Wednesday

07-05-2025 Vol 19

जाति जनगणना से आगे क्या?

87 Views

यह लाख टके का सवाल है कि केंद्र सरकार जाति जनगणना करा लेगी उसके बाद क्या होगा? कुछ भोले भाले राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषक कह रहे हैं कि जाति जनगणना  बहुत अच्छी है लेकिन उसका राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके आंकड़ों का इस्तेमाल वंचित समूहों को लाभ पहुंचाने के लिए किया जाना चाहिए। यह आदर्श स्थिति है। लेकिन भारत में कभी भी आदर्श स्थिति में कोई काम नहीं होता है। यहां सारा काम राजनीतिक लाभ हानि के हिसाब से होता है।

इसलिए यह तय मानें कि जातियों की गिनती से जो भी आंकड़ा आएगा उसका राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल होगा। यह भी तय मानें कि सामाजिक-आर्थिक गणना में किसी को आर्थिक स्थिति के आंकड़ों से कोई मतलब नहीं होगा। किस जातीय समूह की आर्थिक स्थिति क्या है यह जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। बिहार की जाति गणना इसकी मिसाल है। उसके मुताबिक बिहार में 94 लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आय छह हजार रुपए से कम है। सोचें, एक परिवार में अगर पांच आदमी है और परिवार महीने में छह हजार रुपए कमा रहा है इसका क्या मतलब है?

इसका मतलब है कि करीब पांच करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनकी मासिक आमदनी छह सौ रुपए है। लेकिन इस आंकड़े से किसी को कोई सरोकार नहीं है। सबका सरोकार इस बात से है कि बिहार में पिछड़े और अतिपिछड़े 63 फीसदी हैं, दलित करीब 20 फीसदी हैं और सवर्ण साढ़े 15 फीसदी हैं।

तभी जाति जनगणना से जो भी आंकड़े आएंगे उसमें अलग अलग जातीय समूहों की आर्थिक स्थिति से किसी को कोई मतलब नहीं होगा। सबको जाति के आंकड़ों से मतलब होगा। किस जाति की कितनी संख्या है। इससे कुछ जातियों का वर्चस्व हो सकता है कि कम हो तो कुछ नई जातियों का वर्चस्व स्थापित हो। तभी सभी जातीय समूहों की ओर से सोशल मीडिया में अपील की जा रही है कि सब अपनी मूल जाति लिखें। कोई भी व्यक्ति अपनी उप जाति या गोत्र या उपनाम आदि को जाति के तौर पर दर्ज नहीं करे।

ध्यान रहे पिछली बार सरकार ने जातियों की सूची नहीं बनाई थी इसलिए लाखों जातियां दर्ज हो गईं। लोगों ने जाति की जगह उपजाति, अपना मूल, गोत्र, गांव का नाम, उपनाम आदि दर्ज कराया। इस बार कहा जा रहा है कि सरकार अंग्रेजों के जमाने में दर्ज करीब चार हजार जातियों की सूची बनाएगी और लोगों से उसी में से जाति चुनने को कहा जाएगा। हालांकि अभी जाति जनगणना की कोई टाइमलाइन तय नहीं है फिर भी जातियों का ध्रुवीकरण शुरू हो गया है और पहला चुनाव बिहार विधानसभा का है।

यह स्पष्ट है कि फैसला अचानक नहीं हुआ है। भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद से इस पर विचार कर रही थी। उसको लग रहा था कि संविधान बचाओ, आरक्षण बचाओ और जाति जनगणना कराओ का ‘इंडिया’ ब्लॉक का अभियान कामयाब रहा, तभी भाजपा की सीटें कम हुईं। इसलिए भाजपा को बिहार विधानसभा चुनाव, उसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा का चुनाव हारने की चिंता सता रही थी। उसी चिंता में केंद्र सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार ने विपक्ष को बैकफुट पर ला दिया।

जाति जनगणना के बाद क्या होगा?

विपक्ष को अंदाजा नहीं था कि सरकार यह फैसला करेगी। आखिर संसद में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने कहा हुआ है कि सरकार ने नीतिगत तौर पर जाति गणना नहीं कराने का फैसला किया है। यह बात 2021 में सरकार ने कही थी। लेकिन 2024 के नतीजों ने सब कुछ बदल दिया। अब पक्ष और विपक्ष में इसका श्रेय लेने की होड़ चल रही है। भले भाजपा के नेता कुछ भी कहें लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने राहुल गांधी और विपक्षी गठबंधन की चिंता में यह फैसला किया है।

तभी सवाल है कि इसके आगे क्या? विपक्ष की चिंता में या विपक्ष का एजेंडा छीन लेने की रणनीति के तौर पर सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला कर लिया। लेकिन उसके बाद सरकार क्या करेगी? विपक्ष को जीत का स्वाद लग गया है। इसलिए वह जाति जनगणना के बाद का एजेंडा तय कर रहा है। क्या विपक्ष की चिंता में सरकार उसके बाकी एजेंडे को भी स्वीकार करेगी? विपक्ष का एजेंडा है आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को समाप्त करने का। उसका एजेंडा है निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान करने का। नया एजेंडा है न्यायपालिका में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का।

नया एजेंडा है निजी शिक्षण संस्थानों में दाखिले में आरक्षण लागू करने का। नया एजेंडा है सरकारी ठेके और खरीद में आरक्षण देने का और नया एजेंडा है लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित करने का। क्या केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इसके लिए तैयार होगी?

राहुल गांधी लोकसभा चुनाव के समय से नारा लगा रहे हैं कि ‘जितनी आबादी उतना हक’। यह इस समाजवादी नारे की तरह है कि ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने भी नारा दिया था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’। सो, कह सकते हैं कि राहुल गांधी कोई नया नारा नहीं दे रहे हैं लेकिन चूंकि वे देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता हैं इसलिए उनके नारा देने का असर ज्यादा है।

अगर वे आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को कूड़े के ढेर में फेंकने की बात कर रहे हैं तो सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती है। सबको पता है कि यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने तय की है लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कूड़े में फेंकने में राहुल गांधी को कोई परेशानी नहीं है।

बहरहाल, विपक्षी पार्टियां कह रही हैं और यह हकीकत भी है कि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। इसी तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों की संख्या सीमित है और वहां गुणवत्ता लगातार कम होती जा रही है। नौकरी निजी सेक्टर में है और शिक्षा भी निजी संस्थानों में ही है। इसलिए विपक्षी पार्टियां निजी नौकरियों और निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की मांग कर रही हैं। सरकार के जाति जनगणना कराने के फैसले से पहले कांग्रेस ने अहमदाबाद में अपना अधिवेशन किया था, जिसमें आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने और निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का प्रस्ताव मंजूर किया गया था।

इसके बाद तेजस्वी यादव ने बिहार में अपने एजेंडा जारी किया, जिसमें उन्होंने न्यायपालिका और विधायिका में आरक्षण की मांग की। अगर सरकार एक बार विपक्ष के आगे झुकी है और उसके दबाव में जाति गणना करा रही है तो फिर जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने, निजी नौकरी व निजी शिक्षण संस्थान में  आरक्षण देने, ठेके या सरकारी खरीद में आरक्षण देने और न्यायपालिका व विधायिका में आरक्षण लागू करने की मांग से कैसे इनकार करेगी?

वैसे इससे पहले सरकार किसानों के सामने भी झुकी थी और उसका आंदोलन खत्म कराने के लिए तीनों विवादित कृषि कानून वापस लिए थे। लेकिन उस समय किया गया कोई भी वादा सरकार ने पूरा नहीं किया है और अब किसान आंदोलन इतने हिस्से में बंट गया है कि एक साल से ज्यादा चले उनके आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ। हालांकि किसान आंदोलन और आरक्षण का मामला अलग अलग हैं। लेकिन यह सवाल है कि क्या जातिगत जनगणना के आंकड़े जातियों के अंदर ऐसा विभाजन बनवा देंगे कि सरकार को विपक्ष के एजेंडे की चिंता  करने की जरुरत नहीं रह जाएगी?

हो सकता है कि जातियों के आंकड़े से कुछ जातियों का वर्चस्व टूटे, कुछ नई जातियां ताकतवर होकर उभरें, आरक्षण के लाभ से वंचित रही जातियों की हकीकत सामने आए और सरकार आरक्षण का वर्गीकरण करके उन जातियों को सशक्त बनाने का प्रयास करे, जिससे नए सामाजिक व राजनीतिक समीकरण बनें। यह भी हो सकती है कि कुछ पिछड़ी जातियां सामान्य वर्ग की जातियों से आर्थिक रूप से ज्यादा सशक्त निकलें। उनका क्या किया जाएगा? आर्थिक आंकड़ों के आधार पर क्रीमी लेयर की नई सीमा तय हो सकती है। कहने का मतलब है कि यथास्थिति टूटने वाली है और मौजूदा व्यवस्था का विघटन होने वाला है। इस विघटन को जो बेहतर ढंग से साध लेगा, राजनीतिक लाभ उसी को मिलेगा।

Also Read: एयर स्ट्राइक से दहला पाकिस्तान, रक्षामंत्री की गुहार- अगर भारत रोक दे हमला तो…

Pic Credit: ANI

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *