पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की मुश्किलें बाकी क्षत्रपों से अलग हैं। हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा हमेशा एक बड़ी ताकत रही है लेकिन पश्चिम बंगाल में भाजपा का उभार नया नया है। वह 2016 के विधानसभा चुनाव तक बिल्कुल हाशिए की पार्टी थी। सिर्फ दो-चार सीट जीतने वाली पार्टी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 18 सीटें जीतीं और फिर 2021 के विधानसभा चुनाव में वह 77 सीटों पर जीत गई। कांग्रेस और लेफ्ट दोनों साफ हो गए। हालांकि 2021 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों के बहुत जोर लगाने के बावजूद भाजपा 77 सीट ही जीत पाई इसलिए ममता बनर्जी को लग रहा है कि आमने-सामने के मुकाबले में वे भाजपा का रथ रोक देंगी। लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा के साथ मोमेंटम है। उसने पश्चिम बंगाल में अभी जीतना शुरू किया है और उसका वोट आधार मजबूत हुआ है।
पश्चिम बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को करीब 41 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट मिले थे और 18 सीटें मिली थीं। 2021 के विधानसभा चुनाव में जब ममता ने अस्मिता का दांव खूब खुल कर खेला और मोदी, शाह को बाहरी बता कर चुनाव लड़ा तब भी भाजपा को 38 फीसदी वोट मिले। यानी लोकसभा से सिर्फ दो फीसदी कम हुआ। इस तरह उसका वोट उसके साथ बना रहा। अगर बंगाल की जनसंख्या संरचना देखें तो वहां 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है। हिंदू आबादी 70 फीसदी है। जाहिर है मुस्लिम वोट भाजपा को नहीं मिलता है। सो, भाजपा को लोकसभा में करीब 41 फीसदी वोट मिलने का मतलब है कि 60 फीसदी हिंदुओं ने उसको वोट दिया। विधानसभा चुनाव में भी 55 फीसदी के करीब हिंदू वोट भाजपा को मिला। यह सामान्य से अधिक हिंदू ध्रुवीकरण का संकेत है। पूरे देश में भाजपा को औसतन 40 से 45 फीसदी हिंदू वोट मिलते हैं। लेकिन बंगाल में यह 55 से 60 फीसदी है। इसका मतलब है कि राज्य की 30 फीसदी मुस्लिम आबादी की प्रतिक्रिया में हिंदू ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हो रहा है। अगले चुनाव में इस स्तर का या इससे ज्यादा हिंदू ध्रुवीकरण नहीं होगा, यह मानने की कोई तार्किक वजह नहीं दिखती है।
भाजपा ने पहले से ज्यादा आक्रामक तरीके से हिंदू-मुस्लिम का नैरेटिव बनाया है। तृणमूल कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाला बताया है। ऊपर से परिवारवाद और भ्रष्टाचार का बहुत स्ट्रॉन्ग नैरेटिव बना है। उनके कई नेता जेल में हैं और भतीजे अभिषेक बनर्जी पर तलवार लटकी है। ममता के खिलाफ राज्य में करीब 13 साल के शासन की एंटी इन्कम्बैंसी है। यह भी एक तथ्य है कि जहां भाजपा ने आज तक सरकार नहीं बनाई है वहां उसके प्रति लोगों की जिज्ञासा ज्यादा रहती है। सो, बंगाल के लोगों में भाजपा को आजमाने की सोच भी हो सकती है। ऐसे में ममता का अकेले राजनीति करना और कांग्रेस व लेफ्ट के प्रति अछूत का बरताव करना हैरान करने वाला है। उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में जो अस्मिता का मुद्दा बनाया था वह लोकसभा चुनाव में कारगर नहीं होगा। हां, अगर विपक्षी गठबंधन ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना दे तो अलग बात है। तब वे देश के पहले बांग्ला प्रधानमंत्री का नैरेटिव बना कर बांग्ला अस्मिता का मुद्दा उभार सकती हैं। लेकिन अभी वह भी होता नहीं दिख रहा है।
इसलिए उनकी पहली कोशिश विपक्षी गठबंधन के साथ तालमेल की होनी चाहिए। वह तालमेल राज्य की 42 सीटों पर आपस में सीट बंटवारे का होगा या रणनीतिक होगा यह जमीनी हालात के हिसाब से तय करना होगा। ध्यान रहे पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा अलग अलग चुनाव लड़ा था। सिर्फ एक सीट पर कांग्रेस ने सीपीएम के उम्मीदवार को समर्थन दिया था। कांग्रेस को दो सीट मिली थी और लेफ्ट मोर्चा एक भी सीट नहीं जीत पाया था। लेकिन दोनों को मिला कर 12 फीसदी वोट मिले थे। इस 12 फीसदी वोट के गणित को समझना होगा। अगर कांग्रेस और लेफ्ट का तालमेल होता है तो उनका वोट कहां जाएगा? क्या वह वोट पूरी तरह से तृणमूल गठबंधन को ट्रांसफर होगा या उसका एक हिस्सा भाजपा के साथ भी जा सकता है? आमने सामने की लड़ाई में हिंदू वोट का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में ज्यादा आक्रामक हो सकता है, जिसका फायदा भाजपा को मिल सकता है। इसलिए पश्चिम बंगाल का मामला बहुत संवेदनशील और बारीक है। तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चे की मामूली सी भी गलती से ऐसे हालात बन सकते हैं कि भाजपा को पहले से ज्यादा सीटें मिलें। सो, तीनों पार्टियों को और गठबंधन के अन्य बड़े नेताओं को बंगाल के हालात बहुत सावधानी से हैंडल करने होंगे।