भारत में 2.8 प्रतिशत लोगों के पास जीवन बीमा और एक फीसदी लोगों के पास सामान्य बीमा पॉलिसी है। प्राइवेट स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी धारकों की संख्या पांच प्रतिशत से कम है। बाकी लोग पॉलिसी का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है।
बढ़ती आर्थिक चुनौतियों के मद्देनजर केंद्र ने हाल में अनेक ऐसे फैसले लिए हैं, जिनके जरिए संदेश भेजने की कोशिश हुई है कि नरेंद्र मोदी सरकार तीव्र गति से अगले चरण के “आर्थिक सुधारों” को लागू कर रही है। इस दिशा में जीएसटी दरों में हेरफेर और चार श्रम संहिताओं पर अमल के बाद अब बीमा क्षेत्र में उदारीकरण का बड़ा फैसला लिया गया है। कैबिनेट ने नए बीमा विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके तहत इस क्षेत्र को 100 फीसदी विदेशी निवेश के लिए खोला जाएगा। साथ ही इस क्षेत्र में निवेश संबंधी अनेक प्रमुख शर्तों को आसान करने का निर्णय लिया गया है। आशा की गई है कि इससे बड़े पैमाने पर बाहरी निवेश आएगा, जिससे कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में लगातार हालिया गिरावट से उपजी समस्या से राहत मिलेगी।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा होगा? अगर पिछले अनुभव पर ध्यान दें, तो इसकी संभावना कम लगती है। 2021 में केंद्र ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा कर 49 से 74 फीसदी की थी। मगर उससे फैसले से विदेशी बीमा कंपनियां भारत की ओर आकर्षित नहीं हुईं। ना ही भारतीय कंपनियों के साथ साझा उद्यम में उनके निवेश में कोई ठोस बढ़ोतरी हुई। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक जब से बीमा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोला गया, लगभग 82 हजार करोड़ रुपये का बाहरी निवेश आया है। लेकिन यह अधिकांशतः भारतीय कंपनियों के साथ साझा उद्यम में आया।
मुमकिन है, ताजा फैसले से वैसे निवेश में कुछ बढ़ोतरी हो। मगर भारतीय बीमा बाजार के मूल ढांचे में किसी गुणात्मक परिवर्तन की संभावना कम ही है। इसका कारण इस बाजार का सीमित आकार है। भारत में 2.8 प्रतिशत लोगों को जीवन बीमा सुरक्षा हासिल है। सामान्य बीमा की पैठ तो महज एक फीसदी आबादी तक है। प्राइवेट स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी धारकों की संख्या भी पांच प्रतिशत से कम ही है। बाकी लोगों की जेब किसी तरह की बीमा पॉलिसी का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। जब तक यह सूरत नहीं बदलती, बीमा कंपनियां क्यों निवेश बढ़ाएंगी? यह स्थिति कैसे बदले, इसकी कोई दृष्टि सरकार ने सामने नहीं रखी है।


