nayaindia Alexei Navalny death हत्यारे भी होते हैं राष्ट्रपति!

हत्यारे भी होते हैं राष्ट्रपति!

और प्रमाण व्लादिमीर पुतिन हैं। वह चेहरा, जो 1999 से रूस का सर्वशक्तिमान शासक है। सोचें, 25 वर्षों से राज है फिर भी मन ही मन इतना आतंकित जो जेल में बंद विपक्षी नेता एलेक्सी नवेलनी को मरवा कर माना। क्यों? इसलिए कि जो व्यक्ति जितना सर्वशक्तिमान शासक होता है वह उतना ही डरपोक, भयाकुल होता है। हमेशा असुरक्षा में जीता है। सुरक्षा के अपने अभेद किले बनाता है। बावजूद वह दिमाग में निर्वासित, जेल में बंद विरोधी नेताओं या अपने ही कैबिनेट के लोगों तक पर शक-सुबहा किए रहता है। पुतिन इस मनोवृत्ति के फिलहाल नंबर एक उदाहरण हैं। सचमुच हर अधिनायकवादी सत्तासीन नेता ऊपर से भले अपने को सर्वशक्तिमान दिखाए लेकिन मन ही मन चौबीसों घंटे कुर्सी की फिक्र में होता है। विरोधियों को निशाना बनाता है। उन्हें जेल में डालता है। मरवाता है। यह सत्य खांटी तानाशाह देशों के नेताओं पर लागू है तो अर्ध-अविकसित लोकतंत्र से चुने हुए राष्ट्रपतियों-प्रधानमंत्रियों-सत्तातंत्रों पर भी लागू है।

सोचें, बगल के पाकिस्तान पर। इस राष्ट्र-राज्य में सेना शुरू से सर्वशक्तिमान है। मतलब असली राज सेना प्रमुख का। बावजूद इसके उसे कठपुतली सरकार चाहिए। फिर कठपुतली प्रधानमंत्री को मरा हुआ विपक्ष चाहिए। उसी के नतीजे का अब एक ताजा चुनावी तमाशा है। सर्वशक्तिमान सेना और उसके क्रूर इस्लामी कट्टरपंथियों को इमरान खान इसलिए बरदाश्त नहीं हुए क्योंकि उनका जमीर अचानक कुछ जागा। ध्यान रहे इमरान पहले सेना के आशीर्वाद से ही प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन सत्ता में बैठने के बाद उन्होंने अपने वजूद में सोचना शुरू किया और सेना से पंगा हो गया। नतीजतन सेना ने न केवल उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाया, बल्कि जेल में डाला। उनकी पार्टी को अवैधानिक घोषित किया। चुनाव नहीं लड़ने दिया। फिर भी जनता ने इमरान के साथ खड़े होकर उनके प्रतिनिधियों को बतौर निर्दलीय जिताया तो सेना को वह भी बरदाश्त नहीं। आर्मी चीफ सैयद आसिम मुनीर और सैन्य प्रतिष्ठान अब येन केन प्रकारेण ज्यादतियों के साथ वह हरसंभव कोशिश करते हुए हैं, जिससे इमरान जेल में रहें। आश्चर्य नहीं होगा यदि किसी दिन इमरान की हत्या की खबर आए!

‘रशिया विदाउट नवेलनी’

गौर करें अगल-बगल के देशों पर। चीन के शी जिनफिंग, बांग्लादेश की शेख हसीना वाजेद, म्यांमार के सैनिक शासक से लेकर दुनिया के 195 देशों में से अधिकांश देशों के शासक चौबीसों घंटे विपक्ष-विरोधी के खौफ में जिंदगी जीते हैं। और ऐसा मनुष्य की आदिम जंगली प्रवृत्ति से है। तभी मनुष्य जात के इतिहास में मर्यादा का रामराज्य, मर्यादा के राजा का उदाहरण अकेले श्रीराम का है, जबकि रावण का दशाननी अवतार अहंकार और तानाशही के तमाम असुरी रूपों में मनुष्यों को जानवरों की तरह रखने में इतिहास रंगा हुआ है।

विषयांतर हो रहा है। पर याद करें मनुष्य के पिछले आठ हजार वर्षों के पौराणिक और ज्ञात इतिहास की कहानियों पर! सवा दो सौ साल पहले की ही तो बात है जब पूरे इतिहास में मनुष्यों की पहली बार हिम्मत हुई और फ्रांस की जमीन पर लोगों का मर्यादित शासन बनवाने (फ्रांस क्रांति) का बीड़ा बना। उससे पहले तो ज्ञात इतिहास निरंकुश सामंतों, बादशाहों, राजवंशों, राजाओं-रानियों-आतातायियों, हमलवारों का ही लिखा हुआ है। सो, राम कहां और कितने हुए? जबकि रावण और उसका अहंकार मानों मनुष्य की शाश्वत नियति!

फिर फ्रांसीसी क्रांति के बाद (1999 से 2024 की अवधि) भी दुनिया के 195 देशों में से कितने देशों में मर्यादित व्यवस्था, राजनीति और सरकार है, जिसमें मर्यादित शासन की गारंटी है? और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गवर्नर, मुख्यमंत्री, मंत्री याकि शासक वर्ग रघुकुल रीत सदा चली आई की मनुष्यता के आचरणकर्ता। ऐसी गारंटी के मुश्किल से तीस-चालीस देश गिने जा सकते हैं। इस नाते होमो सेपियन का सफर संस्कृति-सभ्यता के निर्माणों के बावजूद मनुष्य जीवन के कुल अनुभवों में जंगल से जंगल की यात्रा है। चीन, रूस से लेकर इस्लामी देशों, लातीनी-अफ्रीकी-एशिया के देशों में मनुष्य ने भौतिक विकास भले पाया हो लेकिन मानव ने मानवीयता भरा समय नहीं भोगा। ये सारे देश बुनियादी तौर पर या तो रावण की स्वर्णिम लंका हैं याजंगल की कबीलाई व्यवस्था वाले हैं। यदि एक-एक करके गिनें तो 140-150 देशों में रावण के दस मुखों के प्रतीक राक्षसी व्यवहार वाले राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री चेहरे दिखेंगे।

चीन और रूस महाशक्ति हैं। विकास में झूमता असुरी शासकीय वर्ग सोने-चांदी के बरतनों में छप्पन भोग खाते हैं और नागरिकों को भी सुविधाएं हैं। लेकिन इनके अनुभवों और सत्ता के आचरण में, याकि पुतिन और शी जिनफिंग (इनके पूर्ववर्ती स्टालिन और माओ आदि) में क्या कभी कोई एक भी लक्षण मिला मर्यादा का? क्या किसी जगह व्यक्तियों की वैसी निर्भयता, अधिकार या हिम्मत के किस्से हैं, जैसी हिम्मत अयोध्या में एक धोबी को राजा राम से कहने की थी?

पुतिन सवाल करने वालों को जहर देता है वही शी जिनफिंग और उनकी असुरी सत्ता आलोचकों को गायब ही कर देती है। हर कोई सत्ता का भूखा है। लोकतंत्र के नाम पर चौबीसों घंटे पॉवर के लिए दमन और झूठ का मायासुरी प्रपंच बनाए हुए हैं। मानव समाज का दुर्भाग्य है जो ज्ञान-विज्ञान-तकनीक की चरम प्राप्तियों के बावजूद कई नस्लें गुलामी के डीएनए में वैसे ही जीती आ रही हैं, जैसे पांच सौ, हजार साल पहले जीते थे। रूस और चीन को ही लें, यहां के लोग क्या जारशाही और चाइनीज राजवंशों के समय से चली आ रही दिमागी बेहाशी में जीते हुए नहीं हैं? क्या फर्क है जारशाही, स्टालिन, ख्रुश्चेव और पुतिन के सत्ता तंत्र में? मनुष्य दिमाग को किसी भी तरह की वह आजादी नहीं है, जिससे इंसान फील कर सके इंसानियत को! और आदमी की आदमीयता उन्हें पशुओं से अलग बतलाती हुई हो। सचमुच मनुष्य का पालतू, पिंजरों में बंद रूप देखना हो तो चीन और रूस घूम कर लोगों के मशीनी जीवन को फील करें। स्टालिन के समय भी बुद्धि मानस अलेक्जेंडर सोल्झेनित्सिन को साइबेरिया के जेल में डाला गया था और इस सदी में पुतिन ने भी आजादीपरस्त नवेलनी को जेल में डाला। स्टालिन लोगों को चुपचाप गोलियों से उड़वाता था वही पुतिन खुले आम विरोधी को जहर दे कर मारता है। ताकि लोगों में मैसेज बने कि विरोध करोगे तो नवेलनी की ही तरह मारे जाओगे।

इसलिए कई मायनों में आधुनिक तानाशाह, निरंकुश राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, शासक विरोधियों को, लोगों को मारने, उन्हें जेल में डालने की निर्ममता और अपने अहंकारों की पूर्ति में आधुनिक सिद्धांतों, बहानों, तौर-तरीकों में अधिक साधन संपन्न हैं। वे उतने कलंकित नहीं हैं, जैसे रावण हुआ था। स्टालिन अधिक कलंकित था या पुतिन है? उत्तर कोरिया का तानाशाह किम जोंग अधिक बदनाम है या उसका पिता किम जोंग उन था? बीसवीं सदी में तानाशाह अधिक घृणित थे। लेकिन इक्कीसवीं सदी में पुतिन, शी जिनफिंग, किम जोंग से लेकर हसीना वाजेद की निरंकुशता की इन दलीलों से तरफदारी होती है कि इनसे विकास है, राष्ट्र की रक्षा है और इनकी सभ्यता विश्व की धुरी, विश्व की गुरू बन रही है। चीन में शी जिनफिंग ने अपनी गुलाम प्रजा में दुनिया की धुरी बनने का ऐसा गुमान बनाया जो कोरोना वायरस के दौरान लोगों से भेड़-बकरियों जैसा व्यवहार हुआ तो वह मानों उनका गौरव था!

25 वर्षों में पुतिन ने जारशाही-सामंतशाही के अत्याचारों के रिकॉर्ड तोड़ निर्मम स्टालिन की याद दिलाई है। एलेक्सी नवेलनी ने ठीक कहा था- मेरे से पुतिन की चिढ़ इसलिए भी होगी क्योंकि मेरे कारण उनका नाम इतिहास में एक जहर देने वाले के तौर पर दर्ज होगा। जो अलेक्जेंडर द लिबरेटर, यारोस्लाव द वाइस वैसे ही व्लादिमीर पुतिन भी छिपकर जहर देने वाला। (अंडरपैन्ट्स प्वॉइजनर)

हां, पुतिन ने अगस्त 2020 में भी नवेलनी को नोविचोक नर्व एजेंट जहर से मरवाने की कोशिश की थी। तब वे बाल-बाल बचे थे। उनकी टीम उन्हें जैसे-तैसे एयरलिफ्ट करके जर्मनी ले गई। बर्लिन में इलाज चला और साबित हुआ कि उन्हें जहर दे कर मारने की कोशिश थी। नवेलनी की बहादुरी थी जो ठीक होने के बाद वे 12 जनवरी, 2021 को रूस लौटे। जबकि यह जानते थे कि पुतिन छोड़ेंगे नहीं। लेकिन नवेलनी का कहना था वे निर्वासित भगोड़ा नहीं, बल्कि रूस के राजनेता हैं। इसलिए देश लौटकर लोकतंत्र की लड़ाई लड़ेंगे। पुतिन को एक्सपोज करते रहेंगे। नवेलनी ने यह काम 2008 से शुरू किया था। सबसे पहले पुतिन और उनके क्रोनी पूंजीवादियों व सरकारी कंपनियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्लॉगिंग शुरू की। फिर रूस के लोगों का खून चूसने वाली पुतिनशाही पर लिखा। वे लोगों के हीरो हुए। उनके इर्द-गिर्द समर्थक इकठ्ठे हुए। राजनीतिक पार्टी बनी। नवेलनी ने 2013 में मॉस्को के मेयर का चुनाव भी लड़ा था। जेल से ऐन वक्त रिहा हुए नवेलनी को तब मॉस्कों में 27 प्रतिशत वोट मिले थे। तभी से पुतिन की नींद नवेलनी और उनके संगठन की चिंता में हराम थी। उनके संगठन को चरमपंथी घोषित किया और 2020 में नवेलनी को जहर दिया। वे उस समय बच गए मगर जर्मनी में इलाज के बाद वापिस लौटे तो गिरफ्तार करके 19 साल की सजा सुना जेल में डाला। वह भी मॉस्को से बहुत दूर स्टालिन की साइबेरिया में बनवाई कुख्यात पीनल कॉलोनियों की एक जेल की सेल के एकांतवास में ।

तब भी पुतिन को चैन नहीं हुआ। और 16 फरवरी 2024  को उनकी मौत की खबर आई। पुतिन अपने विरोधियों को ऐसे ही मरवाते हैं। इससे तात्कालिक बदनामी है। पर भला रावण को बदनामी की क्या चिंता! वह तो इस अहंकार से लबालब है कि वह कभी हारेगा नही, कभी मरेगा नहीं। वह चुनावों से जीतता है। उसे जनादेश है अहंकार का, लोगों को भेड़-बकरियों की तरह पालने का। दुश्ममों से देश को बचाने का!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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