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इस समय तो आतंक भी कूटनीति !

अजीब समय है। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब आतंकवाद दुनिया की सबसे बड़ी चिंता थी। “वॉर ऑन टेरर” में हर देश की हिस्सेदारी थी। न्यूयॉर्क से लेकर मुंबई तक हर हमला इस बात को फिर से पक्का करता था कि आतंक बुराई है और दुनिया इसके ख़िलाफ़ एकजुट है। दुश्मन को एक धार्मिक पहचान भी दी गई — उसे कहा गया “इस्लामिक आतंकवाद।” तब बताया गया था कि यही इस सदी का निर्णायक युद्ध है — वह संघर्ष जो हमारे युग की पहचान बनेगा। लेकिन इक्कीसवीं सदी, जिसकी स्मृति छोटी और थकान लंबी है, अब पूरा चक्र घूम चुकी है। वही लोग जो कभी अंधेरे में छिपे रहते थे — जिन पर इनाम था, जिन्हें सभ्यता का दुश्मन कहा गया था, इन दिनों कूटनीति की मेज़ों पर बैठे हैं। वे सत्ता के गलियारों में चलते हैं, राष्ट्रों के प्रतिनिधि बनकर स्वागत पाते हैं।

यह संकेत है। यह चिंता है। और यह विडंबना भी।

सिर्फ़ पिछले हफ़्ते ही अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र में दिलचस्प नजारा था। सीरिया के स्वयंभू अंतरिम नेता अहमद अल-शरा का। वही अल-शरा जो कभी सीरिया के अल-नुसरा फ्रंट का चेहरा था, नागरिकों पर हमलों के लिए 10 मिलियन डॉलर का इनामी आतंकवादी। आज वही व्यक्ति संगमरमर के गलियारों से गुज़रता हुआ उन्हीं राजनयिकों के साथ तस्वीरें खिंचवा रहा था जिन्होंने कभी उसे आतंकवादी कहा था।

असद को हटाने के बाद अब वह एक “सुधारक” नेता के रूप में शांति, स्थिरता और पुनर्निर्माण की बातें करता है। भाषा बदल गई है, लेकिन अतीत नहीं। उनका अमेरिका का दौरा 1967 के बाद किसी सीरियाई नेता की संयुक्त राष्ट्र महासभा में पहली उपस्थिति थी।

सबसे विचित्र था न्यूयॉर्क के मिडटाउन मैनहट्टन के एक निजी क्लब का दृश्य — जहाँ कारोबारी, राजनयिक और पत्रकार भरे थे। वहीं अल-शरा “जिहादी से राजनेता बनने की अपनी यात्रा” का बखान (fireside chat )कर रहे थे। और सब सुन रहे थे — गम्भीरता से, शायद आदर के साथ।

उन्होंने एक बिंदु पर अपने अतीत का बचाव भी किया — इस आत्मविश्वास से कि दुनिया हमेशा “प्रायश्चित” की कहानी सुनना चाहती है:

उन्होंने कहा- “जो भी किसी बच्चे को सड़कों पर मरते देखेगा, वह विद्रोह करेगा।” .. “दबाव इतना था कि लोगों ने अपने पास जो साधन थे, उन्हीं में समाधान खोजे।” जो बात कभी निंदा का विषय होती, अब सहानुभूति बटोर रही थी — जैसे “आघात की भाषा” अब “आतंक की भाषा” को धो सकती है। डरावना यह नहीं कि उसने कहा, बल्कि यह कि दुनिया ने सुना — आक्रोश में नहीं, बल्कि कौतुक व आकर्षण में। जाहिर है हम ऐसे युग में हैं जहाँ भाषा किसी भी अपराध को वैध बना सकती है — जहाँ कभी आतंकवादी कहे जाने वाले अपने अपराधों को कथा में, और कथा को कूटनीति में बदल देते हैं।

और फिर हैं तालिबान। वही तालिबान जिनसे दो महाशक्तियों ने बीस साल तक युद्ध लड़ा,। वह आज काबुल में सत्ता में हैं और चार साल बाद वही राष्ट्र जो कभी उन्हें मिटाने की क़सम खाते थे, अब उनसे राजनयिक रिश्ते बना रहे हैं।

एक ऐसी सत्ता जो आधी आबादी — महिलाओं — को सार्वजनिक जीवन से मिटा चुकी है, लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगा चुकी है, और मध्ययुगीन फ़रमान वापस ला चुकी है — उससे भी अब दुनिया “व्यवहारिक संबंध” बना रही है।

भारत भी “प्रैग्मैटिज़्म” की इस परेड में शामिल है। इस महीने अफ़ग़ान विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताक़ी का भारत आना तय है।

भारतीय अधिकारियों ने इसे “द्विपक्षीय संबंधों का नया अध्याय” कहा है — यानी कूटनीतिक भाषा में अतीत को भुलाने का नया नाम। पूर्व मंत्री एम.जे. अकबर ने इसे भारत की “वैश्विक पहचान” की पुष्टि बताया और जोड़ा कि यह संकेत है कि “दुनिया अब प्रधानमंत्री मोदी की ओर हाथ बढ़ा रही है।” पर क्या वास्तव में ऐसा है? या यह उल्टा है — कि भारत, तालिबान को मेज़ पर आमंत्रित करके, उन्हें वैधता दे रहा है और नैतिक रूप से अस्वीकार्य को स्वीकार्य बना रहा है?

निश्चित ही रीयलपॉलिटिक के अपने तर्क हैं। पाकिस्तान के साथ सीमाई तनाव के बाद भारत ने समझा है कि काबुल को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इज़राइल के युद्ध ने पश्चिमी गठबंधनों को अस्थिर किया, वहीं पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर ने वॉशिंगटन और रियाद में फिर प्रभाव जमाया। ऐसे में नई दिल्ली ने अफ़ग़ानिस्तान को नैतिक नहीं, रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखा — एक भू-राजनीतिक सहूलियत के तौर पर। लेकिन यही तो हमारे समय की असली त्रासदी है।  दुनिया अब उग्रवाद को ठुकराती नहीं, उसे मैनेज करती है।

“संवाद” और “समर्थन” के बीच की रेखा अब “स्थिरता” की भाषा में घुल चुकी है। तालिबान को बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ी; दुनिया ने ही अपनी दृष्टि बदल ली।

अहमद अल-शरा को अपने अतीत को बदलने की नहीं, दुनिया को अपने सिद्धांत बदलने की ज़रूरत थी।

और यह पहली बार नहीं जो हिंसा को कूटनीति में बदला गया।

1970 के दशक में यासिर अराफ़ात और पीएलओ अपहरणों और हत्याओं के पर्याय थे। लेकिन 1993 तक अराफ़ात व्हाइट हाउस के लॉन पर बिल क्लिंटन और यित्झाक राबिन से हाथ मिला रहे थे — और नोबेल शांति पुरस्कार साझा कर रहे थे।

दुनिया ने आतंकवाद को परास्त नहीं किया, उसने उसका नाम बदलकर “राज्यत्व” रख दिया।

नेल्सन मंडेला की अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस को कभी वाशिंगटन और लंदन दोनों ने “आतंकवादी संगठन” कहा था।

लेकिन 1994 तक मंडेला राष्ट्रपति बने — और वही पश्चिमी राजधानियाँ जिन्होंने उन्हें कभी निंदा की थी, अब उन्हें नैतिक संत के रूप में माला पहना रही थीं। वह दुनिया के “माफ़ करने वाले” नायक बने — क्योंकि अब उनका संघर्ष पश्चिम के हितों को चुनौती नहीं देता था। बहिष्कृत को भविष्यवक्ता बना दिया गया — इतिहास के सबसे सुविधाजनक प्रायश्चितों में से एक।

अफ़ग़ान मुजाहिदीन, जिन्हें अमेरिका ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ “स्वतंत्रता सेनानी” कहा, वही आगे चलकर तालिबान और अल-क़ायदा बने। “वॉर ऑन टेरर” का मक़सद इस चक्र को तोड़ना था, लेकिन उसने इसे संस्थागत बना दिया।

पाकिस्तान, जो तालिबान को शरण देता रहा, अमेरिका का “मेजर नॉन-नाटो एलाय” बना।

सऊदी अरब, जहाँ से 9/11 के अधिकतर हमलावर आए, वही “रणनीतिक साझेदार” बना रहा।

इराक पर अमेरिकी आक्रमण, जो “आतंक-विरोध” के नाम पर हुआ, उसने आईएसआईएस को जन्म देने वाला रिक्त स्थान पैदा किया।

सो जो युद्ध “नैतिक अभियान” के रूप में शुरू हुए वे अंततः “हिंसा की नौकरशाही” बन गया। और जब थकान ने जोश की जगह ले ली, तब दुनिया ने चुपचाप अपने ही विरोधाभासों से समझौता किया है।

यह सब क्या बताता है?

कि सामान्यीकरण जारी है। किसी समूह की वैधता अब उसके आचरण पर नहीं, उसकी उपयोगिता पर निर्भर है।

और इतिहास गवाह है — कल की कूटनीतिक मेज़ों पर आज के बहिष्कृत भी होंगे।

हमास, जिसे पश्चिम अब भी आतंकवादी कहता है, “भविष्य के ग़ाज़ा समाधान” में अनिवार्य पक्षकार माना जा रहा है। हूथी विद्रोही, जिन्हें सऊदी गठबंधन ने कभी लगातार बमबारी का निशाना बनाया, अब “यमन की स्थिरता” के साझेदार कहे जा रहे हैं। नैतिक नक़्शा बार-बार सुविधा के हिसाब से फिर से खींचा जा रहा है।

जहाँ तक “वॉर ऑन टेरर” का सवाल है, सच्चाई यह है कि यह कभी आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध था ही नहीं। यह नियंत्रण का युद्ध था — इस बात पर कि “वैधता” की परिभाषा कौन तय करेगा।

नाम बदलते हैं, तर्क वही रहते हैं।

जो सशस्त्र समूह सत्ता-संतुलन में काम आते हैं — प्रतिद्वंद्वियों को साधने, सीमाएँ नियंत्रित करने या प्रवासन रोकने में — वे राजनीतिक अभिनेता बन जाते हैं। जो नहीं आते, वे “आतंकवादी” बने रहते हैं। यह विकास नहीं, पतन है — एक धीमा, सुनियोजित पतन जिसने 9/11 के बाद की नैतिक निश्चितताओं, पैमानो को खोखला कर दिया है।

पश्चिम, जो अंतहीन युद्धों और घरेलू भ्रम से थक चुका है, अब सिद्धांतों की जगह स्थिरता को चुन चुका है।

जो लोकतंत्र कभी मानवाधिकारों की भाषा बोलते थे, अब “रीअलिटी मैनेजमेंट” की बात करते हैं।

परिणाम: एक ऐसी दुनिया जो अब न्याय नहीं चाहती, सिर्फ़ शक्ति चाहती है।

शायद यही “नई कूटनीति” है — उन चीज़ों के साथ सह-अस्तित्व की कला, जिनसे कभी भय था।

तालिबान अब राजनेता हैं, अहमद अल-शरा “सुधारक” हैं, और हिंसा — अगर वह सही झंडे के नीचे हो — तो स्वीकार्य शक्ति का औज़ार है।

आतंकवाद, जो कभी कूटनीति की विफलता था, अब उसी का हिस्सा बन गया है।

और यही हमारे समय की अंतिम त्रासदी है — दुनिया ने उग्रवाद को हराया नहीं, बस उसे स्वीकार कर लिया है। उसे कूटनीति के परिधान में सजाया है, और इसे “प्रगति” कहा है।

इस तरह की शांति क्या टिकेगी या हमें सताएगी — इसका फ़ैसला, हमेशा की तरह, समय ही करेगा।

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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