सत्ताधारी दल के नेताओं से अधिक जिम्मेदारी की अपेक्षा होती है। उचित होगा कि भाजपा नेतृत्व अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था के बारे में अपने समर्थकों का उचित मार्ग-निर्देशन करे। वरना, संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ जाएंगे।
सांसद निशिकांत दुबे के न्यायपालिका के खिलाफ आक्रामक बयान से जब पार्टी अध्यक्ष ने भाजपा को अलग करने का एलान किया, तो समझा गया कि भाजपा ने इस मुद्दे पर ठंडा पानी डाल दिया है। जेपी नड्डा ने यह भी कहा कि पार्टी न्यायपालिका के खिलाफ ऐसी बातों को नापसंद करती है।
जिम्मेदारी का कुछ तो एहसास करें!
मगर इसके बाद भाजपा के अंदर से जैसी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनसे विवाद में नया पहलू जुड़ा है। दो प्रतिनिधि बयान खास तौर पर गौरतलब हैः पश्चिम बंगाल भाजपा ने की नेता अग्निमित्रा पॉल ने दुबे की बातों को दोहराते हुए कहा कि ‘उन्होंने सही बात कही है।’ भाजपा के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने दुबे को ‘सार्वजनिक रूप’ से ऐसी बातें ना बोलने की सलाह देते हुए कहा- ‘कभी-कभी सच बोलने से बचना पड़ता है।’
सत्ताधारी जमात के इकॉसिस्टम के एक हिस्से ने तो सोशल मीडिया पर नड्डा को ही निशाने पर ले लिया। उनके खिलाफ अपमानजनक हैशटैग ट्रेंड कराया गया, जिसके तहत कुछ लोगों ने उनसे इस्तीफे की मांग भी की। इससे विपक्ष का यह इल्जाम वजनदार हुआ है कि दुबे ने जो कहा, वह सत्ताधारी जमात की असल मंशा को जाहिर करता है, जबकि नड्डा का बयान महज रस्म-अदायगी है। दुबे की टिप्पणियां ना सिर्फ आपत्तिजनक, बल्कि खतरनाक भी मालूम पड़ी हैं। मसलन, उनका यह कथन कि ‘देश में चल रहे गृह युद्धों के लिए प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना’ जिम्मेदार हैं।
क्या भाजपा नेता मानते हैं कि देश में ‘गृह युद्ध’ चल रहे हैं? फिर अपने हक में आए न्यायपालिका के निर्णयों को अपने विरोधियों को घेरने का औजार बनाने वाली पार्टी के नेता अपने खिलाफ जाने वाले एकाध आदेशों या जजों की टिप्पणियों से इतने बौखला जाएं कि वे न्यायपालिका पर धार्मिक युद्ध उकसाने का आरोप लगा दें, तो इसे संविधान में मौजूद अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था के प्रति उनकी असहनशीलता का संकेत ही समझा जाएगा।
जबकि सत्ताधारी दल के नेताओं से अधिक जिम्मेदारी की अपेक्षा होती है। उचित होगा कि भाजपा नेतृत्व अपने समर्थक इकॉसिस्टम का उचित मार्ग-निर्देशन करे। वरना, संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ जाएंगे।
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