द्वापर युग के महाभारत काल की बात है। ब्रह्मा ने देवी- देवताओं की एक सभा बुलाई, और सभी से पूछा कि संसार में सबसे आवश्यक वस्तु, जरूरी चीज क्या है? सभी देवताओं ने अपने -अपने ढंग से प्रश्न का उत्तर दिया, लेकिन ब्रह्मा उससे संतुष्ट नहीं हुए। अंत में ब्रह्मा ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि संसार की सबसे आवश्यक वस्तु निःस्वार्थ प्रेम है, जिसमें कोई स्वार्थ न हो। यह सुन देवताओं ने कहा- यदि निःस्वार्थ प्रेम है, तो वह सिर्फ शिव और पार्वती में है, अन्य में नहीं। इस पर नारद ने कहा- नहीं, ऐसा नहीं है। मैं उन दोनों के मध्य में भी झगड़ा करवा सकता हूं। परन्तु नारद की बात पर कोई भी विश्वास नहीं करता है। एक दिन माता पार्वती भगवान शिव की अनुपस्थित में अकेली बैठी हुई थी, तो वहां नारद मुनि पहुंचे और उन्होंने माता पार्वती से भगवान शिव के बारे में पूछा कि शिव कहां गए हुए हैं? इस पर माता पार्वती ने कहा कि वह किसी काम से बाहर गए हुए हैं। आपको उनसे क्या कार्य है?
नारद ने कहा- मुझे भगवान शिव से अमर कथा सुननी थी। उनकी बात को सुनकर पार्वती हैरान रह गई। और उन्होंने पूछा कि शिव ने कभी मुझे तो अमर कथा नहीं सुनाई। इसका नाम तक नहीं लिया, यह क्या होती है? नारद ने बताया कि अमर कथा सुनने के बाद व्यक्ति अमर हो जाता है। शिव हर किसी को यह कथा नहीं सुनाते हैं। जिनसे वह सर्वाधिक प्रेम करते हैं, उन्हें ही वह अमर कथा सुनाते हैं। कुछ समय के बाद शिव वापस आते हैं, तो पार्वती उनसे गुस्सा होती है, और अमर कथा सुनने के लिए जिद करने लगती है। पार्वती के नहीं मानने पर शिव पार्वती को एक सुनसान स्थान पर कथा सुनाने के लिए ले जाते हैं, ताकि कोई और वह कथा न सुन ले। सुनसान स्थान पर जाने के बाद भगवान शिव एक ताली बजाते हैं, जिससे वहां पर उपस्थित सभी जीव -जंतु वहां से भाग जाते हैं। परन्तु वहीं पेड़ पर एक तोते का घोंसला होता है, जिसमें एक अंडा होता है। वह कथा शुरू होने से पहले जन्म ले लेता है।
इसके बाद भगवान शिव पार्वती को कथा सुनाना आरंभ करते हैं। कथा सुनते समय माता पार्वती को तो नींद आ गई, लेकिन उनके स्थान पर वहां बैठे कथारम्भ होने के पूर्व जन्मे उस शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया, और शिव अमर कथा सुनाते रहे। तोता पूरी कथा सुन लेता है। कथा समाप्त हो जाती है, तब भगवान शिव देखते हैं कि माता पार्वती तो सोई हुई है तो उनकी जगह हूकारे कौन भर रहा था? शिव को यथार्थ का पत्ता चलते ही वे शुक को मारने के लिए दौड़े और उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ दिया। शुक जान बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा, भागते-भागते वह महर्षि कृष्ण वेदव्यास के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी वटिका के मुख में घुस कर उनके गर्भ में रह गया। तत्पश्चात शिव महर्षि वेदव्यास के आश्रम में आते हैं, और उन्हें बताते हैं कि एक चोर ने चोरी से अमर कथा सुन ली है। और वह यहां आकर छुप गया है। शिव कहते हैं कि मैं उसे मार दूंगा।
तब महर्षि वेदव्यास ने कहा कि यदि आप उसे मार देंगे, तो आपकी अमर कथा झूठी हो जाएगी। फिर शिव कहते हैं कि तो मैं उसे बंदी बना लूंगा। यह कह शिव एक वर्ष तक उसके बाहर आने का इंतजार करते रहे, परन्तु वह गर्भस्थ शिशु बाहर नहीं आया। एक वर्ष बाद महर्षि वेदव्यास ने शिव को उस गर्भ में स्थित बच्चे को क्षमा करने के लिए कहा, तो शिव उस बच्चे को क्षमा कर कर वहां से चले जाते हैं। फिर भी वह बच्चा गर्भ से बाहर नहीं आता है। ऐसी मान्यता है कि यह बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। इन्होंने अपनी माता के गर्भ में ही तपस्या करना आरंभ कर दिया था। एक दिन महर्षि वेदव्यास की पत्नी को गर्भ में कुछ ज्यादा तकलीफ होने लगती है, तो भगवान विष्णु वहां आते हैं। और उस गर्भस्थ शिशु से बाहर नहीं आने का कारण पूछते हैं, तो गर्भ स्थित शिशु ने कहा कि मुझे संसार की मोह माया में नहीं फंसना है। यदि आप मोह माया रोक दें तो मैं बाहर आ जाऊंगा।
इसके बाद विष्णु ने कहा कि मैं कुछ समय के लिए मायाजाल हटा दूंगा। इसके बाद मुनि शुकदेव का जन्म होता है और वे जन्म लेने के बाद तपस्या करने के लिए वन में चले जाते हैं। कुछ पौराणिक ग्रन्थों में गर्भस्थ शिशु के पास भगवान विष्णु के स्थान पर विष्णु अवतार श्रीकृष्ण के आने की बात कहते हुए कहा गया है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तब ये गर्भ से बाहर निकले और व्यास के पुत्र कहलाये। द्वापर युग के अंत में महाभारत काल में महर्षि कृष्ण वेदव्यास के इस अयोनिज पुत्र को शुक के माध्यम से उत्पन्न होने के कारण शुकदेव कहा गया। ऐसी मान्यता है कि बैशाख कृष्ण अमावस्या के दिन इनका अवतरण इस धरा पर हुआ, इसलिए बैशाख कृष्ण अमावस्या को शुकदेव मुनि जयंती मनाने का प्रचलन भारत में प्राचीन काल से है।
पौराणिक मान्यताओं में शुकदेव को गर्भ में ही वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि ग्रन्थों का सम्यक ज्ञान हो जाने से उनकी संसार से विरक्त भावनाएं होने के कारण जन्म लेते ही बाल्यावस्था में ही ज्ञान प्राप्ति व तप हेतु वन की ओर भागने और उनके पीछे वात्सल्य भाव से रोते हुए वेदव्यास के भी भागने की बात कही जाती है, परन्तु इनके सम्बन्ध में उपलब्ध विवरणियों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उन्होंने प्रारंभिक अध्ययन अपने पिता वेदव्यास से ही उनके आश्रम में किया। कालांतर में वेदाध्ययन हेतु उन्हें देवगुरु बृहस्पति के पास भेजा गया, जहां उन्होंने वेदशास्त्र, इतिहास आदि का अध्ययन पूर्ण किया। विद्याध्ययन के पश्चात वे पिता के आश्रम में आकर रहने लगे।
परन्तु सांसारिक बंधन एवं जीवों के जन्म-मरण से उनका मन व्यथित रहने लगा। सांसारिक बातों से वे उदासीन रहने लगे। अपनी अप्रतिम प्रतिभा के कारण प्रारंभ से ही ये देवताओं, ऋषियों एवं मानव मात्र के श्रद्धापत्र हो गये। लेकिन इनका गृहस्थाश्रम के प्रति विमोह देखकर व्यास चिंतित होने लगे, तथा विवाह बंधन में आबद्ध करने हेतु व्यास इन्हें समझाने एवं प्रेरित करने लगे। इस प्रसंग में पिता पुत्र के मध्य विचार विमर्श भी हुआ। परन्तु शास्त्रोक्त विभिन्न उदाहरण देकर भी व्यास शुकदेव को गृहस्थाश्रम के लिए तैयार नहीं कर सके, तो उन्होंने शुकदेव को अपने यजमान मिथिलापुरी नरेश राजा जनक के पास धर्म और मोक्ष का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा। राजा जनक गृहस्थ होते हुए भी प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के पूर्ण ज्ञाता और मुमुक्षु थे। वे शास्त्र मर्यादानुसार रहकर गृहस्थी ही नहीं अपितु सुचारू रूप से राज्य संचालन भी किया करते थे। वे अपने को राजा नहीं वरन प्रजा का प्रतिनिधि मानते थे। उनमें न राजमद था, न ही राज के प्रति लिप्सा। वे देह में रहकर भी विदेह कहलाते थे। राजा जनक ने शुकदेव की अनेकानेक विधियों से परीक्षा ली और अन्त में राजा ने उनकी गृहस्थाश्रम की शंकाओं का समाधान किया तथा यह भी बताया कि सभी आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। राजा के उपदेशों से शुकदेव मुनि की शंकाओं का समाधान हो गया, और वे अपने पिता के आश्रम में आ गये।
हरिवंश पुराण में शुकदेव के वंश विस्तार के सम्बन्ध में अंकित वर्णनानुसार शुकदेव का विवाह पच्चीस वर्ष की आयु में स्वर्ग में वभ्राज नाम के सुकर लोक में रहने वाले पितरों के मुखिया वहिंषद जी की पुत्री पीवरी से हुआ। गृहस्थाश्रम में रहकर भी शुकदेव योग मार्ग का अनुसरण करने लगे। उन्होंने राजा परीक्षित को शुकतीर्थ में श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई। जिसके श्रवण फल से सर्पदंश-मृत्यूपरांत भी परीक्षित को मोक्ष की प्राप्ति हुई। पीवरी से शुकदेव के भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर, श्वेत कृष्ण, अरुण और श्याम, नील, धूम वादरि एवं उपमन्यु बारह महान तपस्वी पुत्र हुए, जिनके गुरुकृत नाम क्रमश: भारद्वाज, पराशर(द्वितीय), कश्यप, कौशिक, गर्ग, गौतम, मुदगल, शाण्डिल्य, कौत्स, भार्गव, वत्स एवं धौम्य हुए। और कीर्तिमती नामक एक योगिनी पतिधर्म पालन करने वाली कन्या हुई, जिसका विवाह भारद्वाज वंशज काम्पिल्य नगर के राजा अणुह से हुआ। कीर्तिमती ने ही महान योगी ब्रह्मदत्त को जन्म दिया। ब्रह्माण्डपुराण, लिंग पुराण आदि कई पुराणों में शुकदेव के बारह पुत्र होने की बात कही गई है, परन्तु शुकदेव के संतान होने के सम्बंध में भ्रांति है। देवी भागवत पुराण में शुकदेव के विवाह एवं उनकी संतान के सम्बंध में अंकित वर्णन के अनुसार पितरों की एक सौभाग्यशाली कन्या थी। इस सुकन्या का नाम पीवरी था। योग पथ के पथिक होते हुए भी शुकदेव ने उसे अपनी पत्नी बनाया। उस कन्या से उन्हें चार पुत्र हुए कृष्णख. गौर प्रभ, भूरि और देवश्रुत। कीर्ति नाम की एक कन्या हुई। परम तेजस्वी शुकदेव ने विभ्राज कुमार महामना अणुह के साथ इस कन्या का विवाह कर दिया। अणुह के पुत्र ही ब्रह्मदत्त हुए। शुकदेव के दोहित्र ब्रह्मदत्त बड़े प्रतापी राजा हुए। साथ ही ब्रह्म ज्ञानी भी थे। नारद ने उन्हें ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया था। कूर्म पुराण, सौर पुराण आदि कुछ अन्य पुराणों के अनुसार शुकदेव के भरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर नामक पांच पुत्र तथा कीर्तिमती नामक एक कन्या थी। ये सब ही अपने वंश की कीर्ति बढ़ाने वाले थे। ऐसी मान्यता है कि भगवान शुकदेव ने वेदव्यास से महाभारत भी पढ़ा था, और उसे देवताओं को सुनाया था। शुकदेव मुनि कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे।