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यही तो समस्या है

बड़ी कंपनियों से अपेक्षा महज सर्विस प्रोवाइडर बन जाने की नहीं है। अपेक्षा भारत में आरएंडडी का ढांचा बनाने की है। वरना, एआई के मामले में अमेरिका या चीन पर निर्भर बने रहना भारत की नियति बनी रहेगी।

रिलायंस इंडस्ट्री के बारे में कभी कहा जाता था कि उसके प्रवर्तक अपने मातहतों को “बड़ा सोचने” की सलाह देते हैं। कई दशकों के बाद अब सामने यह है कि उस “बड़ी सोच” का नतीजा कंपनी के मुनाफे में लगातार बढ़ोतरी और अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों पर मोनोपॉली कायम करने के रूप में जरूर आया, मगर उसका भारत में अनुसंधान- विकास (आरएंडडी) एवं आविष्कार की संस्कृति के प्रसार में कोई योगदान नहीं रहा। इस बीच कंपनी के मालिकान अपनी समृद्धि एवं सफलता के ऐश्वर्य और रसूख का खुलेआम प्रदर्शन करने की राह पर जरूर निकल पड़े। ये बातें रियालंस इंडस्ट्री की 48वीं सालाना आम सभा में हुए निर्णयों के संदर्भ में याद आई हैं। कंपनी के चेयरमैन और महाप्रबंधक मुकेश अंबानी ने वहां कई महत्त्वपूर्ण घोषणाएं कीं।

उनमें एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के लिए एक सहायक कंपनी का गठन भी है, जिसका पूरा स्वामित्व रिलायंस के पास होगा। जिस समय दुनिया औद्योगिक क्रांति के चौथे चरण से गुजर रही है और इस चरण को स्वरूप दे रही तकनीकों में एआई को सर्व-प्रमुख माना जा रहा है, किसी भारतीय कंपनी के ऐसे एलान को खुशखबरी माना जाएगा। मगर ये खुशखबरी क्षणिक बन जाती है, जब अंबानी की दूसरी घोषणा पर ध्यान जाता है। उन्होंने कहा- “भारत में एआई क्रांति का अग्रिम स्थल” हासिल करने के लिए नई कंपनी अमेरिकी कंपनियों- गूगल और मेटा से पार्टनरशिप करेगी।

व्यवहार में इसका मतलब क्या होगा? यही कि गूगल और मेटा अपने आरएंडडी से एआई के जो रूप विकसित करेंगी, भारतीय बाजार में उसे पहुंचाने का काम रिलायंस करेगी। उसी तरह जैसाकि उपग्रह इंटरनेट सेवा के मामले में वह स्पेस-एक्स की स्टारलिंक सेवा का विक्रेता बनी है। मुकेश अंबानी ने कहा कि ‘जैसे जियो ने हर जगह और हर भारतीय को डिजिटल सेवा उपलब्ध कराई, वैसा ही रियालंस इंटेलीजेंस एआई के मामले में करेगी।’ मगर गौरतलब है कि बड़ी कंपनियों से भारत की अपेक्षा महज सर्विस प्रोवाइडर बन जाने की नहीं है। अपेक्षा भारत में आरएंडडी का ढांचा एवं संस्कृति बनाने की है। वरना, एआई के मामले में अमेरिका या चीन पर निर्भर बने रहना भारत की नियति बनी रहेगी।

By NI Editorial

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