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दीवाली क्यों अपनी ख़ुशी के लिए माफ़ी मांगे?

हर साल, घड़ी की तरह, हंगामा फिर शुरू है। दीया बुझा भी नहीं होता कि नसीहत, प्रवचन बरसने लगे हैं। हवा के प्रदूषण के एक्यूआई (AQI) चार्ट टाइमलाइन पर आ गए हैं। नैतिक भाषण पैनलों पर भर जाते हैं, और वही परिचित एलिट- अभिजात वर्ग का कोरस फिर मंच पर है। हर दिन बढ़ता शोर — उन पटाखों से भी ज़्यादा जिन पर वे आपत्ति करते हैं। क्यों दीवाली इतनी ज़ोरदार होनी चाहिए? इतनी धुँधली? इतनी “प्राचीन”? क्यों यह बस दीये जलाने, एक छोटी-सी प्रार्थना करने, घर के भीतर ताश खेलने और एयर प्यूरीफ़ायर के नीचे ऑर्गेनिक वाइन पीने भर तक में सीमित नहीं हो सकती?

क्यों खुशी को अब सलीकेदार, सीमित, संयमित और कार्बन-न्यूट्रल होना चाहिए? मैं जब इस “आक्रोश” की स्क्रॉलिंग करती हूँ, तो बस आँखें घुमाती हूँ.

क्योंकि ये आलोचक और आत्मघोषित नैतिक प्रहरी जो है वे नहीं समझते कि दीवाली कोई “एस्थेटिक” नहीं, एक माहौल, उमंग है। यह कोई ड्रॉइंग रूम के कोने में रखी सोया कैंडल या फेयरी लाइट्स का मूडबोर्ड नहीं, बल्कि वह त्योहार है जो रसोई, आँगन, सड़क और स्मृति में बह निकलता है। यह सिर्फ़ दीया जलाने का नहीं, बल्कि एक-दूसरे को रोशन करने का उत्सव है, उस थकान को उजाला देने का जो पूरे साल जीवन की भागदौड़ में धुँधली पड़ जाती है।

पर भारत में, दीवाली अब ख़ुशी नहीं, गुनाह बन गई है। रोशनी का पर्व नैतिक अंधकार का निशाना बन गया है। यह प्रश्न बार-बार लौट आता है, क्यों दीवाली को अपनी ख़ुशी के लिए माफ़ी माँगनी पड़ती है?

कोई और देश अपने उत्सवों में अपराध बोध नहीं पालता। अमेरिका में, फोर्थ ऑफ जुलाई पर आसमान पटाखों से दहकता है, ग्रिल्स जलती हैं, बीयर बहती है, और आधी रात के बाद तक आतिशबाज़ी गूँजती रहती है। चीन में लूनर न्यू ईयर पूरे शहरों को आग और रोशनी के प्रतिध्वनि कक्ष में बदल देता है, किसी को PM2.5 की परवाह नहीं। ब्रिटेन में बॉनफ़ायर नाइट पर बच्चे धुएँ से ढकी ठंड में खुशियाँ मनाते हैं। यहाँ तक कि मध्य पूर्व में भी शादियाँ आतिशबाज़ी और गनपाउडर से रंगीन होती हैं। कहीं कोई याचिका नहीं, न ही कोई नैतिक व्याख्यान मिलेगा।

पर भारत में, दीवाली को “संयमित” होना पड़ता है, बहस, विश्लेषण और नियंत्रण में बँधा हुआ। यहाँ शोर असभ्यता है, और उत्सव “अतिरेक”। एक ऐसा त्योहार, जो प्रकाश और ध्वनि से बना है, उसका सार ही फिर से लिखा जा रहा है। हमें कहा जा रहा है पटाखे छोड़ो, फेयरी लाइट्स अपनाओ; समुदाय छोड़ो, सावधानी अपनाओ; आनंद छोड़ो, अपराधबोध अपनाओ। मानो दीवाली कोई परंपरा नहीं, बल्कि किसी “लाइफ़स्टाइल ब्रांड” का नया कलेक्शन हो।

और सबसे विचित्र यह कि यह नफ़रत बाहर से नहीं, भीतर से आ रही है। अपने ही लोगों — अपने ही धर्मावलंबियों की जुबानी।

अपने ही पर्व का उपहास करना शर्म की बात है। उसके स्वर, उसके प्रतीक, उसके दिल की धड़कन का मज़ाक उड़ाना। वही बुद्धिजीवी जो “हर चीज़ को राजनीति मत बनाओ” कहते हैं, सबसे पहले दीवाली को ही राजनीतिक अखाड़ा बना देते हैं, नैतिकता बनाम आनंद, पर्यावरण बनाम संस्कृति। उनके लिए परंपरा अब एक बुरी आदत है, दीवाली अब एक शर्म है, जिसे ‘मैनेज’ करना चाहिए, मनाना नहीं। पर वे यह भूल जाते हैं दीवाली सिर्फ़ एक प्रदर्शन नहीं, एक सामाजिक गोंद है। एक ऐसे देश में जहाँ परिवार ज़मीन-जायदाद, व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड्स और डिनर टेबल की राजनीति पर टूटते हैं, दीवाली एक दुर्लभ ठहराव बन जाती है। यह वह एक सप्ताह है जब सब मिलकर थोड़ा-थोड़ा साथ निभा लेते हैं अव्यवस्थित, अपूर्ण, पर सच्चा। सफाई सामूहिक हो जाती है। सजावट लोकतांत्रिक। पति तोरण लगाते हैं, किशोर फेयरी लाइट्स सुलझाते हैं, माएँ पकवान बनाती हैं, दादा-दादी मिठाई पर नज़र रखते हैं। मनमुटाव रुकते हैं, भूमिकाएँ बदलती हैं, और प्रवचन की जगह आ जाता है साझा श्रम का संतुलन। फिर वह क्षण आता है —लक्ष्मी पूजन, दीयों की कतार, तेल और घी की मिली खुशबू, नए कपड़ों की चमक, चुराई हुई पूड़ी, आसमान की ओर बढ़ता पहला फूलझड़ी का उजाला। और जब पटाखे फूटते हैं, वह विद्रोह नहीं, आमंत्रण होता है दवताओं के लिए, स्मृति के लिए, प्रकाश के लिए।

फिर भी, हर साल दीवाली कटघरे में खड़ी होती है। जबकि निर्माण कामों की धूल हमारे शहरों को घोंटती होती है, और खेतों में पराली की आग मैदानों को धुएँ में ढक देती है, फिर भी दोष दीवाली का होता है। वही सेलिब्रिटी जो “टॉक्सिक स्काईज़” की पोस्ट डालते हैं, कभी डीज़ल धुएँ, अवैध निर्माण या आसमान खरोंचती 40-मंज़िला इमारतों पर चुप नहीं रहते। वे पंजाब के जलते खेतों पर ट्वीट नहीं करते। सड़कों के गड्ढों या धूल के बादलों पर याचिका नहीं डालते। पर दीवाली को जवाब देना होता है।

क्योंकि शहरी भारत में सामूहिक खुशी अब संदिग्ध बन चुकी है। विशेषकर तब जब यह खुशी हिंदू पंचांग के सबसे बड़े त्योहार से जुड़ी हो,

तो वह “राजनीतिक” करार दी जाती है। जो सांस्कृतिक उत्सव होना चाहिए था, वह अब “सेक्युलर बनाम सांप्रदायिक” की बहस में बदल गया है। कहा जाता है, दीवाली “बहुत धार्मिक” है, “बहुत सनातनी” है, “बहुत ज़्यादा” है। पर क्या दीया जलाने, मिठाई बाँटने या आसमान रोशन करने के लिए अब विचारधारा का सर्टिफिकेट चाहिए? क्यों त्योहार मनाना अपराध बन गया है? क्यों किसी भी धर्म की आस्था अब अपराधबोध में लिपटी है?

मुद्दा सिर्फ़ प्रदूषण नहीं, यह भी है कि कौन और कैसे जश्न मना सकता है। जब दीवाली गली-मोहल्लों तक फैलती है —रोशनी, रंग और ध्वनि के साथ  तो वह “असभ्य” कही जाती है। पर वही अगर डिज़ाइनर अपार्टमेंट में सुगंधित मोमबत्तियों और साइलेंट पार्टियों तक सीमित रहे, तो वह “सुसंस्कृत” कहलाती है। यही नई नैतिकता बन रही है आयातित, नकली और भावनाशून्य। जहाँ त्योहार होटल लॉबी जैसे लगने चाहिए- शांत, सुगंधित और राजनीतिक रूप से निष्प्रभावी। धीरे-धीरे भावनाओं की पाश्चात्यकरण हो रहा है जहाँ आनंद मिनिमलिस्ट होना चाहिए,

और आस्था — माफ़ी माँगती हुई। “धीरे बोलो, हल्का जलाओ, चुप रहो।” क्योंकि ज़ोर से मनाना अब “प्राचीन” है,

या और भी बुरा, “राजनीतिक।”

पर दीवाली कभी “सभ्य” नहीं रही, वह प्रखर रही है। वह दहकती है, गूँजती है, जलती है। सुतली बम का धमाका प्रदूषण नहीं, जीवन का ऐलान है उत्सव और अस्तित्व दोनों का। और आज के भारत में, अस्तित्व का उत्सव ज़ोर से मनाया जाना चाहिए।

दिल्ली की हवा संकट में है, पर यह एक रात का नहीं, पूरे साल का अपराध है। फरवरी में कहाँ होता है यह आक्रोश? अगस्त में कहाँ हैं ये आँकड़े? क्यों सिर्फ़ यह त्योहार जवाबदेह है? क्योंकि इस दौर में, परंपरा को सुधारने से आसान है उसे रद्द कर देना। क़ानून बनाना मुश्किल है, प्रवचन देना आसान। प्रणाली बदलना कठिन है, पर खुशी को शर्मिंदा करना सरल।

दीवाली कभी नियंत्रण में रहने के लिए नहीं बनी थी। वह जली थी, भभकने के लिए। धुएँ, प्रवचनों और चयनात्मक आक्रोश के बीच अपना उजाला दिखाने के लिए। क्योंकि चाहे हवा कितनी भी भारी हो, प्रकाश फिर भी रास्ता बना लेता है। और यही दीवाली की सबसे सच्ची परिभाषा है — एक रोशनी जो देखे जाने पर अड़ी रहती है।

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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