हाई कोर्ट ने राय जताई कि जाति आधारित रैलियां राजनीतिक मकसद से आयोजित होती हैं, जिनसे समाज में टकराव बढ़ता है। यह सार्वजनिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है। यूपी सरकार ने कोर्ट की राय का समर्थन किया है।
जातीय पहचान और प्रतीकों का प्रदर्शन इतने भौंडे स्तर तक पहुंच चुका है कि उस पर किसी विवेकशील व्यक्ति को व्यग्रता महसूस हो सकती है। मुमकिन है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज भी ऐसी ही भावना से प्रेरित हुए हों, जब उन्होंने उत्तर प्रदेश में जाति आधारित रैलियों पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया। यूपी सरकार ने तत्परता दिखाते हुए इस पर अमल का फरमान जारी कर दिया है। इसके तहत ना सिर्फ जातीय रैलियों, बल्कि वाहनों आदि पर जाति लिखने और जाति सूचक प्रतीकों के प्रदर्शन पर भी रोक लगा दी गई है। हाई कोर्ट ने राय जताई कि जाति आधारित रैलियां राजनीतिक मकसद से आयोजित होती हैं, जिनसे समाज में टकराव बढ़ता है। यह सार्वजनिक व्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है।
यूपी सरकार ने कोर्ट की राय का समर्थन किया है। मगर क्या इस कदम से सचमुच समाज को जाति-मुक्त दिशा में ले जाने में मदद मिलेगी? गुजरे साढ़े तीन दशकों में भारत में राजनीतिक एवं बौद्धिक विमर्श जाति और धर्म के इर्द-गिर्द केंद्रित होता चला गया। अक्सर ऐसा लगा है कि शासक वर्ग सायास सार्वजनिक विमर्श को इस ओर ले गए हैं, ताकि मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटा रहे। इस दौर की कथा हर जाति की अपनी पार्टी बनने और प्रतिनिधित्व मांगने की रही है। बड़ी पार्टियों में इस मांग को मानने में सबसे आगे दिखने की होड़ रही है। मसलन, भाजपा का दावा है कि उसने दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों को जितनी नुमाइंदगी दी, उतना किसी और दल ने नहीं दिया।
खुद प्रधानमंत्री चुनावों के दौरान अपनी ओबीसी पहचान को जताते रहे हैं। यही होड़ देश को जातीय जनगणना जैसे प्रतिगामी कदम की ओर ले गई है। फिर महजबी पहचान की राजनीति का सवाल है, जिस कारण सार्वजनिक व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता के लिए कम चुनौतियां पैदा नहीं हुई हैँ। ऐसा नहीं लगता कि इलाहाबाद हाई कोर्ट और उत्तर प्रदेश सरकार इस पृष्ठभूमि से नावाकिफ होंगे। फिर भी उन्होंने ये कदम उठाया है, तो यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि राजनीतिक पहलू और सामाजिक जड़ों वाले प्रश्नों के न्यायिक समाधान अक्सर कामयाब नहीं होते हैं।