वैश्विक सूचकांकों को तैयार करने में सरकारी एजेंसियां शामिल नहीं होतीं, इसीलिए उनकी साख है। आखिर ऐसी सरकारों के प्रतिमानों की क्या विश्वसनीयता हो सकती है, जो हकीकत छिपाने और आंकड़ों में हेरफेर करने के लिए बदनाम हों?
आईने में सूरत खराब नजर आए, तो आईना ही हटा दिया जाए- भारत की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है, उनका यह नजरिया अब खतरनाक हद पार कर रहा है। नजरिया इस हद तक पहुंच गया है कि बीमारी बताने वाली जांच रिपोर्ट तक को ठुकराया जाने लगा है। इसकी मिसाल बीते हफ्ते संसद में देखने को मिली, जब सरकार ने वायु गुणवत्ता संबंधी अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों को अस्वीकार कर दिया। साथ ही एलान किया कि ‘भारत अपने पैमाने खुद तय करता है।
बीते लगभग दो महीनों से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की प्रदूषित हवा सुर्खियों में है। वायु गुणवत्ता बताने वाली मशीनों से हेरफेर के इल्जाम इस दौरान लगे हैं। यह एक नया पहलू है, जो इस वर्ष जुड़ा है। बहरहाल, पिछले अनेक वर्षों से प्रदूषित शहरों के वैश्विक सूचकांकों पर भारत की बेहद खराब स्थिति उभरती रही है। मगर इनसे सबक लेने और प्रदूषण दूर करने के संकल्पबद्ध उपाय करने के बजाय अब सरकार ने इन सूचकांकों की उपयोगिता को ही मानने से इनकार कर दिया है। पर्यावरण राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने कहा कि वैश्विक रैंकिंग आधिकारिक नहीं हैं। इन्हें तैयार करने में कोई सरकारी एजेंसी शामिल नहीं होती।
डब्लूएचओ के वायु गणवत्ता दिशा निर्देश भी महज परामर्श हैं, वे बाध्यकारी प्रतिमान नहीं हैँ। आईक्यूएयर की विश्व वायु गुणवत्ता रैंकिंग, डब्लूएचओ का ग्लोबल एयर क्वालिटी डेटाबेस, पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स (ईपीआई) और ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज मेट्रिक्स आदि आधिकारिक नहीं हैं। इनका मकसद महज विभिन्न देशों को अपना प्रतिमान तय करने में मदद देना भर है। तो यह सरकार का नजरिया है। प्रश्न है कि सरकार के पैमाने क्या हैं और उन पर लोगों को क्यों भरोसा करना चाहिए? वैश्विक सूचकांकों को तैयार करने में चूंकि सरकारी एजेंसियां शामिल नहीं होतीं, इसीलिए उनकी दुनिया भर में साख है। आखिर ऐसी सरकारों के प्रतिमानों की क्या विश्वसनीयता हो सकती है, जो हकीकत छिपाने और आंकड़ों में हेरफेर करने के लिए बदनाम हों? बहरहाल, यह नजरिया भारतवासियों के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। यह जारी रहा, तो यही कहा जाएगा कि देश का वर्तमान जो भी हो, भविष्य तो कतई उज्ज्वल नहीं है।


