तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी दिल्ली में विदेश मंत्री एस जयशंकर से मिलने और प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद दारूल उलूम देवबंद गए। मुस्लिमों का बड़ा इदारा है देवबंद, जहां मुत्तकी का भव्य स्वागत हुआ। मुत्तकी अपने इस स्वागत से अभिभूत थे। हजारों की संख्या में देवबंद के छात्र उनके स्वागत के लिए इकट्ठा थे। वे उनकी एक झलक देखना चाहते थे, छूना चाहते, उनके नजदीक जाना चाहते थे। पुलिस को भीड़ दूर रखने के लिए भड़ी मशक्कत करनी पड़ी और एक समय जोर जबरदस्ती भी करनी पड़ी। देवबंद में भी मुत्तकी से बात करने के लिए सिर्फ पुरुष पत्रकार चुने गए। महिला पत्रकारों को दूर रखा गया। वहां उनको परदे में रहने का प्रस्ताव दिया गया। सोचें, दिल्ली में अफगानिस्तान का दूतावास भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है लेकिन क्या देवबंद भी भारत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है? दूसरा सवाल यह है कि क्या देवबंद में भी अफगानिस्तान दूतावास से वही गलती अनजाने में हो गई, जो दिल्ली में हुई थी?
जाहिर है को न दिल्ली में जो हुआ वह अनजाने में हुआ और न देवबंद में कुछ अनजाने में हुआ। सब तालिबान के धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हुआ। दिल्ली में भारत सरकार ने साथ दिया तो देवबंद में मदरसे के प्रबंधकों ने सहय़ोग किया। तालिबानी विदेश मंत्री को देख कर जिस तरह से मदरसे के छात्र और मौलाना आह्लादित हो रहे थे वह भी एक इशारा है और जिस तरह से महिला पत्रकारों को परदे में रहने को कहा गया और जो प्रतिक्रिया हुई वह भी एक इशारा है। शनिवार को पूरे दिन देवबंद में जो हुआ उससे यह जाहिर हुआ कि तालिबानी मूल्य स्वीकार करने में मुस्लिमों के एक बड़े समूह को कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि वह इसके लिए तैयार बैठा है। सोचें, कितने देशों को मुस्लिम नेता भारत आते हैं क्या उनको लेकर ऐसी दीवानगी दिखती है? क्या किसी मुस्लिम ने एक दिन भी इसकी खोज खबर लेने का प्रयास किया कि बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत में कहां हैं? उनके पक्ष में या बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के खिलाफ कहीं से कोई मुस्लिम आवाज आई? लेकिन तालिबान के विदेश मंत्री आए तो देवबंद भी गए और उनके लिए दीवानगी भी दिखी और उनके मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता भी दिखी।