प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण और रोजगार संबंधी कई बड़े वादे कांग्रेस ने किए हैं। मगर ये वादे तब अधिक विश्वसनीय बनते, अगर इनके साथ ही इन पर आने वाले खर्च और उसके लिए संसाधन जुटाने की योजना का विवरण भी पेश किया जाता।
कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र को- जिसे उसने न्याय पत्र नाम दिया है- देश के लिबरल खेमे से खूब तारीफ मिली है। सामान्यतः मध्य वर्ग से आना वाला यह तबका नरेंद्र मोदी के शासनकाल में नागरिक स्वतंत्रताओं, अभिव्यक्ति की आजादी, और प्रगतिशील समझे जाने वाले एजेंडे पर हुए प्रहार से विचलित है।
कांग्रेस ने इन मुद्दों पर मोदी काल से पहले वाली स्थिति बहाल करने का वादा किया है। लिबरल तबकों में जातीय पहचान आधारित गोलबंदी को ही इंसाफ का एकमात्र रास्ता मानने की सोच गहराती चली गई है। चूंकि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने न्याय की इस समझ को गले लगा लिया है, इसलिए इससे भी उन तबकों में कांग्रेस के प्रति आकर्षण बढ़ा है।
मगर असल सवाल यह है कि जातीय जनगणना, आरक्षण की 50 की सीमा को खत्म करने और निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान करने के वादे से जिन जातियों को गोलबंद करने की आशा की गई है, क्या वह सचमुच हो पाएगा? हकीकत यह है कि जातीय पहचान और प्रतिनिधित्व देने की होड़ में भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे निकल चुकी है।
दरअसल, इस होड़ में उतरने में कांग्रेस काफी देर कर चुकी है। इसके अलावा प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण और रोजगार संबंधी कई बड़े वादे कांग्रेस ने किए हैं। मगर ये वादे तब अधिक विश्वसनीय बनते अगर इनके साथ इन पर आने वाले खर्च और उसके लिए संसाधन जुटाने की योजना का विवरण भी पेश किया जाता। इसके अलावा घोषणापत्र की साख को लेकर दो और समस्याएं हैं। ये तमाम वादे कांग्रेस के हैं। जबकि विपक्ष की सरकार बनी भी तो वह इंडिया गठबंधन की होगी।
क्या पूरा गठबंधन इन वादों को निभाने के लिए वचनबद्ध होगा? दूसरी चुनौती वादों को आम मतदाताओं तक पहुंचाने की है। आज के प्रतिकूल मीडिया वातावरण के बीच ऐसा तभी हो पाता, अगर कांग्रेस के पास प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की फौज होती। आज की स्थिति में वह इसके लिए पूरी तरह सोशल मीडिया और नेताओं की रैली पर निर्भर है। इसलिए यह कहना कठिन है कि कांग्रेस के वादों को लेकर प्रगतिशील-उदारवादी खेमों जैसा उत्साह आम मतदाताओं में भी पैदा हो पाएगा।