Wednesday

30-04-2025 Vol 19

असीम हो गई बीमारी!

Ujjain Rape Case: लोग जब बलात्कार जैसी घटना को नजारे की तरह देखने लगें, तो निशब्द होने के अलावा किसी विवेकशील व्यक्ति के पास और क्या बच जाता है? उज्जैन में जो दिखा, उसे मानवीय चेतना पर प्रहार के अलावा और क्या कहा जा सकता है?

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उज्जैन में स्वीकार करना नामुमकिन

उज्जैन में जो हुआ, मानव विवेक के लिए उसे सहज स्वीकार करना नामुमकिन है। कोई मुजरिम सरेआम फुटपाथ पर बलात्कार करे, यही अपने-आप में आहत करने वाली बात है। उससे भी ज्यादा संवेदना को चोटिल करने वाला पहलू यह है कि राहगीर उसे देखते रहें, उनमें से कुछ अपने स्मार्टफोन पर वीडियो बनाएं, और फिर वीडियो को कुछ बड़ा हासिल कर लेने जैसे भाव के साथ सोशल मीडिया पर अपलोड करें! घटना को रोकने की कोशिश तो दूर, उन दर्शकों में से कोई ऐसा नहीं निकला जो कम-से-कम शोर मचाता या पुलिस हेल्पलाइन नंबर पर फोन करता।

पुलिस को सूचना देने की जरूरत नहीं समझी

यहां तक कि घटना हो जाने के बाद भी किसी ने पुलिस को सूचना देने की जरूरत नहीं समझी! लोग जब बलात्कार जैसी घटना को नजारे की तरह देखने लगें, तो निशब्द होने के अलावा किसी विवेकशील व्यक्ति के पास और क्या बच जाता है? ऐसी घटनाएं पहले हत्या और दूसरे अपराधों के मामले में हुई हैं। आपदा एवं मानवीय त्रासदी के कई मौकों पर भी देखा गया है कि लोग पीड़ित की मदद करने के बजाय वीडियो बनाने और उसे सोशल मीडिया पर डालने में मशगूल रहे।

समाज को अराजकता और फिर बर्बरता की तरफ ले जाता

यह बेहिचक कहा जा सकता है कि उज्जैन में यह ट्रेंड अपने क्रूरतम और वीभत्स मुकाम तक पहुंच गया। बलात्कार जैसे सिरे से अस्वीकार्य जुर्म के समय भी लोगों की संवेदना इतनी कुंद पड़ी रहे, तो फिर न्याय या व्यवहार में मानवीयता बने रहने की कितनी उम्मीद बची रहेगी?  इस सामाजिक मनोविज्ञान के बीच ये समझना आसान हो जाता है कि क्यों पिछले दस वर्षों में कानून के राज को निष्प्रभावी करने का एक राजनीतिक प्रयोजन बिना किसी सार्थक प्रतिरोध के आगे बढ़ता चला गया है। मगर, यह लोगों को समझना चाहिए कि जिस तरह वे जघन्यतम अपराधों के सामने भी असंवेदनहीन होते जा रहे हैं, उसका परिणाम देर-सबेर सबको भुगतना होगा। सामाजिक चेतना ही कानून और कानून लागू करने वाली एजेंसियों का प्रेरक तत्व होती है। इसका अभाव समाज को अराजकता और फिर बर्बरता की तरफ ले जाता है। उज्जैन में आखिर जो दिखा, उसे मानवीय चेतना पर प्रहार के अलावा और क्या कहा जा सकता है?

NI Editorial

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