हर अगस्त, राजधानी दिल्ली ख़ुद को याद करने के लिए सजता है। रेडियो देशभक्ति के गीतों के सुर गुंजाते है। चौराहों पर, बारिश-भीगी हवा में झंडे लहराते हैं, उन्हें आशाभरी नज़रों वाले लड़के आपके हाथ में थमा देते हैं। लाल क़िले की दीवारें मचान और तिरंगे के झंडों से लकदक होती हैं। बड़ी और छोटी स्क्रीन पर वही दृश्य बार-बार चलते हैं, और सत्ता के बलुआ पत्थर की इमारते रोशनी से जगमगा उठती हैं। यही मौसम है जब गणराज्य का इतिहास एक मुग़ल क़िले से मंचित होता है—वर्तमान, अतीत के सेपिया रंग को उधार लेता हुआ। फिर नेता मंच पर आता है—अपना रिपोर्ट कार्ड, ख़ुद लिखकर, ख़ुद अंक देकर—देश को सुनाता है। जबकि नागरिक? उनसे उम्मीद होती है कि वे बस जयकार करें, भाषणों को निगल ले, उत्सवी हो जाए और तयशुदा समय पर तालियाँ बजाएँ?
कहीं इसी शहर में दो औरतें, बारिश से भीगी बालकनी पर, साथ बैठी हैं। हाथ में चीनी मिट्टी के खुरदरे कपों में चाय, स्टील की थाली में ठंडी होती पकौड़ियाँ। गली के उस पार, एक लाउडस्पीकर देशभक्ति के गीत में गला फाड़ रहा है। बेंत की कुर्सी पर झुकी हुई बुज़ुर्ग औरत, बर्फ़ और बरसों के रंग जैसे बाल ढीले जूड़े में बँधे हुए। पसीने से उसकी कनपटियों पर चिपकी लटें। आँखें आसमान में उड़ते पतंगों पर टिकी हैं। वह कप के किनारे पर अंगूठा फेरती है, हल्की मुस्कान—आधा कसक, आधा चाह—भौंहों के बीच की लकीर गहरी, जैसे वर्तमान को देखती हुई किसी पुराने, गहरे दबे समय को टटोल रही हो। और धीमी लेकिन साफ़ आवाज कहती है – “आज,”, “भारत मेरी उम्र का हो गया है।”
युवती फ़ोन से नज़र उठाती है, कुर्सी के हत्थे पर कोहनियाँ टिकाए। गाल पर चिपकी एक लट हटाते हुए वह बुज़ुर्ग के चेहरे को ऐसे पढ़ती है, जैसे कोई पुराना, घिसा हुआ नक्शा।
“कैसा लगता है आपको?” उसने आधी जिज्ञासा, आधी चुनौती में पूछा- “जो देखा, अनुभव किया उस पर गर्व है? जितना आगे बढे हैं, उस पर?”
बुज़ुर्ग ने “गर्व” शब्द पर हल्की मुस्कान दी—जैसे ज़ुबान पर शब्द का वज़न तौल रही हो।
“गर्व,” उसने आख़िरकार कहा, और शब्द भारी निकला। “पहले इसका मतलब था—उस झंडे को देखना जो एक नवसीखिया देश के ऊपर चढ़ रहा था। फिर आया—पहला कोका-कोला पीना, विम्पी के फ़्रेंच फ़्राइज़ खाना, महाराज में लखनऊ उड़कर जाना—ये सब तब इस बात के संकेत थे कि हम दुनिया की ओर खुल रहे हैं। तब यह सीने में फूलता था। अब? गर्व सीने में फूल भी सकता है, और कस भी सकता है। कभी यह प्यार होता है, कभी यह बस उस चीज़ का नाम होता है जिससे आप सवाल करना छोड़ चुके हैं।”
युवती मुस्कुराई, “आप कोक के लिए लाइन में लगीं। हम स्टारबक्स के लिए लगते है।”
“या नए नोटों के लिए,” बुज़ुर्ग ने तुरंत पलटवार किया।
युवती की हँसी—तेज़ और थोड़ी अटपटी।
“कई मायनों में,” बुज़ुर्ग ने धीमे स्वर में कहा, “तुम्हारा आज, मेरे कल की गूंज है—बस चेहरे बदल गए हैं।”
“कैसे?”
“मैंने ’62, ’65, ’71, कारगिल, और इस गर्मी की सरहदी लड़ाई, आपरेशन भी देखा है। मेरे लिए युद्ध एक पुराना साया है। तुम्हारे लिए तो यह पहली बार था।”
वे दोनों पतंगों को धूसर होते आसमान में लहराते देखती हैं।
“और युद्ध सबकुछ वापस ले आता है। सारी यादे —रेडियो उद्घोषकों की अटकती साँसें, वह रात जब बाबरी मस्जिद टूटी और हवा दो हिस्सों में बँट गई, वे दंगे जिनमें शहर रातभर जागते रहे, सरकारों के गठबंधनों के साल जिनमें भरोसा दरकता गया। मैंने देखा है, सत्ता एक परिवार से ऐसे पास होती रही जैसे कोई वंशानुगत चीज़, और फिर कोई आता है यह वादा करते हुए कि भारत को वह ‘सोने की चिड़िया’ बनाएगा।”
बुजुर्ग महिला की स्मृतियाँ में युवती की यादे भी शामिल हो जाती हैं—दिल्ली, लॉकडाउन से ठीक पहले की घुटन भरी नफ़रत, सायरनों का शोर, राम मंदिर का सुनहरा-संवरण, किराया बढ़ता हुआ, काम सिमटता हुआ। अलग दशक, अलग नारे, मगर वही बेचैनी, लगातार।
78 साल की बुज़ुर्ग पतंगों को देखती रहती है—“मैंने यह पहले भी देखा है,” वह कहती है। “हर मज़बूत नेता वादों की मुट्ठी लेकर आता है, और कुछ समय तक उम्मीद रहती है कि मुट्ठी से कुछ बनेगा। लेकिन यह पतली पड़ जाती है—हमेशा खाली निकलती है।”
वह गहरी साँस लेती है। “हम लोगों के, रिश्तों के बीच का गोंद—पड़ोसी, अजनबी, यहाँ तक कि दुश्मन भी—भुरभुरा हो गया है। गोंद, गोंद ही नहीं रहा। पहले हम बहस करते थे जैसे कोई शोरगुल वाला भरापूरा परिवार और फिर भी हमेशा एक ही मेज़ पर बैठते थे। झगड़ते थे, बहस करते थे अब कानाफूसियाँ है और वे नुकीली हो गई हैं, फाँकें कठोर। मैं उस देश को देखती हूँ जिसे मलबे से उठते देखा था, लेकिन कई दिन तो पहचान नहीं पाती—न उसकी राजनीति की भाषा में, न असहमति की सिकुड़ती जगह में, न इस आदत में कि किसी को जानने से पहले उसका ‘पक्ष’ जानना ज़रूरी है।”
उसकी आवाज़ तेज़, तल्ख होती है—“और मैं तुम्हें देखती हूँ…तुम्हारे पास क्या है? हमारे समय में, हमारे पास मक़सद था—देश की सेवा करना, उसके साथ बढ़ना। हम सड़कों पर उतरते थे अपने हक़ के लिए, महँगाई से लड़ते थे, आरक्षण पर बहस करते थे, अपने समय के मज़बूत नेताओं और महिला नेत्रियों से सवाल करते थे। और अब आज? तुम सड़कों के कुत्तों के लिए लड़ते हो, जबकि औरतें अब भी घर लौटते हुए असुरक्षित हैं। तुम ब्यूटी-हॉल के रील बनाते हो जबकि अमेरिका देश पर टैरिफ़ लगा रहा है। तुम उन नैरेटिव पर तालियाँ बजाते हो जो बस झूठ हैं—विजय की पोशाक में।”
वह सीधी नज़र डालती है—“और तुम्हें लगता है, ‘भारत’ का अर्थ प्रगति है?”
युवती आधी हँसी, आधा कंधा उचकाती है—“भारत अब बड़ा है। अमीर है। सैन्य ताक़त है। हम दुनिया को पहले से ज़्यादा टेक बेचते हैं। हमारी कूटनीति में हिम्मत है, हमारी सेना में दाँत। हम सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में हैं…” वह रुकती है, एक नज़र बालकनी के किनारे जमते पानी पर और पूछती है“…यह सब मायने रखता है, है न?”
बुज़ुर्ग सीधी नज़र टिकाती है—चेहरे की लकीरें उम्र से नहीं, बल्कि इस सवाल को पहले भी पूछने के बोझ से गहरी हैं। “पर तुम बताओं, तुम क्या बढ़ रही हो? देश के साथ? तुम्हारा जीवन बस गुजर रहा है, टाइमपास भर है? तुम्हारा काम फोन की स्क्रीन पर अजनबियों के लिए एक प्रदर्शन से आगे क्या है? और लोग—क्या वे आज मुझसे मेरे जन्म के दिन जितने सुरक्षित, बराबर और आज़ाद हैं? अगर नहीं, तो बताओ… हम किस चीज़ में बड़े, आगे बढ़े और अमीर हुए हैं?”
नीचे, बारिश में नाचते-गाते लड़कों की आवाज़ें ऊँची हो रही हैं। अंदर टीवी पर प्रधानमंत्री लाल क़िले से पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मज़बूती, चौकसी और ताक़त का भाषण दे रहे हैं। आसमान में लड़ाकू विमान, स्क्रीन पर गरजती भीड़।
बुजुर्ग रूकी नहीं- “क्या तुम्हें अपने समय और उससे बनते अपने पर ‘गर्व’ है?”—सवाल शांत, पर आँखों की स्थिरता में चुभन।
‘गर्व’ गडबडाता है, हिलता है, पर उलझा हुआ। “है… पर अधूरा लगता है,” वह मानती है। “जैसे देश दौड़ रहा है और मैं प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी देख रही हूँ। शोर है, पर खोखला। हवा में एक अनकहा-सा इशारा है। कई बार दोस्तों के बीच भी आवाज़ धीमी कर लेती हूँ, हर शब्द तौलती हूँ—क्योंकि कुछ ने सोचना शुरू कर दिया है कि विपक्ष की बातें ठीक हैं। यह डर नहीं… यह अनिश्चितता है कि जो सोचती हूँ, क्या वह अब भी उसी ‘भारत’ का हिस्सा है जिस पर हम गर्व करते हैं।”
बुज़ुर्ग कुर्सी पर पीछे झुकती है—“यही तो करिश्माई नेताओं का कमाल है—वे तुम्हें बाहर देखने की आदत डालते हैं, ताकि तुम भीतर न देखो। जीत को मिसाइल की मारक-सीमा में तौलना सिखाते हैं, न कि इस बात में कि लोग कितने सुरक्षित या बराबर, समान महसूस करते हैं। नेता हमेशा बताएँगे कि वे दूसरों के लिए क्या कर सकते हैं। असली हिसाब यह है कि वे अपने लोगों के लिए क्या करते हैं—और करना चाहते भी हैं या नहीं।”
बरसात की बूँदें तेज़ होती हैं। झंडे हवा में फड़फड़ाते हैं, रंग बहते हुए। 78 साल की औरत आख़िरी पतंगों को आसमान में गुम होते देखती है, फिर अपनी 29 साल की पोती की ओर मुड़ती है—“शायद मैं कुछ और आज़ादी दिवस देख लूँ। मैंने इस देश को जीतते-हारते, उठते-गिरते देखा है। जब तुम मेरी उम्र की होगी… जब भारत 127 साल का होगा… क्या कुछ पाओगी? कोई वादा जो आख़िरकार पूरा हुआ, या वही पुरानी कहानियाँ—ताकि हम जो ग़ायब है, उसे न ढूँढें?”
सवाल उनके बीच ठहर जाता है—बारिश जितना भारी, आसमान से भी भारी।


