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30-06-2025 Vol 19

संविधान ने दलित को दलित, ब्राह्मण को ब्राह्मण, पिछड़े को पिछड़ा और भारत को भय, भूख, भक्ति में ढाला है!

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यह 26 जनवरी 1950 में भारत द्वारा अपनाए संविधान के 75 वर्षों के राष्ट्र अनुभवों का निचोड़ है। मेरा दो टूक सवाल है कि भारतीय संविधान या उसकी प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी, गणतंत्र, समता, बंधुता, न्यायप्रियता, सत्यमेव जयते आदि के जितने भी मुखौटे हमने अपनाए हैं उनके अर्थों से उलट क्या भारत की प्राप्ति और अनुभव नहीं हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर विपक्षी नेता राहुल गांधी, आइडिया ऑफ इंडिया के तमाम बौद्धिक पैरोकारों में कोई भी क्या यह कहेगा कि धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे ने लोगों को, देश और देश की आत्मा को धर्मनिरपेक्ष बनाया है? जबकि उलटा हुआ है।

क्या भारत समता, समाजवाद, बंधुता की बगिया बना है? भारत में भारत की जनता माई बाप है या सरकार माई बाप है? गण याकि लोग सशक्त और स्वामी हैं या प्रधानमंत्री, मंत्री, सचिव, कलेक्टर, कोतवालों के चेहरों वाले असंख्य नौकरशाहों की हाकिमी है? क्या संविधान अपनाने के बाद हम भारत के लोग सत्यवान, चरित्रवान, नैतिक, ईमानदार स्वतंत्रता की सात्विकता में 1947 से पहले जैसे हैं या पतनगामी?

कोई न माने लेकिन मेरा मानना है कि भारत का संविधान बिना भारत की आत्मा, बिना भारत के सूत्रों और आह्वानों के है। संविधान सभा ने वह संविधान सांचा और मंदिर बनाया, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा हुई ही नहीं। इसलिए क्योंकि संविधान भारत की आत्मा से उत्प्रेरित नहीं था, बल्कि अंग्रेज ढांचे के खांचे, नींव, मिट्टी, ईंट, स्थापत्य से निर्मित है। तभी आश्चर्य नहीं जो मंदिर में जो भी गणदेवता (प्रधानमंत्री) बैठा, उसमें तत्क्षण अंग्रेज-मुगलिया हाकिमी आत्मा घुस जाती है। वह तुरंत जिल्ले इलाही हो जाता है। नेता की भाषा बदल जाती है। वह सर्वज्ञ, विश्वगुरू हो जाता है। अवतार हो जाता है।

प्रजा के आगे जादू का डंडा घुमाता है और समाजवाद रच जाता है। कोई धर्मनिरेपक्ष भारत बनाता है। कोई काला धन खत्म करके भारत को श्वेत-गोरा बना देता है। हर तरह की मनमानी और ऐसे तौर-तरीके जो अंग्रेज और मुगल आत्माएं भी हैरान हो जाएं! अंग्रेजों की माफिक बांटों और राज करों वाली सत्ता। मुगलई कारिंदों-कोतवालों की दिल्ली शाही। कोई प्रधानमंत्री बना नहीं कि उसकी दृष्टि ऊपर से नीचे की हो जाती है। तब हिंदू बनाम मुस्लिम, तुष्टि बनाम बुलडोजर से वोट पकते हैं। गरीब को खैरात और रेवड़ियां बंटती हैं तो अमीरों को वैश्विक अमीर बनवाने की कृपा। तभी हर प्रधानमंत्री के हाथों भारत में असमानताओं का विस्तार हुआ है? सब संविधान के खांचे-ढांचे में!

क्या मैं गलत हूं? क्या पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी ने यह नहीं किया था? ग्यारह वर्षों से क्या नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं करते हुए हैं?

तो भारत के संविधान का समाजवाद का मुखौटा असल या फरेब? और धर्मनिरपेक्षता सचमुच या उसकी वजह से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक और अंततः फिर हिंदू अस्मिता!

मेरा मानना है 1947 से पहले, (खासकर 1937 के हिंदू-मुस्लिम झगड़ा पैदा करने वाले चुनाव से पहले तक) पूरा हिंदुस्तान सांस्कृतिक तौर पर समरस था। एक-दूसरे के साथ गांव, देहात, शहर सभी तरफ सामंजस्य से धर्मों और जातियों में जीने का भाव था। परस्पर रिश्तों के मन टूटे और बिखरे हुए कतई नहीं थे जैसे संविधान और उसके कानूनों ने पिछले 75 वर्षों में बिखेरे हैं। फिर भले परिवारों में रिश्तों का मामला हो, पुरूष-स्त्री के संबंधों का हो या खाप, जात और धर्म के रिश्तों में भयाकुलता, भूख और भक्ति से बना बिखराव हो।

यह तथ्य-सत्य नोट रखें कि मनुस्मृति को गाली देते हुए, जातीय राजनीति की धुनी रमाए (हालांकि वजह नरेंद्र मोदी की देखादेखी है) राहुल गांधी इन दिनों धर्मनिरपेक्षता-समाजवाद के संविधान की रक्षा की कसम डॉ. आंबेडकर के हवाले लेते हैं। पर क्या राहुल गांधी को मालूम है कि डॉ. आंबेडकर को संविधान को लेकर कैसा पछतावा बना था? गौर करें 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में प्रस्तावित संविधान पर उनके कहे इन वाक्यों पर, “हम 26 जनवरी 1950 को विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता बनी रहेगी… हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, हम ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे”। (“On the 26th of January 1950, we are going to enter into a life of contradictions. In politics we will have equality and in social and economic life we will have inequality. In politics we will be recognizing the principle of one man one vote and one value. In our social and economic life, we shall, by reason of our social and economic structure, continue to deny the principle of one man one value.”)

फिर दो सितंबर 1953 को उन्होंने राज़्यसभा में राज्यपालों की भूमिका पर चर्चा के वक्त कहा, “सर, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान रचा है। लेकिन मैं आत्मविश्‍वास के साथ कह सकता हूं कि मैं पहला व्यक्ति बनूंगा जो इसे जला देगा। मुझे यह नहीं चाहिए। यह किसी के भी लिए उपयुक्त नहीं है”। (“Sir, my friends tell me that I made the Constitution. But I am quite prepared to say that I shall be the first person to burn it out. I do not want it. It does not suit anybody.”)

राज्यसभा में ही 19 मार्च 1955 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने एक और पते की बात कही, “हमने एक मंदिर बनाया था ताकि उसमें भगवान आकर वास करें, लेकिन अगर उसमें भगवान की स्थापना से पहले ही शैतान ने कब्जा कर लिया, तो हमें क्या करना चाहिए सिवाय उस मंदिर को तोड़ने के”? (“We built a temple for god to come in and reside, but before the god could be installed, if the devil had taken possession of it, what else could we do except destroy the temple? … That’s the reason why I said I would rather like to burn it.” )

सोचें, डॉ आंबेडकर के इस वाक्य पर, “यह किसी के भी लिए उपयुक्त नहीं है”। और उनकी सत्तर वर्ष पहले कही वह बात भविष्य के भारत की दशा के अनुमान की उनकी दूरदृष्टि का लाजवाब प्रमाण है!

असल वजह है संविधान के रूप में हमने वह मंदिर बनाया, जिसकी आत्मा अंग्रेज-मुगलों द्वारा भारतीयों की दासता के लिए बनाया तंत्र है। जाहिर है मंदिर बिना भारत की आत्मा के है।

भारत के कुलीनों ने जो संविधान अपनाया वह बिना भारतीय आह्वानों की प्राण प्रतिष्ठा के है। वह भारत के जन-जन, जन-मन में व्याप्त, स्मृति परंपरा के जरिए सनातन काल से कायम चली आ रही सभ्यता-संस्कृति के प्राण पाए हुए नहीं है। नस्ल (निर्विवाद रूप से हिंदू) की जातीय संरचना को, उसकी स्मृति को, उसकी पीड़ा को संविधान सभा में बैठे आंग्ल हिंदुओं ने तनिक भी महत्व नहीं दिया। उलटे वह पाप किया जो समानता और सामाजिक न्याय के नाम पर धर्म व जातीय सरंचना को न केवल संवैधानिक पहचान दी (बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, आरक्षण आदि) बल्कि परंपरा की जकड़न को संवैधानिक वैधता में स्थायी बनाया।

इसलिए दलित सहित हर जाति अपनी पहचान में स्थायी तौर पर जीने को शापित है। डॉ. आंबेडकर ने इस संभावना को इस तरह बताया है कि “हमने जो राजनीतिक समानता दी है, वह सामाजिक और आर्थिक असमानता की नींव पर खड़ी है और यह विस्फोट को आमंत्रण देना है”।

और सही में पिछले 75 वर्षों में बिखराव, परस्पर शत्रुता के एक के बाद एक विस्फोट हुए हैं,  हिंसा में, पहचान की राजनीति में, आरक्षण के संघर्षों में, और उस अंतहीन नफरत में जिसमें हर जाति अपने ही इतिहास को दूसरों के खिलाफ हथियार बना रही है। इसलिए डीआर नागराज ने ‘The Flaming Feet’ पुस्तक में पते का गहरा सत्य लिखा है कि, “भारत में जाति केवल सामाजिक ढांचा नहीं है, यह एक सांस्कृतिक जकड़न है, जिसने अब दलितों के क्रोध को मिथकीय बना दिया है और ब्राह्मणों के अपराध बोध को परंपरा में बदल दिया है”। अर्थात संविधान ने इस मिथक को न तोड़ा, न पुनर्सृजित किया, उसने उसे जड़ कर दिया, उसे न्याय का जामा पहना दिया, और उसे व्यवस्था का नियम बना डाला!

सोचें, हिसाब से आज़ादी के बाद भारत का हर नागरिक, संविधान के सहारे आधुनिकता की सीढ़ियां चढ़ना चाहता था, लेकिन हुआ क्या? संविधान से पुरानी बेड़ियों और विधिवत हो गईं। संविधान ने, वोट की राजनीति ने हर जाति को उसका टैग दे दिया है। जैसे पशुओं के बाड़े में टैग लगाकर पशुओं की पहचान, उनका वर्गीकरण होता है वैसे संविधान ने यह होड़ बनवा दी है कि भारत नाम के देश के मनुष्यों की बारीक से बारीक पहचान को पकड़ कर उन्हें जातियों के टैग दिए जाएं! और भारत की बुद्धिहीनता का यह आलम है जो हर कोई इस इलहाम को पाले हुए है कि इससे समानता, बंधुता बनेगी!

तो संविधान ने क्या दिया? नागरिकता दी लेकिन गरिमा नहीं। लोगों को अलग-अलग पहचान के टैग में बांध दिया। नतीजतन मनुस्मृति के चार वर्ण की जगह अब पांच वर्ण हैं और उनके नीचे फिर हजारों वर्ण बन गए हैं। मोदी सरकार आगे जब जाति जनगणना करेगी तो पता पड़ेगा कि हजारों नहीं लाखों वर्ण हैं।

पर मेरा मानना है कि कायम मनुस्मृति के चार वर्ण ही रहेंगे। मनुस्मृति को कितना ही खारिज करें लेकिन बुद्धि, बहादुरी, व्यापार और सेवा के चार वर्ण-वर्ग की रेखा इस संविधान से भी अमिट है। उलटे संविधान ने आंग्ल हिंदू शासकों का वह पांचवां वर्ग बना डाला है जो समता, सामाजिक न्याय के नाम से सत्ता-शासन की भूख में अंग्रेजों के रिकॉर्ड तोड़ रहा है। राजेंद्र माथुर ने 1947 से पहले और 1947 के बाद के भारत का फर्क बताते हुए 1975 में लिखा था कि, भारत का गणराज्य उन लोगों के बूते कायम है, जिन्हें अंग्रेजों ने डेढ़ दो सौ वर्ष के अपने साम्राज्य के दौरान पैदा किया था। अंग्रेज चले गए, लेकिन सांवले अंग्रेजों की दिन-रात फैलती एक कौम वे अपने पीछे छोड़ गए हैं जो लगभग विदेशियों की तरह ही इस देश पर राज कर रही है। एक तरफ शाश्वत, अविनश्वर, राज्य निरपेक्ष, औपनिवेशिक हिंदुस्तान है, और दूसरी तरफ सांवले साहबों की नई कौम है, जिसके निहित स्वार्थों के तंतु-जाल से इस देश का गणराज्य टिका हुआ है।

…यह टिका इसलिए है क्योंकि हमारा राज्य आज भी साम्राज्य की प्रतिछाया है। भारत में जो हाकिमों की जमात में शामिल है, उसका वर्ग ही नहीं वर्ण भी अलग हो जाता है और अपने आपको वह फरिश्तों की पंक्ति का समझने लगता है। इनके मन में अधिकार का और जमीन से दो फुट ऊपर होने का बोध है, और यह बोध उसी देश में हो सकता है जिसके शासक और शासित तेल और पानी की तरह दो अलग-अलग सतहों पर मौजूद रहते हैं। … यह वर्ण विभाजन साम्राज्य और उपनिवेश की मानसिकता वाले मुल्कों में ही संभव है। 1950 का संविधान भारत में इसलिए टिका है कि सांवलों ने यहां परकाया प्रवेश करके अपने आपको विदेशी बना लिया है। राज करने वाले इस पांचवें वर्ण को आंग्ल हिंदू कहां जा सकता है क्योंकि उसने राज्य का तंत्र इंग्लैंड से उधार लिया है लेकिन हिंदू चरित्र के अनुसार तोड़मरोड़ कर इस तंत्र को भारत में अपनाया है।

और यह बात इंदिरा गांधी के समय में भी सत्य थी और नरेंद्र मोदी के शासन में भी जस की तस है। इसलिए कोई अर्थ नहीं है संविधान के मुखौटों का। अर्थ सिर्फ संविधान से बने उस जादूई सत्ता मंदिर का है, जिसमें जो भी शासक बैठता है उसमें तुरंत अंग्रेजों की हाकिमी आत्मा प्रवेश कर जाती है। और गुलामी के पूरे कालखंड की तरह हिंदू आचरण भय, भूख, भक्ति में लपलपाया हुआ होता है। क्या नहीं?

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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