मणिपुर में समस्या सिर्फ कानून-व्यवस्था की नहीं है। बल्कि ये सामाजिक स्तर पर चौड़ी होती गई खाई का परिणाम हैं। आरोप यह है कि सामुदायिक आधार पर अविश्वास की खाई को बढ़ाने में सत्ताधारी भाजपा के समर्थकों की भी भूमिका रही है।
मणिपुर में हिंसा भड़के एक साल पूरा होने जा रहा है। पिछले वर्ष मई के पहले सप्ताह में वहां हिंसा की शुरुआत हुई थी। अब तक इस पर लगाम लगने को कोई संकेत नहीं है। बीते शनिवार को सीआरपीएफ के दो जवानों की हत्या कर दी गई। उसी मुठभेड़ के दौरान हुई फायरिंग में कुकी समुदाय की एक महिला की भी मौत हो गई। रविवार को फिर एक व्यक्ति की जान गई।
इस वर्ष एक रुझान यह देखने को मिला है कि सुरक्षा बलों पर हमले की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि राज्य के लोगों- खासकर कुकी समुदाय में पुलिस और केंद्रीय बलों को लेकर भारी नाराजगी है। पिछले साल भी कई जगह महिलाओं ने केंद्रीय बल के जवानों को अपने इलाके में नहीं घुसने दिया था। इसी बीच लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के दौरान कई इलाकों से ईवीएम में तोड़-फोड़, वोटरों को धमकाने और हिंसा की कई खबरें सामने आई थी। इन घटनाओं के कारण अनेक मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराना पड़ा।
हालात ऐसे हैं कि पिछले एक साल में हत्या और आगजनी के छह हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं और करीब दो सौ लोग गिरफ्तार किए गए हैं। राज्य में 36 हजार सुरक्षाकर्मी और अतिरिक्त 40 आईपीएस अधिकारियों को तैनात किया गया है। फिर भी हालात संभल नहीं रहे हैँ। स्पष्टतः इसका कारण यह है कि मणिपुर में जारी हालात सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं हैं।
बल्कि ये सामाजिक स्तर पर चौड़ी होती गई खाई का परिणाम हैं। आरोप यह है कि सामुदायिक आधार पर अविश्वास की खाई को बढ़ाने में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों की भी भूमिका रही है। गौरतलब है कि मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई तबके को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की हाई कोर्ट की सिफारिश के बाद राज्य में हिंसा भड़की थी। आरोप है कि बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए राज्य सरकार ने एकतरफा नजरिया अपनाया। केंद्र की भूमिका भी संदिग्ध रही है। नतीजा, मणिपुर का एक नासूर में तब्दील हो जाना है। यह नासूर गहराता ही जा रहा है।