सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निर्वाचन आयोग का नजरिया निष्कासन के बजाय समावेशन होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि एसआईआर के बाद बिहार की मतदाता सूची का प्रारूप जारी करते समय आयोग ने ये सलाह सुनी है।
मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को एक महत्त्वपूर्ण सलाह दी। कोर्ट ने कहा कि आयोग का नजरिया निष्कासन के बजाय समावेशन होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि एसआईआर के बाद बिहार की मतदाता सूची का प्रारूप जारी करते समय आयोग ने न्यायालय की सलाह सुनी है। यह प्रारूप 65 लाख से ज्यादा नाम काटते हुए तैयार किया गया है। आयोग ने कहा है कि अब बिहार के सभी मतदाता आयोग के पोर्टल पर जाकर अपने नाम की तलाश करें। अगर नाम लापता है, तो फिर आयोग की तरफ से तय दस्तावेजों को पेश करते हुए अपना दर्ज कराने की अर्जी दें। जो नए मतदाता अक्टूबर तक 18 साल के हो जाएंगे, उन्हें भी ऐसी ही सलाह दी गई है। इसका अर्थ है कि अगर आप अपना मताधिकार पाना चाहते हैं, तो इसके लिए जरूरी प्रयास करना आपका दायित्व है।
यह नजरिया समावेशन का नहीं है। समृद्ध और जीवंत लोकतंत्र वह होता है, जहां अपने अधिकार का उपयोग करने के लिए व्यक्तियों को सक्षम बनाने का दायित्व राज्य या संवैधानिक संस्थाएं अपने कंधों पर लेती हैं। भारत के गरीब और आधुनिक सुविधाओं से वंचित व्यक्तियों से यह अपेक्षा करना अभिजात्य नजरिए का सूचक है कि लोग खुद वोटर लिस्ट में अपना नाम दर्ज की जद्दोजहद में जुटेंगे।
एसआईआर के क्रम में आयोग ने आधार कार्ड को प्राथमिक दस्तावेज ना मान कर भी ऐसे ही नजरिए का परिचय दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त टिप्पणी की, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे भी ऐसे नजरिए का आभास हुआ होगा। उस पर ध्यान ना देकर निर्वाचन आयोग ने यही संकेत दिया है कि एसआईआर के मामले में वह कोई सलाह सुनने को तैयार नहीं है। ना ही वह इस प्रक्रिया से आशंकित विपक्षी दलों से संवाद करने को तैयार है। जाहिर है, उसे इस प्रक्रिया में निर्वाचन से जुड़े सभी हितधारकों का विश्वास हासिल करने की तनिक भी चिंता नहीं है। यह चिंताजनक स्थिति है। इसका परिणाम भारत की चुनाव प्रक्रिया में अविश्वास का बढ़ना होगा, जो एक अशुभ घटना होगी।