nayaindia 2024 लोकसभा चुनाव: भाजपा का बड़ा मुकाबला और राज्यों का आकलन
अजीत द्विवेदी

इस चुनाव को इस तरह समझे!

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Lok Sabha election 2024
Lok Sabha election 2024

यह समकालीन राजनीति की सच्चाई और जरुरत भी है कि वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत नहीं रहा जाए। यह अतिवादी समय है, जिसमें हर व्यक्ति अतिश्योक्ति अलंकार का अधिकता के साथ प्रयोग करता है। तभी लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पीछे पीछे पूरी भाजपा और आम नागरिकों का एक समूह भी ‘अबकी बार चार सौ पार’ के नारे लगा रहा है।

दूसरी ओर विपक्ष के नेताओं का समूह है, जो कह रहा है कि अबकी बार भाजपा दो सौ पार नहीं करेगी। राहुल गांधी कह रहे हैं कि दो सौ सीट नहीं आएगी तो ममता बनर्जी कह रही हैं कि 180 सीट नहीं आएगी। अखिलेश यादव ने तो कह दिया कि ‘अबकी बार चार सौ हार’ है।  इन सबके बीच तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने एक टेलीविजन कार्यक्रम में कहा कि भाजपा को इस बार 214 से 240 के बीच सीटें मिलेंगी।

उन्होंने यह भी कहा कि तेलंगाना में पिछली बार भाजपा को चार सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार दो सीट मिलेगी। यह बात सही होगी या गलत, नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह एक ईमानदार और वस्तुनिष्ठ आकलन है। ऐसा नहीं है कि यह अतिवाद सिर्फ सीटों की संख्या के आकलन में है। वैचारिक मुद्दों पर भी यह अतिवाद दिखेगा। संविधान बदल देने या समाप्त कर दिए जाने का भय दिखा कर राहुल गांधी कह रहे हैं कि देश में आग लग जाएगी तो लालू प्रसाद कह रहे हैं कि देश के गरीब, दलित, पिछड़े आंख निकाल लेंगे। खून की नदियां बह जाने, आग लगने, आंख निकाल लेने से नीचे कुछ नहीं है।

तभी सवाल है कि ऐसे अतिवादी समय में चुनाव को कैसे समझा जाए? इसका कोई स्पष्ट फॉर्मूला कभी नहीं रहा है लेकिन लोकसभा के किसी भी चुनाव को तीन स्तर पर समझने की जरुरत होती है। इसलिए लोकसभा चुनाव 2024 को भी तीन स्तर पर समझा जाना चाहिए। पहला, राष्ट्रीय स्तर पर, जिसमें नैरेटिव और नेतृत्व सबसे अहम है। दूसरा, राज्य स्तर पर, जिसमें गठबंधन, सामाजिक समीकरण और राज्य की सरकार का पहलू अहम है और तीसरा, बिल्कुल स्थानीय यानी लोकसभा क्षेत्र के स्तर पर।

आमतौर पर लोकसभा चुनाव को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है लेकिन हकीकत यह है कि लोकसभा चुनाव भी राज्यों में ही लड़े जाते हैं। ऐसा नहीं है कि देश कोई अमूर्त सी चीज है। लेकिन एक रणनीति के तहत चुनाव को राष्ट्रीय स्तर पर एक खास विमर्श और खास नेतृत्व के नजरिए से देखा या दिखाया जाता है। इससे यह स्थापित करने में सुविधा होती है कि कोई मुकाबला नहीं है। भारत में लोकसभा चुनाव को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। यह स्थापित किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई नहीं है। यह सवाल पूछा जा रहा है कि मोदी को वोट नहीं दें तो किसको दे दें?

यह चुनाव की असलियत नहीं है। यह एक गढ़े गए नैरेटिव की असलियत है। जब राष्ट्रीय स्तर से देखेंगे और चुनाव का राष्ट्रपति प्रणाली के चुनाव की तरह विश्लेषण करेंगे तब दिखाई देगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन जैसे ही भारत के विश्व गुरू होने, मोदी है तो मुमकिन है, विपक्ष कहां है, भारत 2047 तक विकसित हो जाएगा आदि के राष्ट्रीय विमर्श से बाहर निकलेंगे, चुनाव की एक बिल्कुल नई तस्वीर दिखाई देगी।

यह तस्वीर देखने के लिए राज्यों की ओर चलना होगा। लोकसभा का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए विमर्श के जरिए लोगों के दिमाग में तो लड़ा ही जा रहा है लेकिन राज्यों में भी लड़ा जा रहा है। अलग अलग राज्यों की जमीनी सचाई, सामाजिक समीकरण, लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दे अलग अलग हैं। वहां अलग अलग पार्टियों की प्रमुखता है।

अलग अलग पार्टियों की सरकारें हैं और राजनीतिक समीकरण बिल्कुल अलग ढंग से काम करता दिख रहा है। इसका आकलन सबसे बारीक तरीके से करने की जरुरत है क्योंकि राज्यों में कांग्रेस या किसी प्रादेशिक पार्टी के बीच का मुकाबला जब भाजपा के साथ देखेंगे तो प्रादेशिक पार्टी की ताकत व कमजोरी और भाजपा के प्रदेश संगठन की ताकत व कमजोरी का आकलन भी करना होगा। साथ ही राज्य के सामाजिक समीकरण को भी समझना होगा। यह राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए विमर्श से बिल्कुल अलग भी हो सकता है।

इस स्तर पर आकलन करने के लिए राज्यों को कई हिस्सों में बांट सकते हैं। ऐसे राज्य, जहां कांग्रेस या किसी दूसरी प्रादेशिक पार्टी की सरकार है। ऐसे राज्य, जहां भाजपा या सहयोगी पार्टी की सरकार है लेकिन विपक्ष में कांग्रेस या कोई प्रादेशिक पार्टी बहुत मजबूत है। और अंत में ऐसे राज्य, जहां भाजपा या सहयोगी पार्टी की सरकार है और विपक्ष में कांग्रेस है लेकिन बहुत कमजोर है।

पहली श्रेणी में झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और दिल्ली को रख सकते हैं। इन 10 राज्यों में लोकसभा की 233 सीटें हैं। अभी भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास इनमें से 79 सीटें हैं। इन सभी राज्यों में भाजपा संघर्ष कर रही है। वह तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में खाता खुलने की उम्मीद कर रही है और पश्चिम बंगाल व ओडिशा में अपनी संख्या बेहतर करने की उम्मीद कर रही है लेकिन उसके लिए 233 में से 79 सीटें फिर से हासिल कर पाना आसान नहीं लग रहा है।

दूसरी श्रेणी में भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टी द्वारा शासित राज्य हैं, जहां विपक्ष मजबूत है। इसमें बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा का नाम लिया जा सकता है। इन चार राज्यों में लोकसभा की 180 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास 154 यानी 85 फीसदी सीटें हैं। इन चारों राज्यों में भाजपा ने लगातार दो चुनाव में इसी तरह का या इससे बेहतर प्रदर्शन किया है। क्या भाजपा शानदार प्रदर्शन की हैट्रिक लगा पाएगी? बिहार में कांग्रेस, राजद, तीन वामपंथी पार्टियों और वीआईपी का एक मजबूत गठबंधन बना है, जिसका बड़ा सामाजिक आधार है।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में त्रिकोणात्मक मुकाबले में सपा और कांग्रेस का गठबंधन मजबूती से लड़ रहा है। ऊपर से राजपूतों की नाराजगी और उनके जातीय सम्मेलन व भितरघात की संभावना से भाजपा निपटने की कोशिश में है। हरियाणा में ऐन चुनाव से पहले भाजपा को मुख्यमंत्री बदलना पड़ा तो महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे गुट को असली शिव सेना और अजित पवार को असली एनसीपी बताने के बाद भी भाजपा बहुत भरोसे में नहीं है कि वह गठबंधन के साथ पिछली बार की तरह 41 सीटें जीत लेगी।

तीसरी श्रेणी ऐसे राज्यों की है, जहां भाजपा की सरकार है और विपक्ष अपेक्षाकृत कमजोर है या बंटा हुआ है। इन राज्यों में भाजपा का आधार पारंपरिक रूप से मजबूत है या उसने मजबूत सहयोगी बनाएं हैं और विपक्ष लगातार कमजोर होता गया है। ऐसे राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड, असम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, सिक्किम, नगालैंड हैं। इन राज्यों में भाजपाऔर सहयोगियों की 110 के करीब सीटें हैं। इसके अलावा जम्मू कश्मीर और कुछ अन्य केंद्र शासित प्रदेश हैं। इन राज्यों में भाजपा के लिए पिछला प्रदर्शन दोहराना अपेक्षाकृत आसान होगा।

जिस तरह से राष्ट्रीय के मुकाबले राज्य स्तर पर आकलन करते ही मुकाबला होता दिखने लगता है वैसे ही लोकसभा सीट के स्तर पर आकलन करने पर मुकाबला कड़ा होता दिखता है। वहां भी मोदी को नेता चुनने और चार सौ सीट का नैरेटिव पहुंचा हुआ है लेकिन मतदाता उसके साथ साथ कई दूसरी चीजों के आधार पर फैसला करेंगे। वे राज्य स्तरीय पार्टी के सामाजिक समीकरण के साथ साथ उम्मीदवार की गुणवत्ता और उसके कामकाज को भी ध्यान में रखे हुए हैं।

जहां उम्मीदवार बदला गया वहां क्यों बदला गया और जहां नहीं बदला गया वहां क्यों नहीं बदला गया, इसका आकलन किया जा रहा है। स्थानीय स्तर पर बड़ी संख्या में बागी या नाराज कार्यकर्ता और नेता हैं। बाहर से लाकर लड़ाए गए उम्मीदवारों के कारण या बार बार एक ही नेता को रिपीट करने के कारण अनेक सीटों पर घमासान होता दिख रहा है और इनमें उन राज्यों की सीटें भी हैं, जहां भाजपा बहुत मजबूत है और लगातार तीसरी या चौथी बार जीतने की उम्मीद में है। इसके अलावा टाइम का एक अलग फैक्टर है। चुनाव आगे बढ़ने पर क्या तस्वीर बनती है यह भी देखना होगा।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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