जब आर्थिक अवसर सबके लिए घटते हैं, तो हाशिये पर के समुदाय उससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। इसलिए कि सीमित अवसर वे लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें बेहतर शिक्षा मिली होती है और जिनके पास तकनीकी कौशल होता है।
शोरगुल पर यकीन करें, तो यह दलित-बहुजनवादी राजनीति का वर्चस्व काल है। बिना किसी अपवाद के, सभी राजनीतिक दल इस सियासत का झंडाबरदार बनने की होड़ में आज शामिल हैँ। यह दौर कम-से-कम दो दशक से परवान चढ़ा हुआ है। इसलिए यह सवाल पूछने का अब वाजिब वक्त है कि इससे असल में दलित-पिछड़ी जातियों को क्या हासिल हुआ है? यह सवाल उठाने का ताजा संदर्भ मुंबई में हुआ एक सर्वेक्षण है। सर्वेक्षणकर्ताओं के मुताबिक उन्होंने इस अध्ययन के लिए मुंबई को इसलिए चुना, क्योंकि इस महानगर के बारे में आम धारणा है कि वहां रोजगार के अवसर ज्यादा हैं, प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत ज्यादा है, और वहां रहने वाले लोगों का जीवन स्तर बेहतर है।
तो इस सर्वेक्षण में देखा गया कि मुंबई के दलित बाशिन्दों की माली जिंदगी कैसी है। कहानी यह सामने आई कि गुजरे दशकों में इस महानगर में दलितों के लिए आर्थिक अवसर सिकुड़ते चले गए हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने गांव छोड़ो अभियान चलाया था। उसके तहत बड़ी संख्या में दलित मुंबई आकर बसे थे। लेकिन आज दो पीढ़ियों के बाद भी वे सुविधाविहीन बस्तियों में रहने को मजबूर हैं। उनकी जिंदगी में कोई खास प्रगति दर्ज नहीं हुई है। ये निष्कर्ष दरअसल यह बताते हैं कि आर्थिक अवसरों का संबंध आर्थिक नीतियों से है। जब ये अवसर सबके लिए घटते हैं, तो हाशिये पर के समुदाय उससे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
इसलिए कि सीमित अवसर वे लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें बेहतर शिक्षा मिली होती है और जिनके पास तकनीकी कौशल होता है। लेकिन ये बातें आज के राजनीतिक विमर्श में सिरे से गायब हैं। इसी हफ्ते मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से एक इंटरव्यू के दौरान जब जातीय जनगणना के बारे में पूछा गया, तो उनका उत्तर था- ‘संभव है कि यह ऐसा कार्य हो, जो विचारणीय हो। लेकिन भारत में जरूरत आज इस बात की है कि बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और लैंगिक समता सुनिश्चित कर वंचित तबकों का अधिक सशक्तीकरण किया जाए।’ जो लोग सचमुच गरीब और दलित-बहुजन का कल्याण चाहते हैं, वे चाहें, तो इस सलाह पर ध्यान दे सकते हैं।