38.2 फीसदी हुआ है। यानी दोनों की आय की असमानता लगभग उतनी ही है, जितनी 10 साल पहले थी। इसका अर्थ है कि भारत की आर्थिक नीतियों की निरंतरता कायम है। जिन नीतियों ने असमानता को बढ़ाया उन्हें जारी रखा गया है।

अगर स्थायी संपत्ति की बात छोड़ें तो देश में हर साल जो आय उत्पादित हो रही है उसका 58 फीसदी हिस्सा ऊपर की 10 फीसदी आबादी के पास जा रहा है और नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास आय का सिर्फ 15 फीसदी हिस्सा जा रहा है। यानी जिन लोगों के पास 65 फीसदी संपत्ति है उनके पास कुल आय का 58 फीसदी जा रहा है और जिनकी कुल संपत्ति 6.4 फीसदी है उनके पास कुल आय का 15 फीसदी जा रहा है।

अगर रुपए के हिसाब से देखें तो भारत में नीचे की 50 फीसदी आबादी की प्रति व्यक्ति सालाना आय एक लाख रुपए से कम है। यानी 70 करोड़ की आबादी की प्रति व्यक्ति मासिक आय आठ हजार रुपए के करीब है। इनके मुकाबले एक फीसदी आबादी यानी एक करोड़ 40 लाख टॉप लोगों की औसत सालाना आय डेढ़ करोड़ रुपए के करीब है। इस वर्ग के लोग औसतन हर महीना 12 लाख रुपए से ज्यादा कमाते हैं। सोचें, आठ हजार रुपए और 12 लाख रुपए महीना के फर्क पर! अगर टॉप 10 फीसदी की आय देखें तो उनकी औसत सालाना आय 40 लाख रुपए के करीब है। उसके बाद मध्य वर्ग के 40 फीसदी लोग आते हैं, जिनकी औसत सालाना आय साढ़े चार लाख रुपए के करीब है यानी 40 हजार रुपया महीना से कम।

इस असमानता को अगर जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र के हिसाब से देखेंगे तो और भयावह तस्वीर सामने आएगी। देश के सबसे पिछड़े राज्य बिहार में तो एक करोड़ परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आमदनी छह हजार रुपए है। यह बिहार सरकार की ओर से कराई गई जाति गणना में पता चला। इसका मतलब है कि करीब पांच करोड़ लोग ऐसे हैं, जो महीने का 12 सौ रुपया कमाते हैं। भारत में अपनाई गई आर्थिक नीतियों को देखते हुए कह सकते हैं कि निकट भविष्य में इस स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं दिख रही है।

भारत लंबे समय से ट्रिकल डाउन थ्योरी पर चल रहा है। इसका अर्थ है कि ऊपर वालों का घड़ा भर जाएगा तो उसमें रिस कर नीचे गिरना शुरू होगा, जिससे बाकी लोगों का भला होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि ऊपर वाले लगातार अपने घड़े का आकार बढ़ाते जा रहे हैं। उनका घड़ा भरने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। तभी भारत की बड़ी आबादी सरकार प्रायोजित सर्वाइवल स्कीम्स पर पल रही है।

इस रिपोर्ट में एक खास बात यह है कि आजादी के बाद एक समय ऐसा आया था, जब टॉप 10 फीसदी और बॉटम 50 फीसदी के बीच का अंतर काफी कम हो गया था। वह अच्छा था या बुरा यह अलग विश्लेषण का विषय है। लेकिन ऐसा लग रह है कि आजादी के बाद जो मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली नीति अपनाई गई थी उसने निजी तौर पर लोगों के बेहिसाब दौलत इकट्ठा करने या बेहिसाब कमाई करने पर रोक लगाई थी। ब्रिटिश शासन में ऊपर के 10 फीसदी और नीचे के 50 फीसदी के बीच जो अंतर था वह 1940 से कम होना शुरू हुआ था और 1980 के दशक में सबसे कम था।

1983-84 के आसपास भारत के शीर्ष 10 फीसदी लोगों की कुल आय में हिस्सेदारी 30 फीसदी से नीचे आ गई थी, जबकि नीचे के 50 फीसदी की हिस्सेदारी बढ़ कर 23 फीसदी तक पहुंच गई थी। परंतु 1991 में अपनाई गई उदार आर्थिक नीतियों के बाद एक बार फिर असमानता बढ़ने लगी। 2024 में नीचे के 50 फीसदी की आय 15 फीसदी पर आ गई और ऊपर के 10 फीसदी की आय 58 फीसदी पहुंच गई। इसमें टॉप एक फीसदी के पास कुल आय का 22.6 फीसदी जा रहा है। जब मिश्रित अर्थव्यवस्था थी तब सरकार माईबाप थी लेकिन उस समय कम आबादी सरकार माईबाप पर निर्भऱ थी। आज ज्यादा बड़ी आबादी माईबाप सरकार की ओर से प्रायोजित सर्वाइवल स्कीम्स पर निर्भर है।

अब सवाल है कि भारत में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों से भी ज्यादा असमानता होने का मूल कारण क्या है? इसके कई कारण हैं और गौर से देखें तो सारे कारण सामने दिखते हैं। सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करती है लेकिन असल में सबके साथ से कुछ लोगों का विकास होता है। भारत में टैक्स का सिस्टम ऐसा है कि देश के गरीब से गरीब आदमी को भी वैसे ही अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी भरना है, जैसे अमीर आदमी को भरना है। दूसरी ओर अमीर आदमी के लिए कॉरपोरेट टैक्स में भारी भरकम छूट से लेकर बैंकों का कर्ज माफ होने तक की सुविधा है।

मजदूरों और पेशेवरों की मजदूरी या वेतन कछुआ चाल से बढ़ रहा है, जबकि कॉरपोरेट मुनाफा, शेयर बाजार की कमाई और रियल इस्टेट की आय दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट नहीं बढ़ा रही है। इसका नतीजा है कि गरीब और मध्य वर्ग की ठहरी हुई कमाई का बड़ा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च होता है। ऐसे में उसकी संपत्ति कहां से बढ़ेगी? सरकार डंका पीटती है कि रिकॉर्ड टैक्स कलेक्शन हो रहा है लेकिन उस टैक्स का डिस्ट्रीब्यूशन कैसे हो रहा है यह कभी नहीं बताया जाता है। आम लोगों को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ पर निर्भर बना कर कॉरपोरेट की कमाई बढ़ाई जा रही है। यही आर्थिक असमानता का सबसे बड़ा कारण है।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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