nayaindia Lok Sabha Election Engineer Rashid 'तिहाड़ का बदला वोट से' और प्रेसर कुकर!

‘तिहाड़ का बदला वोट से’ और प्रेसर कुकर!

मैंने कश्मीर को बेहतर समझने वाले एक मित्र से पूछा, “क्या सचमुच इंजीनियर राशिद को मिले वोट भारत के खिलाफ हैं?” उनकी आवाज़ में भी वही तनाव था। उन्होने बिना सकुचाए कहा, “हाँ।”

“आपको पता है, इंजीनियर राशिद को जो 45.7 फीसद वोट मिले हैं, वे दरअसल भारत के खिलाफ हैं।” यह  बताने वाली आवाज़ में तनाव और घबड़ाहट थी।और मेरा दिल मानो बैठ गया, एक अनजाने से डर ने मुझे घेर लिया। बताने वाला जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षाबलों का एक आला अफसर था और मेरे पास उसकी बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था।

फिर, मुझे लगा शायद हम कुछ ज्यादा ही सोच रहे हैं। शायद हम इंजीनियर राशिद की जीत की बाल की खाल निकाल रहे हैं। यह भी तो संभव है कि बारामूला के लोगों को लगा हो कि उमर अब्दुल्ला और उनके खानदान की दादागिरी और हेकड़ी के दिन लद गए हैं। इसलिए उमर अब्दुलाको हराया जाना चाहिए। या शायद यह भी हो सकता है कि लोगों ने भाजपा और उसके आदमी सज्जाद लोन को हराने के लिए वोट डाले हों।

फिर मैंने कश्मीर को बेहतर समझने वाले एक मित्र से पूछा, “क्या सचमुच इंजीनियर राशिद को मिले वोट भारत के खिलाफ हैं?” उनकी आवाज़ में भी वही तनाव था। बिना सकुचाए उन्होंने कहा, “हाँ।”

तो मैं चाहूंगी कि आप भी इस बात को अच्छी तरह से सुन-समझ लें। चार जून को इंजीनियर राशिद उर्फ़ अब्दुल रशीद शेख ने 4.72 लाख वोट हासिल करते हुए बारामूला से उमर अब्दुल्ला, सज्जाद लोन और 22 अन्य उम्मीदवारों को हराकर चुनाव जीता है।

और चार जून को भारत में जब लोकशाही का जश्न मन रहा था तो इंजीनियरक की जीत से घाटी के सुहाने मौसम में अनिश्चितता, आंशका के बादल बने। कश्मीर में आगे क्या होगा? इस सवाल पर जम्मू-कश्मीर का बुद्धिजीवी वर्ग आशंकाग्रस्त है। कई स्थानीय लोग चिंतित हैं। इंजीनियर राशिद की जीत से कश्मीर में  अलगाववादी सोच रखने वालों के बीच मुकाबला शुरू हो सकता है। निराश-हताश इस्लामवादी आन्दोलन को उम्मीद की किरण दिखाई दे सकती है, अलगाववाद फिर सिर उठा सकता है।

इंजीनियर राशिद कोई मामूली इंजीनियर नहीं हैं और ना ही वह अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों और लोन जैसा राजनीतिज्ञ हैं।राशिद वह शख्श हैं जो हमेशा वर्चस्वशाली राजनैतिक नैरेटिव के साथ खड़े रहना पसंद करते हैं। वे एक चतुर राजनीतिज्ञ हैं, जिनका अतीत बहुत साफ़-सुथरा नहीं रहा है। उसमें कई स्याह धब्बे हैं। वे इस समय तिहाड़ जेल में कैद हैं और आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन मुहैया करवाने संबंधी मामले में सुनवाई शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं।

आखिर इंजीनियर राशिद कौन हैं? अगर आप गूगल करेंगे तो आपको ऐसी सामग्री भी मिलेगी जिसमें उनके एक भले और परोपकारी व्यक्ति होने का दावा हुआ मिलेगा। उन्होंने पत्थरबाजी करने वाले युवाओं को इन हरकतों से बाज आने के लिए प्रेरित किया और गोलीबारी बंद करवाई। एक ऐसा नेता जो हवा में नहीं उड़ता बल्कि एक आम आदमी की तरह जीता है और जो जमीन से जुड़ा हुआ है। और यह भी कि उन्हें जीत इसलिए हासिल हुई है क्योंकि लोगों को लगा कि उन्हें  “जनता की गरिमा कायम करने के प्रति उनकी अडिग प्रतिबद्धता”  के कारण जेल में डाला गया है।

लेकिन कश्मीर की जमीनी हकीकत उतनी चमकीली नहीं है, जितना घाटी का नीला आकाश है। और इसी कारण हम बार-बार कश्मीर, वहां के लोगों, उनके दिल की बात और उनके मूड को समझने में असफल रहते हैं।

इंजीनियर राशिद कश्मीर को अलग नजर से देखते हैं।  वे वहां जनमत संग्रह करवाने के जबरदस्त पक्षधर रहे हैं। उनका  नजरिया अलगाववादी और अतिवादी है। द प्रिंट में एक लेख में प्रवीण स्वामी ने राशिद के उदय का लेखाजोखा दिया है। स्वामी बताते हैं कि बात शुरू होती है 1984 में कश्मीरी अलगाववादी मोहम्मद मकबूल बट को फांसी दिए जाने से।तब बट प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था और कहीं न कहीं अब भी बना हुआ है। वह अलगाववादी संगठन नेशनल लिब्रेशन फ्रंट (एनएलएफ) का संस्थापक था जो आज के प्रतिबंधित आतंकी संगठन जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का भाईबंद है। बट को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई और उसकी लाश उसके परिवारजनों को नहीं सौंपी गई,  जिसकी घाटी में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। इससे वहां इस्लामिक अलगाववादी आंदोलन की पहली लहर पैदा हुई।घाटी के लोगों में भारत के खिलाफ गुस्सा था। और उन्हीं में से एक थे इंजीनियर राशिद, जो तब 18 साल के थे।

राशिद ने पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी जम्मू एंड कश्मीर कन्स्ट्रक्शन कारपोरेशन में नौकरी की। लेकिन मन में1984 का घटनाक्रम छाया हुआ था। वे हुरियत के तत्कालीन नेता और सज्जाद लोन के पिता अब्दुल गनी लोन से जुड़ गए। यहीं से सियासी सफ़र शुरू हुआ। सन 2000 के दशक की शुरूआत से घाटी में उनका ग्राफ चढ़ने लगा। उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र लानगेट में फौज द्वारा कथित तौर पर लोगों से जबरन मजदूरी कराए जाने के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। अब्दुल गनी की हत्या के बाद राशिद उनके पुत्र सज्जाद लोन के साथ हो लिए (इन दिनों सज्जाद को भाजपा का सहयोगी माना जाता है) और माना गया कि वे 2008 में चुनावी राजनीति में कूदेंगे। लेकिन अमरनाथ भूमि विवाद आंदोलन के बाद सज्जाद का इरादा बदला तो राशिद ने अलग रास्ता अख्तियार करते हुए आज़ाद उम्मीदवार बतौर विधानसभा चुनाव लड़ा। वे लानगेट से 2008 में और फिर 2014 में जीते।

उनकी जीत से सज्जाद लोन और उनके बीच में कंपीटिशन बढ़ा। कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीति में राशिद का दबदबा भी बढ़ा। सन् 2016 में राशिद ने आतंकवादी बुरहान वानी की तारीफ की, संसद पर हुए हमले के सिलसिले में फांसी पर चढ़ाए गए अफजल गुरू का शव कश्मीर लाने की मांग करते हुए अभियान चलाया और श्रीनगर के विधायक होस्टल के लान में बीफ कबाब परोसकर गौमांस पर लगे सरकारी प्रतिबंध का विरोध दर्ज किया।ध्यान रहे यह प्रतिबंध 1862 में डोगरा शासकों द्वारा लगाया गया था।राशिद ने आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत बेजा गिरफ्तारियों के खिलाफ अभियान चलाए, जिससे तब सरकार उनसे बेहद नाराज़ हो गई थी।

सन् 2019 में एनआईए (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) ने उन्हें दिल्ली तलब किया और मनी लोंड्रिंग के मामले में गिरफ्तार कर लिया। चूंकि वे अभी तक मुलजिम हैं, मुजरिम नहीं इसलिए इस चुनाव में निर्वाचन आयोग ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उनका परचा मंज़ूर कर लिया।

तह दिल्ली और श्रीनगर में बहुत से लोगों का मानना था कि राशिद कतई चुनाव जीत नहीं सकते।और यह तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि राशिद की इतनी जबरदस्त जीत होगी और वे भविष्य की चिंता का सबब बन जाएंगे।कहते है उनका नामांकन पत्र नामांकन के आखिरी दिन अटका हुआ था। दोपहर 3 बजे तक उसके रद्दी की टोकरी के डाले जाने का कयास था। लेकिन आखिरी क्षण अचानक उनका परचा मंज़ूर हुआ। और जो चुनावी मुकाबला उमर अब्दुल्ला बनाम सज्जाद लोन के बीच सीधी लड़ाई का माना जा रहा था, वह त्रिकोणीय और अनिश्चित हो गया।

राशिद तिहाड़ जेल में ही रहे और उनका चुनाव प्रचार उनके दो वेटे अबरार रशीद (23) और असरार रशीद (21) ने किया। इस विधानसभा क्षेत्र का कवरेज करने वाले स्थानीय पत्रकारों के अनुसार दोनों लड़के अनुच्छेद 370 के बारे में चुप्पी साधे रहे।इन्होंने चुनाव में आम तौर पर उठाए जाने वाले मुद्दों – रोटी, सड़क, मकान – के बारे में भी कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्होंने मतदाताओं से केवल ‘भावनात्मक अपील’ की।इनके चुनाव अभियान का नारा था ‘तिहाड़ का बदला वोट से’।अबरार रशीद के अनुसार चुनावी अभियान पर केवल 27,000 रूपये खर्च हुए, और  वह भी केवल पेट्रोल-डीजल पर।

स्थानीय पत्रकारों और चश्मदीदों के अनुसार 20 मई को मतदान के दिन 70-80 वर्ष के बुज़ुर्ग यह कहते हुए सुने गए कि “ऐसा सैलाब तब देखा था जब शेख अब्दुल्ला जेल से बाहर आए थे”। बारामूला में 58 प्रतिशत मतदान हुआ जो दिल्ली और उत्तरप्रदेश से ज्यादा था।

भारी मतदान के प्रतिशत पर खूब ढोल-ढमाके बजे। सत्ताधारी भाजपा के नेताओं ने सोशल मीडिया पर “कश्मीर में लोकतंत्र के मजबूत होने”  की सराहना की। और उन लोगों को आड़े हाथ लिया जो कश्मीर को ऐसा राज्य बताते थे जिसमें लोग आजादी से महरूम हैं।

लेकिन जैसा कि हरिशंकर परसाई ने ठीक ही कहा था, अंधभक्त होने के लिए प्रचंड मूर्ख होना अनिवार्य शर्त है।

इसलिए राशिद की जीत मानो नजरअंदाज। मेरा मानना है ऊपर से सब ठिक है लेकिन2019 के बाद से कश्मीर घाटी एक प्रेशर कुकर में है – वह भी एक ऐसे प्रेशर कुकर में जिसमें भाप के बाहर निकलने की कोई व्यवस्था ही नहीं है- जिसमें सीटी ही नहीं है। जाहिर है पिछले हफ़्तों, महीनों और सालों में यह कुकर गर्म और गर्म होता जा रहा था और उसके अंदर दबाव लगातार बढ़ता हुआ है। ऐसे में उसे चाहिए था एक सेफ्टी वाल्व, एक सीटी, जो उसके अन्दर का दबाव और गर्मी कम करे। इंजीनियर राशिद ने यही भूमिका अदा की। उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और उनका चुनाव निशान भी था कुकर!

राशिद की जीत में सहानुभूति की भी भूमिका रही लेकिन जिस बात का सबसे ज्यादा असर हुआ वह थी गुजरे वक्त की बाते और यादें।‘तिहाड़ का बदला’  नारे से प्रेशर कुकर का ढक्कन जहा हटाहै और आक्रोश और नाराज़गी की भाप बाहर निकल आई है लेकिन इसके बाद?

एक तरह से, बारामूला के नतीजे भी उत्तर प्रदेश जितने ही अचंभित करने वाले हैं। अब्दुल्ला और सज्जाद लोन (जो दरअसल भाजपा ही हैं) की हेकड़ी तो निकली ही, लोगों का गुस्सा भी सामने आया।जिन लोगों ने सोचा था कि त्रिकोणी लड़ाई से सज्जाद लोन का जीतना आसान होगा वे बुरी तरह गलत साबित है।

कश्मीर एक जटिल प्रदेश है। यह एक पहेली है, जिसे सुलझाना आसान नहीं है। ऐसे कई नैरेटिव हैं जो बहुत मजबूत हैं, ध्यान खींचने वाले हैं मगर वे इस पहेली में फिट नहीं बैठते। आप कभी यह नहीं बता पाते कि है असली कश्मीर क्या है। पहेली का एक टुकड़ा दूसरे में फिट हो जाता है, तो तीसरा कहीं फिट नहीं होता। कश्मीर को समझना मुश्किल है, भविष्य में वहां क्या होगा, यह अंदाज़ा लगाना और मुश्किल है। इंजीनियर राशिद की जीत ने इस पहेली को नए सिरे से कठिन और आंशकाओं वाला बनाया है। प्रश्न हैं, अनिश्चिताएं हैं और हर प्रश्न नए प्रश्नों को जन्म देता है और हर अनिश्चितता नयी अनिश्चितताओं को।

तभी सवाल है क्या कारण है जो इंजीनियर राशिद का नामांकन पत्र, आखिरी तारीख़ को आखिरी मिनट में स्वीकार किया गया? क्या उमर अब्दुल्ला की हार सुनिश्चित करना इतना ज़रूरी था कि उसके लिए घाटी की सुख-शांति को दांव पर लगाया गया? इंजीनियर राशिद की टोली को चुनाव खर्च किसने उपलब्ध करवाया? किसने उसकी चुनाव लड़ने की हिम्मत बढाई? इंजीनियर की इस जीत के बाद राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा? ध्यान रहे बारामूला की लोकसभा सीट की 18 विधानसभा सीटों में से 14 सीटों में राशिद की बढ़त थी? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या घाटी में राजनीति वापिस पहले जैसी हो जाएगी? क्या राशिद आतंकवाद की राजनीति छोड़ेंगे, क्या वे अलगाववाद की विचारधारा छोड़ेंगे, क्या वे जनमत संग्रह की मांग करना बंद करेंगे, क्या वे बीफ पर राजनीति बंद करेंगे?

इन सारे सवालों का जवाब समय ही बताएगा।

एक जानकार कश्मीरी को आंशका हैं कि घाटी में और इंजीनियर राशिद पैदा होंगे।आने वाले विधानसभा चुनावों में जेल से परचा भरने वालों की तादाद बढ़ जाएगी। जिनसे भी मैंने बात की, सभी का कहना था कि राशिद की जीत कश्मीर में अलगाववादी राजनीति की शुरुआत हो सकती है।

यह सब कुछ न होने की एक ही सूरत हो सकती है –  इंजीनियर राशिद की जीत जितनी अप्रत्याशित थी, जीत के बाद उनका व्यवहार भी उतना ही अप्रत्याशित हो।वह तिहाड़ से छूट कर नए कश्मीर के तराने गाएं!

मगर अभी के लिए तो खतरे की घंटियाँ हैं। चार जून के बाद से, कश्मीर को जानने-समझने वाले कई लोग भारत सरकार को चेतावनी दे चुके हैं कि कश्मीर फिर से अलगाववाद के रास्ते पर जा सकता है। यह हो सकता है कि कश्मीर में “आल चंगा सी’ का नैरेटिव झेलम नदी में बहता नज़र आये।

लोगों ने अपना मन बता दिया है – और उत्तरी कश्मीर में काफी जोर से, जो चिंता का कारण है। गेंद अब नई दिल्ली के पाले में है। रियासी जिले में नौ जून का आतंकी हमला कहीं आने वाले दिनों की पदचाप तो नहीं? सरकार को समझना चाहिए कि उसके पास ज्यादा वक्त नहीं है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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