इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स की सामने आती सच्चाई के साथ भारत में राजनीतिक चंदे की लगातार अपारदर्शी होती गई परिघटना के साथ-साथ राजनीति पर कॉरपोरेट घरानों के कसते गए शिकंजे का भी परदाफाश हो रहा है। जाहिर है, उससे उद्योगपति असहज हैं। electoral bonds supreme court
उद्योगपतियों के बड़े संगठन यह गुहार लगाने सुप्रीम कोर्ट गए कि वह इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के नंबर सार्वजनिक करने का आदेश भारतीय स्टेट बैंक को ना दे। चूंकि फिक्की, सीआईआई और एसोचैम बिना जरूरी प्रक्रियाएं पूरी किए अर्जी लेकर अदालत पहुंच गए थे, इसलिए न्यायालय ने अर्जी को तुरंत ठुकरा दिया। बहरहाल, इन संगठनों के एतराज पर गौर करना महत्त्वपूर्ण है। उनके प्रवक्ताओं ने मीडिया से बातचीत में इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के मामले में पारदर्शिता पर मुख्य रूप से दो एतराज उठाए हैं। electoral bonds supreme court
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एक यह कि चूंकि मूल कानून में प्रावधान था कि चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रहेगी, इसलिए बाद में उसे सार्वजनिक करना एक तरह का विश्वासघात है। इस तर्क को खींचते हुए इन संगठनों यहां तक कहा है कि फैसलों को पिछली तारीख से लागू करने से विदेशी निवेशकों का भी भारत में भरोसा टूटेगा। उनकी दूसरी दलील है कि उन्होंने जिसे चंदा दिया, यह सार्वजनिक होने पर उसकी विरोधी पार्टी उनसे नाराज हो जाएगी। ये दोनों तर्क सिरे से निराधार हैं। यह मुद्दा किसी आर्थिक नीति से संबंधित नहीं है, जिसमें पिछली तारीख से बदलाव लागू किया जा रहा हो।
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आखिर भारत में राजनीतिक चंदे से जुड़े विवाद से विदेशी कंपनियां क्यों भयभीत होंगी? फिर इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स में ऐसा प्रावधान था, जिसमें केंद्र सरकार को सब कुछ मालूम रहता था। ऐसे में दूसरे पक्ष या आम जन को अंधेरे में रखना क्या न्यायपूर्ण है? दरअसल, यह अनुमान लगाने का ठोस आधार है कि कंपनियां यह सामने की संभावना से डरी हुई हैं कि उन्होंने राजनीतिक दलों को चंदा देकर क्या फायदे हासिल किए? इससे उद्योग जगत और राजनीति के नापाक गठजोड़ पर से परदा हटेगा।
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इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स की सामने आती सच्चाई के साथ भारत में राजनीतिक चंदे की लगातार गड्डमड्ड होती गई परिघटना के साथ-साथ राजनीति पर कॉरपोरेट घरानों के कसते गए शिकंजे का भी परदाफाश हो रहा है। उद्योगपति इससे असहज हैं। अब चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक को इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के अल्फा-न्यूमेरिक नंबरों को भी सार्वजनिक करने का आदेश दे दिया है, तो जाहिर है, उससे राजनीतिक दलों के साथ-साथ उद्योगपतियों की असहजता भी और बढ़ने वाली है।