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सरकार संवाद करे, जोर आजमाइश नहीं

जैसे ही कोई कहता है कि लद्दाख की घटना से सरकार को सबक लेना चाहिए वैसे ही उसको युवाओं को उकसाने वाला और देश विरोधी बताया जाने लगता है। लेकिन ऐसा नहीं है। लद्दाख की घटना से या उससे पहले पड़ोस के देशों बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की घटना से या फ्रांस से लेकर ब्रिटेन तक हो रहे प्रदर्शनों से सबक लेने की बात करने वाले लोग असल में शुभचिंतक हैं, जो चाहते हैं कि भारत में ऐसी घटनाओं का दोहराव नहीं हो। लद्दाख की घटना या उससे पहले दुनिया के अनेक देशों में हुई घटनाओं का सबक यह है कि सरकारों को नागरिकों को आजमाना बंद करना चाहिए। अभी ऐसा लग रहा है जैसे सरकारें नागरिकों के धैर्य की परीक्षा ले रही हैं। वह देखना चाहती हैं कि नागरिक किस हद तक जा सकते हैं। यह एप्रोच आत्मघाती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने का आधार यह है कि जिन देशों में भी युवा पीढ़ी यानी ‘जेन जी’ ने आंदोलन किया। सरकारों को जवाबदेह बनाने का प्रयास किया या तख्तापलट किया वह सारे देश लोकतांत्रिक थे और वहां लोकतांत्रिक प्रणाली से चुनी गई लोकप्रिय सरकारें थीं। ऐसा नहीं था कि युवाओं का आंदोलन एक पार्टी के शासन वाले राज्य या अधिनायकवादी व्यवस्था के खिलाफ था। उनका आंदोलन लोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ था। सो, जाहिर है कि लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभाई और उनका आचरण अधिनायकवादी रहा, जिससे लोगों का धैर्य चूका और वे सड़कों पर उतरे।

भारत को यह बात समझने की जरुरत है। सिर्फ लोकतांत्रिक सरकार का सत्ता में होना और बार बार यह दोहराना कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर्याप्त नहीं है। सरकार का आचरण भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। होने के साथ साथ सरकार का आचरण लोकतांत्रिक दिखना भी चाहिए। कम से कम लद्दाख के मामले में ऐसा नहीं दिखा है। सरकार ने पहले तो इस बात पर ध्यान ही नहीं। सरकार इस भ्रम में रही कि लद्दाख के शांतिप्रिय लोगों की मांग पर ध्यान नहीं दिया जाए तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसी एप्रोच में आंदोलन की अनदेखी की गई। पिछले साल यानी 2024 में दो सितंबर को सोनम वांगचुक के नेतृत्व में लद्दाख के लोगों ने दिल्ली आकर दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की समाधि पर श्रद्धांजलि देने और केंद्र सरकार के सामने अपनी मांगें रखने के लिए सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू की। दिल्ली में उनका स्वागत करने और आगे बढ़ कर उनकी मांगें सुनने और उनको भरोसा दिलाने की बजाय सरकार ने उनकी गिरफ्तारी करा दी। किसी को नरेला थाने में तो किसी को बवाना थाने में कैद कर दिया गया। सोचें, किसी के गांधी की समाधि पर जाने या शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांग प्रस्तुत करने के लिए दिल्ली आने से कैसे खतरा हो सकता है? लेकिन सरकार ने इसे खतरे की तरह प्रस्तुत किया। याद करें कैसे पंजाब और हरियाणा की सीमा पर शंभू व खनौरी बॉर्डर पर बैठे किसानों को दिल्ली मार्च की इजाजत नहीं दी गई थी। पुलिस वाले उनसे दिल्ली जाने का परमिट मांग रहे थे। सोचें, दिल्ली आने के लिए कब से पूर्व अनुमति की आवश्यकता हो गई?

बहरहाल, पिछले दिनों सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक अपने साथियों के साथ अनशन पर बैठे तब भी सरकार ने उनसे बातचीत की पहल नहीं की। सरकार उनके धैर्य को आजमाती रही। नौ सितंबर को अनशन शुरू हुआ लेकिन वार्ता के लिए छह अक्टूबर की तारीख तय की गई। अनशन के दो हफ्ते में कुछ बुजुर्ग लोगों की तबियत बिगड़ी और उनको अस्पताल ले जाया गया, जिसके बाद युवाओं ने सोशल मीडिया के जरिए लोगों से इकट्ठा होने की अपील की और सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया। नागरिकों के धैर्य की परीक्षा ले रही सरकार ने अपना धीरज खो दिया और 24 सितंबर को वह हुआ, जो लद्दाख के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग की, जिसमें चार लोग मारे गए। इसके दो दिन बाद 26 सितंबर को सोनम वांगचुक को देशविरोधी बताते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।

पुलिस की फायरिंग और वांगचुक की गिरफ्तारी को कई किस्म के तर्कों के सहारे जस्टिफाई किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि आंदोलनकारी उग्र हो गए थे और उन्होंने भाजपा कार्यालय में आग लगा दी थी। यह भी कहा जा रहा है कि अगर अनशन कर रहे लोगों की बात मान ली जाएगी और लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल कर लिया जाएगा तो सरकार के हाथ बंध जाएंगे। लद्दाख में रेयर अर्थ मिनरल्स हैं जिनकी खुदाई नहीं हो पाएगी और सुरक्षा का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में भी समस्या आएगी। अव्वल तो यह सब बेहूदा तर्क हैं क्योंकि अब भी कई राज्य छठी अनुसूची में शामिल हैं और कहीं भी सरकार के हाथ नहीं बंधे हैं। लेकिन अगर ऐसी आशंका है तो भी क्या इसका समाधान यह नहीं है कि अनशन कर रहे लोगों से बात की जाए और उनको समझाने का प्रयास किया जाए!

पिछले कुछ समय से सरकार का यह दृष्टिकोण हो गया है कि किसी भी प्रतिरोध या आंदोलन की परवाह नहीं करनी है। अगर नागरिकों का कोई समूह किसी बात की मांग करता है तो उससे बात किए बगैर उसको खारिज कर देना है। सरकार की किसी नीति के खिलाफ अगर आंदोलन होता है तो नीति के विरोध को सरकार और देश का विरोध बता कर आंदोलनकारियों को देशद्रोही बता देना है। सरकार पर सवाल उठाने वालों को विदेशी शक्तियों के हाथों का खिलौना बता देना, सवाल उठाने वाले की साख बिगाड़ने का सबसे आसान तरीका बन गया है। सरकार इस सोच में काम कर रही है कि वह सब कुछ जानती है और देश व नागरिकों के हितों को उससे बेहतर कोई नहीं समझता है। अलग अलग कारणों से नागरिकों का एक समूह सरकार की इस सोच का समर्थन करता है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि कोई भी सरकार या कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता है और न इतना सक्षम हो सकता है कि 140 करोड़ नागरिकों की भावनाओं, उनकी समस्याओं या उनकी आवश्यकताओं को समझ सके।

तभी अगर नागरिकों का कोई समूह कोई मांग उठाता है तो बिना कोई देरी किए उससे बात की जानी चाहिए। संवाद हर समस्या का समाधान है। सरकार की नीयत पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है इसलिए सरकार को नागरिकों या आंदोलन कर रहे समूहों की नीयत को नहीं जज करना चाहिए। उसे सहज रूप से संवाद शुरू करना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा लोगों और समूहों को उस संवाद में शामिल करना चाहिए। खुले दिल दिमाग से उनकी बात सुननी चाहिए और जहां लगे कि सरकार की नीति या फैसला गलत है वहां अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए। ध्यान रहे भारत में या दुनिया के दूसरे देशों में, जहां भी हिंसक आंदोलन हुए हैं वहां असली कारण संवाद की अनुपस्थिति है। सरकारों ने संवाद की जरुरत नहीं समझी और सत्ता की ताकत से जन भावना को दबाने का प्रयास किया। लोकतांत्रिक सरकारों से लोग इसकी अपेक्षा नहीं करते हैं। तभी उनका गुस्सा ज्यादा भड़कता है। उनको लगता है कि उनकी चुनी हुई सरकार उनकी बात कैसे नहीं सुनेगी! संवाद के साथ साथ दूसरी जरुरत यह है कि लोगों की भावनाओं को ट्रिगर करने या उन्हें उत्तेजित करने वाली स्थिति को टालने का प्रयास करना चाहिए यानी ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिससे भावनाएं भड़कें। नेपाल में पहले से पैदा हुई नाराजगी को सोशल मीडिया पर पाबंदी ने भड़काया था। वैसे ही लद्दाख के लोगों की निराशा बुजुर्ग अनशनकारियों के बीमार होने से भड़की। सरकार इस स्थिति को टाल सकती थी।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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