भारत में पाकिस्तान को लेकर जो समझ है, स्पष्टतः बाकी दुनिया उससे इत्तेफ़ाक नहीं रखती। इसलिए भारत के राजनीतिक नेतृत्व को देश की रणनीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। वैश्विक प्रतिक्रिया पर सिर्फ अफसोस या गुस्सा जताना काफी नहीं होगा।
हालिया घटनाओं का संकेत है कि भारत में पाकिस्तान को लेकर जो समझ है, उससे बाकी दुनिया इत्तेफ़ाक नहीं रखती। वरना, पाकिस्तान को आतंकवाद से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की दो समितियों में महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी जाती। उनमें आतंकवाद विरोधी समिति का गठन तो 9/11 के बाद हुआ था, जिसका मकसद आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक रणनीति में तालमेल बनाना है। दूसरी समिति तालिबान से संबंधित है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान का समर्थक चीन शामिल है, मगर इसके स्थायी सदस्यों में “भारत का आजमाया हुआ दोस्त” रूस और “नए दोस्त” अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन भी हैं। अस्थायी सदस्यों में पाकिस्तान को छोड़ दें, तो नौ अन्य देश वहां मौजूद हैं।
उनमें से किसी ने पाकिस्तान के नाम पर आपत्ति नहीं जताई और दुनिया के किसी अन्य हलके से भी उसका विरोध नहीं हुआ, तो भारत के पूरे राजनीतिक नेतृत्व को देश की रणनीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। इस पर सिर्फ अफसोस या गुस्सा जताना पर्याप्त नहीं होगा- ना ही भारत के अंदर इस प्रचार अभियान को तेज करना कि बाकी देश आतंकवाद से समझौता कर रहे हैं। सवाल है कि पहलगाम हमले के लिए पाकिस्तान को दोषी बताने की भारत की मुहिम का असर विदेशों में क्यों नहीं हुआ है? मुद्दा गंभीर है। अगर बाकी देश पहलगाम हमले के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार नहीं मानते।
तब फिर अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी निगाह में सिंधु जल संधि को निलंबित करना और ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयां संभवतः जायज नहीं होंगी। आखिर पहलगाम हमले का दंड देने के लिए ही भारत ने ये कदम उठाए। मतलब यह कि इस पूरे प्रकरण में भारत के कथानक को दुनिया के किसी हिस्से में स्वीकार नहीं किया गया है। इस बारे में हम सिर्फ अटकलें ही लगा सकते हैं कि यह दुनिया में बदले समीकरणों का नतीजा है या आतंकवाद के प्रति नरम हुए रुख का। मगर जो भी हो, यह घटनाक्रम भारत के लिए चिंताजनक है, जिस पर गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है। स्पष्टतः मौजूदा रणनीति कारगर नहीं हुई है। ऐसे में नई रणनीति पर राष्ट्रीय आम सहमति बनाई जानी चाहिए।