सवाल वही है- पिछड़े समुदायों को हासिल क्या होगा? उनका पिछड़ापन दूर करने का एजेंडा ना तो “सामाजिक न्याय” की पार्टियों के पास है, ना इस सियासत में नई रंगी कांग्रेस के पास, और ना ही भाजपा के पास।
इसमें शायद ही कोई संशय था कि केंद्र की भाजपा सरकार देर-सबेर जातिगत जनगणना कराने पर राजी हो जाएगी। वजह यह है कि सत्ताधारी दल के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1990 के दशक में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की जो अवधारणा अपनाई, उसका जातियों की अलग-अलग गिनती और उनकी अलग पहचान को मान्यता देने से कोई बुनियादी विरोधी नहीं है।
दरअसल, यह तरीका “सामाजिक न्याय” की पार्टियों की ओबीसी या दलित के रूप में संबंधित जातियों की संगठित पहचान उभारने की कोशिश की एक प्रभावी काट है। इस तरीके को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने “”मंडल” और “बहुजन” राजनीति को हाशिये पर धकेल दिया है।
इसके बावजूद उन पार्टियों ने जातीय जनगणना की मांग के जरिए भाजपा पर दबाव बनाने का गुमराह दांव खेला। अब आम जनगणना के साथ जातीय गणना का निर्णय लेकर भाजपा ने उससे उपजी सियासी फायदे की संभावना को हथिया लिया है। मगर सवाल वही है- इससे पिछड़े समुदायों को हासिल क्या होगा?
जाति गणना पर राजनीति, हल क्या है?
आर्थिक, सामाजिक या शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने का एजेंडा ना तो “सामाजिक न्याय” की पार्टियों के पास है, ना इस सियासत के रंग में नई रंगने वाली कांग्रेस के पास, और ना ही भाजपा के पास। अधिक से अधिक इन सबके पास सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का एजेंडा है, जो आज के निजीकरण के दौर में बहकावे के अलावा कुछ नहीं है।
निजी क्षेत्र में आरक्षण वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के तहत लगभग नामुमकिन है। तो घूम-फिर कर बात भावनाओं के तुष्टीकरण पर टिक जाती है। ठीक उसी तरह जैसे भाजपा के हिंदुत्व से हिंदुओं की रोजमर्रा की समस्याओं का कोई हल नहीं निकला है, भले उनके एक बड़े हिस्से को इस भ्रम से तसल्ली मिलती हो कि अब उनका राज है!
चूंकि पिछड़ेपन के बुनियादी कारणों को दूर करने और वास्तविक सामाजिक परिवर्तन का कोई एजेंडा पूरे राजनीतिक दायरे में नहीं है, इसीलिए यह बेहिचक कहा जाएगा कि जातिगत जनगणना पर बनी आम सहमति प्रतिगामी है। किसी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि उसका पूरा राजनीतिक नेतृत्व प्रगतिशील कार्यक्रमों पर चर्चा के बजाय सर्व-सम्मति से उसे प्रतिगामी पथ पर ले जाए!
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