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30-04-2025 Vol 19

अनजान चेहरों का ‘वारिस पंजाब दे’ बनना!

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लगता है 35 साल बाद भी पंजाब में पुराने घाव जस के तस है। कुछ भी नहीं बदला है। या शायद सब कुछ बदल गया है। राज्य एक बार फिर गुस्से, अवज्ञा, विद्रोह, सिक्ख पहचान को कायम रखने, सिक्ख अस्मिता की लहर में डूबता जा रहा है।

जनादेश और भावनाओं की भांप-2

चुनाव 2024 के नतीजों में सुर्खियां बटोरने वाले अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा भी है। दोनों ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में चुनाव लड़ा है। जहां अमृतपालसिंह ने कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप सिंह जीरा को 1,97,120 वोटों से हराया वहीं सरबजीत सिंह खालसा ने आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीदवार करमजीत सिंह अनमोल को 70,000 से ज्यादा वोटों से शिकस्त दी है। और इन दोनों की जीत पंजाब में, सिक्ख मनोभावना में मौन ऊबाल का वह संकेत है जोअस्सी के दशक में भी फूटा था और तब खुशवंत सिंह ने लिखा था, “यह साफ़ है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में हिन्दू बहूसंख्यकों के लिए एक कानून है और मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख अल्पसंख्यकों के लिए दूसरा।”

पंजाब, सिक्खों के आज के मूड को समझने के लिए गुज़रे कल को समझना होगा।

सन् 1984 के आमचुनाव में देश ‘400 पार’ के खुमार में डूबा हुआ था। लगभग जबरिया राजनीति में धकेल दिए गए राजीव गांधी, जो भारतीय राजनीति के दांव-पेंचों से अनजान थे, ने तब 414 सीटें जीती। वह एक आंधी थी, सहानुभूति और दुःख की अभिव्यक्ति थी, जो उनकी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी थी। देश शोकग्रस्त था। इस आंधी के बीच पंजाब भी एक दूसरे तूफान को झेल रहा था। वह भी शोक में डूबा हुआ था। मगर दूसरे कारण से।

आईपीएस अधिकारी से राजनीतिज्ञ बने सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाले अकाली दल युनाईटेड ने चुनाव लड़ा और वह 13 में से 6 लोकसभा सीटें जीतकर पंजाब में सबसे बड़े दल के रूप में उभरा। विजयी उम्मीदवारों में रोपड़ से बिमल कौर खालसा और भटिंडा से बाबा सुच्चा सिंह भी थे। बिमल, बेअंत सिंह की विधवा थीं और बाबा सुच्चा सिंह, बेअंत सिंह के पिता थे। बेअंत सिंह को बाकी सारा देश आतंकवादी मानता था लेकिन पंजाब के लिए मानो स्वतंत्रता सेनानी, शहीद और सिक्ख पंथ का रक्षक था।

सिमरनजीत सिंह मान भी उस समय की तरनतारन सीट से जीते थे – वह भी चुनाव अभियान में शून्य भागीदारी के बावजूद। इसके बाद वे अखबारों की सुर्खियों में तब आए जब वे ऐसे एकमात्र सांसद बने जिसने अपनी परंपरागत कृपाण बाहर रखकर संसद भवन में प्रवेश करके शपथ लेने से इंकार कर दिया।

अतीत के घटनाक्रम को याद करते हुए एक वरिष्ठ जज ने मुझसे कहा, “इससे आप सिक्खों की मानसिकता का अंदाज लगा सकती हैं”।

परंपरागत रूप से सिक्ख खुद्दार और अन्याय के खिलाफजुझारू तथा बागी होते हैं। वे हमेशा वही करना चाहते हैं जो उन्हें सही लगता है और जो उन्हें सही लगता है, वे उसका पक्ष लेते हैं। वे भेदभाव, असमानता और असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं कर पाते। और जहां तक मजहब का सवाल है, वे किसी को नहीं छोड़ते। उनका मानना है कि जहां तक राष्ट्रवाद की बात है, परंपरागत राजनैतिक दलों – विशेषकर भाजपा – का सिक्ख समुदाय के प्रति सौतेला रवैया है। सीबीसी की एक खबर के अनुसार, 6 जून (2024) को आपरेशन ब्लू स्टार की बरसी पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसका उद्देश्य नई पीढ़ी को समझाइश देना था। इस समझाइश का राजनीति से लेनादेना नहीं था। वहां मौजूद कुछ लोगों का विचार था कि वर्तमान सरकार, जिसने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार चुनाव जीता है, सिक्खों के प्रति भेदभाव को जारी रखे हुए है।

नए भारत में अब यह कोई चौकाने वाली बात नहीं है जो देश को हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-सिक्ख आदि के आधार पर बांटो और राज करों की रीति-नीति की आम धारणा है। सत्ता की हवस में और लोकप्रियता हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार आज के राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ उसी रास्ते पर चल रहे हैं जिस पर पहले के नेता और शासक चले है।

लेकिन नए भारत का नया पहलू है जो उसका नैरेटिव भद्दा हो गया है। राजनीति गंदली और भद्दी हो गई है।सर्वोत्त है सत्ता और लोकप्रियता की हवस और बाकी सब दोयम है।इसलिए पहले भी बुरी तरह उथलपुथल झेल चुके दो राज्य – जम्मू-कश्मीर व पंजाब –का वापिस राजनीति की प्रयोगशालाएं बनना अप्रत्याशित नहीं है।

मैं एक ऐसे पंजाब को देखते हुए बड़ी हुई हूं जहां शांति की वापसी थी। खालिस्तान का सपना, भिंडरावाले, आजादी, अवज्ञा, आक्रोश और बगावत बीते दिन की बातें बन चुकी थीं। पंजाब हरित क्रांति, हरे-भरे खेतों, जिंदादिली, समृद्धि और किसानी की खूबियों से दिल-दिमाग में था। सचमुच पंजाब पूरी एक पीढ़ी शांत माहौल में बड़ी हुई थी और हर कोई कनाडा, विदेश में बसने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनते हुए था।

लेकिन अब लगता है कि 35 साल बाद भी पंजाब में पुराने घाव जस के तस है। कुछ भी नहीं बदला है। या शायद सब कुछ बदल गया है। राज्य एक बार फिर गुस्से, अवज्ञा, विद्रोह, सिक्ख पहचान को कायम रखने, सिक्ख अस्मिता की लहर में डूबता जा रहा है। युवा वर्ग, जिसका मन भिंडरावाले और उसके नैरेटिव से पूरी तरह मुक्त था, में अलगाव के बीज, बागी बनने की इच्छा और कट्टर उग्रवाद के बीज बो दिए गए हैं।

शुरूआत 2020 में हुई। जब सारी दुनिया महामारी से जूझ रही थी, तब मोदी सरकार पंजाब के किसानों के कड़े प्रतिरोध को झेल रही थी। वे ‘किसान-विरोधी कानूनों’ को पारित करने के खिलाफ लामबंद थे। इस आंदोलन में किसान – जिनमें बहुत से वृद्ध एवं महिलाएं भी शामिल थीं- कड़ाके की सर्दी में राष्ट्रीय राजमार्गों पर धरना दे रहे थे और जनता में गहरी नाराजगी थी। यह सब करीब एक साल तक जारी रहा। कुल 670 आंदोलकारियों ने अपनी जान गंवाई।लेकिन सरकार प्रायोजित नैरेटिव क्या था? आंदोलन को ‘खालिस्तानी आतंकियों’ द्वारा फंडेड बताया गया और इसके पीछे विदेशी साजिश होने का आरोप लगाकर इसे बदनाम किया गया।

जबकि आंदोलन को महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और अन्य स्थानों के किसानों का अच्छा-खासा समर्थन मिला था। मगर फिर भी सिक्ख किसानों को जमकर बदनाम किया गया। अन्नदाता किसानों को आतंकवादी कहा गया। पंजाब में आक्रोश और कड़वाहट फैली। नशीले पदार्थों और बेरोजगारी से परेशान एक राज्य और एक पीढ़ी को सिद्धू मूसेवाला के संगीत से जोश और उत्साह और दीप संधू की बातों से ऊर्जा मिली। लेकिन इन दोनों की हत्या का बहुत बुरा असर हुआ। आक्रोश और कड़वाहट और बढ़ गई।मूड ने आक्रामक और अतिवादी स्वरूप अख्तियार कर लिया।

तभी ध्यान रहे आप की विधानसभा चुनाव में भारी जीत के कुछ महीने बाद ही सिमरनजीत सिंह मान ने 23 जून 2022 को संगरूर के उपचुनाव में विजय हासिल की। मान ने कहा “यह हमारे कार्यकर्ताओं और जरनैल सिंह भिंडरावाले की सीख की जीत है”। कई लोग इसे सिद्धू मूसेवाला और दीप संधू की जघन्य हत्याओं के आम जनता पर पड़े असर की जीत भी मानते हैं।

और इसी साल अमृतपाल, जो एक जानामाना नाम नहीं था, जानामाना बन गया। दस साल तक दुबई में ट्रक ड्राईवरी करने के बाद वह पंजाब में प्रकट हुआ और उसने जरनैल सिंह भिंडरावाले की वेशभूषा में और उसके लहजे में बात करना शुरू कर दिया। वह दीप संधू द्वारा 2021 में स्थापित वारिस पंजाब दे का स्वघोषित नेता बना।इस सगंठन की स्थापना ‘‘पंजाब के अधिकारों की रक्षा और उनके लिए संघर्ष करने और सामाजिक मुद्दे उठाने” के लिए की गई थी। सिद्धू की मौत के बाद अमृतपाल द्वारा ‘वारिस पंजाब दे’ पर काबिज होने का विरोध न तो सिद्धू के परिवारजनों ने किया ना ही उसके समर्थकों ने, जिनमें से अधिकांश नवयुवक थे। उसने जल्दी ही संस्था के लक्ष्यों को बदलकर “सिक्ख पंथ के सिद्धांथों का अनुसरण” और “खालसा राज की स्थापना” कर दिया।

राज्य में जो माहौल था उसके चलते उसे जल्दी ही बहुत लोकप्रियता हासिल हो गई। वह हीरो बन गया -मानो  दुख-दर्द दूर करने वाला बाबा। उसे युवा वर्ग में जबरदस्त समर्थन मिला। उसे सिक्ख कौम का ऐसा मसीहा माना जाने लगा जो भिंडरावाले, मूसावाला और दीप संधू का मिश्रण था। नवयुवकों में उत्साह की एक लहर व्याप्त हो गई। उन्हें लगने लगा कि वह पंजाब का खोया हुआ गौरव दुबारा स्थापित कर देगा।

चुनाव में अमृतपाल ने उस खडूर साहिब सीट से जीत हासिल की है जो सिक्ख पंथ के धार्मिक क्रियाकलापों का स्थान है। यह 1990 के दशक में आतंकी गतिविधियों का केन्द्र था। जहां तक सरबजीत सिंह खालसा की फरीदकोट से हुई जीत का सवाल है, उसे लंबे समय से कायम सिक्ख समुदाय के इस नजरिए का नतीजा माना जा रहा है कि उन्हें 2015 में पंजाब में अकाली दल-भाजपा गठबंधन के शासन के दौरान हुए श्री गुरूग्रंथ साहिब को अपवित्र किए जाने के मामले में अभी तक इंसाफ नहीं मिला है।

एक समय था जब शिरोमणि अकाली दल पंथिक राजनीति के केन्द्र में था। अब हालात बदल गए हैं और नए भारत में पंथिक राजनीति के नए चेहरे अमृतपाल, सरबजीत और सिमरनजीत सिंह मान हैं।प्रकाश सिंह बादल और अमरिंदर सिंह के बाद पैदा हुए शून्य और कुशल व योग्य सिक्ख नेताओं की कमी ने इन्हें नेता बनाया  है। किसान आन्दोलन से उपजी सरकार-विरोधी भावनाओं और रोष ने फिर जोर पकड़ा। इस आग में घी का काम किया लंबे समय से उलझे सतलुज-व्यास नहर विवाद, चंडीगढ़ पंजाब को दिए जाने का मसला, आतंकवाद के दौर में झूठी मुठभेड़ों में की गई युवाओं की हत्याओं में न्याय न मिलने, युवकों पर यूएपीए और एनएसए जैसे कानूनों के अंतर्गत मुकदमे दर्ज करने जैसी पुरानी चर्चाओं और मुद्दा ने। नशीली दवाओं से उत्पन्न हुई परिस्थितियों ने लोगों को मुख्यधारा से मोहभंग और परंपरागत राजनीति से दूर करने की भूमिका निभाई। कुछ समय तक आप को एक विकल्प की तरह देखा गया, लेकिन अमृतपाल, सरबजीत और आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस (जिसने 7 सीटें जीतीं) की जीत से पंजाब में माहौल बदला है तो समाज बंट गया है।

राजनीतिक दृष्टि से 2024 का चुनाव 1984 जैसा नहीं है। जनता का एक हिस्सा सत्ताधारियों को पंजाब विरोधी और सिक्ख विरोधी मानता है। सरबजीत और अमृतपाल की विजय केवल भावनात्मक मुद्दों के सहारे हासिल हुई है। खबरों के अनुसार नतीजे आने के पहले ही यह माना जा रहा था कि अमृतपाल जीत जाएगा। उसके बारे में यह कहा जा रहा था कि स्थापित राजनैतिक दलों ने उसे झूठे मामलों में फंसाकर इसलिए जेल पहुंचा दिया क्योंकि वह नशीले पदार्थो के चलन के खिलाफ काम कर रहा था।निश्चित ही अमृतपाल की जीत सहानुभूति और भावनाओं से है। कश्मीर घाटी के इंजीनियर राशिद की तरह, लोगों ने उसे कैद किए जाने का विरोध करने के लिए उसे वोट दिया है। जहां तक सरबजीत का सवाल है, द वायर की एक रपट के अनुसार “मतदान के कुछ दिन पहले तक उसके पक्ष में कोई लहर नहीं थी”। इसलिए उसकी जीत को भी भावनाओं के ज्वार का नतीजा माना जा रहा है। वह इसलिए भी क्योंकि गुरुग्रन्थ साहिब को अपवित्र किये जाने में मामले में सिक्खों को न्याय दिलवाने में अकाली दल-भाजपा गठबंधन, कांग्रेस और वर्तमान आप सरकार, सभी पर ठिकरा फूटा हुआ हैं।

लोगों को जेल में डालने, उनका दमन करने से समाज में व्याप्त गुस्सा ख़त्म नहीं होता। यह बात सभी राजनैतिक दलों को अपने दिमाग में बैठा लेनी चाहिए। इंदिरा गांधी ने सिक्खों से जुड़े मसलों को पर्याप्त सावधानी से हैंडल नहीं किया था। वही गलती नरेंद्र मोदी और उनके साथियों ने किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में की।

सो कश्मीर और पंजाब – दोनों की वही कहानी है। गुस्सा है, कड़वाहट है और स्थापित पार्टियों और उनके नेताओं से मोहभंग है। इसी ने इंजीनियर राशिद, अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा जैसे आज़ाद उम्मीदवारों को पंख दिए। ये सब अलगावादी हैं और जनता उनके साथ खड़ी दिखती है। वे लोगों के मूड, उनकी भावनाओं, उनकी इच्छाओं को अभिव्यक्त कर रहे हैं।

संदेह नहीं कि दोनों राज्यों में धार्मिक ध्रुवीकरण नए सिरे से शक्ल ले रहा हैं, नया बीजारोपण है। वे बीज क्या पेड़ बनेंगे और कितने मज़बूत पेड़ बनेंगे, यह अभी कहना मुश्किल है। मगर यदि वे पेड़ बने तो यकीन मानिये, भारत की सेहत के लिए अगले पांच साल, पिछले दस सालों से कहीं ज्यादा हानिकारक सिद्ध होंगे। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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