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‘द केरला स्टोरी’ की उपयोगिता

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फिल्मकार, समीक्षक और दर्शक, सब बंट गए हैं। विचारधारात्मक विभाजन हर जमात को बांट रहा है। सिनेमा उद्योग के बंटने की प्रक्रिया अगर हमारे सामने है तो फिल्म समीक्षक भी बंट चुके हैं। कितने ही समीक्षकों ने इस फिल्म को एक एजेंडा फिल्म या प्रोपैगेंडा फिल्म करार दिया है। जवाब में दूसरे समीक्षकों ने कहा कि यह फिल्म ऐसी वास्तविकता के दर्शन कराती है कि आपके रोंगटे खड़े हो जाएं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

केरल हाईकोर्ट ने ‘द केरला स्टोरी’ के प्रदर्शन पर रोक लगाने से इन्कार कर दिया। अगर आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं तो फिर किसी भी विचार, किसी भी बयान और किसी भी फिल्म पर रोक लगाने का कोई मतलब नहीं बनता, जब तक कि उनसे अपने संविधान और कानूनों की मर्यादा नहीं टूटती। लेकिन बहुत से मामलों में अब अदालती फैसले उतने कारगर और प्रभावी नहीं रह गए हैं। हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए केरल के कई सिनेमाघरों ने इस फिल्म को अपने यहां दिखाने का इरादा बदल दिया। यह विरोध फिल्म में डाले गए इस डिस्क्लेमर के बावजूद हो रहा है कि यह फिल्म काल्पनिक चीजों पर आधारित है। हाईकोर्ट ने कहा कि केरल का धर्मनिरपेक्ष समाज फिल्म को उसी रूप में देखेगा, जैसी वह है। फिल्म तो एक कहानी है, न कि इतिहास। इस वाक्य में जो भोलापन है उससे लगता है कि शायद हमारी अदालतें पिछड़ गई हैं और समाज उनसे कहीं आगे निकल गया है। अदालतों को नहीं पता कि परिस्थितियां उतनी सहज और निष्पक्ष नहीं रही हैं।

विचारधारात्मक विभाजन हर जमात को बांट रहा है। सिनेमा उद्योग के बंटने की प्रक्रिया अगर हमारे सामने है तो फिल्म समीक्षक भी बंट चुके हैं। कितने ही समीक्षकों ने इस फिल्म को एक एजेंडा फिल्म या प्रोपैगेंडा फिल्म करार दिया है। जवाब में दूसरे समीक्षकों ने कहा कि यह फिल्म ऐसी वास्तविकता के दर्शन कराती है कि आपके रोंगटे खड़े हो जाएं। एक पक्ष के समीक्षक फिल्मकारिता के स्तर पर भी इसे बकवास फिल्म बताते हैं जिसके अभिनय, संगीत, स्क्रिप्ट और निर्देशन यानी कि हर पहलू में अधकचरापन है। दूसरे पक्ष के समीक्षक दावा कर रहे हैं कि विपुल शाह ने इससे बेहतर फिल्म पहले कभी नहीं बनाई। अपने ज्यादातर फिल्म समीक्षकों की दशा उस कार्टून के पात्र जैसी हो गई है जिसमें माइक हाथ में लिए एक लड़का खेत में काम कर रहे एक किसान से जाकर कहता है कि मैं पत्रकार हूं, और किसान पूछता है, किस पार्टी के?

फिल्मकार, समीक्षक और दर्शक, सब बंट गए हैं। ‘द केरला स्टोरी’ के निर्देशक सुदीप्तो सेन के मुताबिक केरल में एक घटना हुई थी जिसमें एक उन्नीस साल की लड़की को फुसला कर उसका धर्मांतरण कराया गया और बाद में उसे जिंदा जला दिया गया। उस घटना से ही उन्हें इस बारे में फिल्म बनाने की सूझी। हाईकोर्ट में सुनवाई के बाद कहा जा रहा है कि जहां कहीं भी बत्तीस हजार लड़कियों का धर्म बदल कर उन्हें आईएसआईएस के नेटवर्क में ले जाने का दावा किया गया है वहां से यह संख्या हटाई जाएगी। मगर सुदीप्तो कहते हैं कि निर्माता विपुल शाह के साथ उन्होंने जो रिसर्च की उसमें इन लड़कियों का हिसाब बत्तीस हजार ही बनता है।

इस फिल्म को बनाते समय विपुल शाह ने बाकी जो भी सोचा हो, कम से कम कर्नाटक का विधानसभा चुनाव उनका उद्देश्य कतई नहीं रहा होगा। लेकिन आम तौर पर कोई कलाकार, कोई लेखक या कोई चित्रकार यह तय नहीं करता कि उसकी कृति का कोई राजनीतिक इस्तेमाल हो सकता है। इसका निर्णय तो खुद राजनीति करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक के बल्लारी की अपनी चुनावी सभा में कहा कि आतंकी साजिश पर बनी फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ की इन दिनों काफी चर्चा है। उन्होंने कहा कि देश का दुर्भाग्य देखिए कि कांग्रेस आज समाज को तहस-नहस करने वाली इस आतंकी प्रवृत्ति के साथ खड़ी नजर आ रही है। उन्होंने प्रश्न किया, ऐसी पार्टी क्या कभी भी कर्नाटक की रक्षा कर सकती है? आतंक के माहौल में तो यहां के उद्योग, आईटी इंडस्ट्री, खेती, किसानी और गौरवमयी संस्कृति, सब कुछ तबाह हो जाएगा। साफ है कि फिल्मों के राजनीतिक इस्तेमाल की नींव सुदृढ़ होती जा रही है।

By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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