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गपशप

मोदी और राहुल का फर्क

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब विदेश दौरे पर जाते हैं तो हर देश में सैकड़ों लोगों की भीड़ उनका स्वागत करने के लिए उमड़ती है। सड़कों पर मोदी मोदी के नारे लगते हैं। वे उन देशों के प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों के गले लगते हैं। दूसरे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति भी कभी मोदी को रॉकस्टार तो कभी बॉस कह कर उनको खुश करते हैं। दोपक्षीय वार्ताओं के अलावा मोदी प्रवासी भारतीयों की भीड़ को संबोधित करते हैं। वहां अपनी सरकार की उपलब्धियां बताते हैं और पहले की सरकारों को नाकाम-नाकारा साबित करते हैं। वे कारोबारियों को संबोधित करते हैं और उनको भारत आने का न्योता देते हैं। भारत की कथित आर्थिक तरक्की की कहानियां सुनाते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने भारत में कारोबार करना सुगम बना दिया है। अपने पूरे दौरे में वे प्रायोजित भीड़ के दायरे से बाहर नहीं निकलते हैं। विदेशी धरती पर भी न भारतीय मीडिया को इंटरव्यू देते हैं और न विदेशी मीडिया से बात करते हैं। वे आज तक किसी भी देश में खुले कार्यक्रम में या प्रेस कांफ्रेस में शामिल नहीं हुए हैं, जहां कोई उनसे सवाल पूछ सके।

इसके उलट राहुल गांधी हर देश में खुले सत्र में हिस्सा लेते हैं। बौद्धिकों के साथ संवाद करते हैं। पत्रकारों के साथ बात करते हैं। दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में भाषण देते हैं और वहां के छात्रों के साथ सीधा संवाद करते हैं। उनके भी कई कार्यक्रम प्रायोजित होते हैं और वे भी पार्टी की ओर से जुटाए गए प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हैं। इसके बावजूद उनका कार्यक्रम सरकारी कार्यक्रम की तरह प्रयोजित नहीं होता है। अगर ऐसा होता तो अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में उनके कार्यक्रम में खालिस्तान समर्थक पहुंच कर नारेबाजी नहीं करते। उनको भाषण देने से रोकने की कोशिश नही करते, बल्कि उनके लिए भी राहुल राहुल के नारे लगते।  उनके ज्यादातर कार्यक्रम स्वंयस्फूर्त होते हैं जो आज के प्रायोजित नैरेटिव निर्माण के वक्त  में बहुत जोखिम का काम है।

अमेरिका में राहुल ने सैन फ्रांसिस्को में भाषण दिया। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में गए और छात्रों के साथ संवाद किया। उसके बाद वे वाशिंगटन पहुंचे तो नेशनल प्रेस क्लब में पत्रकारों के साथ सीधी बातचीत की। इसमें राहुल ने तमाम गंभीर और जटिल मसलों पर सहज भाव से पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिकी पत्रकार कितने निर्मम होते हैं। उन्हें अपने राष्ट्रपति से आंख मिला कर मुश्किल सवाल पूछने में भी दिक्कत नहीं होती है। इसलिए नेशनल प्रेस क्लब में राहुल का इस तरह से पत्रकारों से मिलना और खुली बातचीत करना भी एक जोखिम भरा काम था। उनके पिता और दादी ने यह काम किया था लेकिन तब वे देश के प्रधानमंत्री थे। मनमोहन सिंह ने भी बतौर प्रधानमंत्री वाशिंगटन में नेशनल प्रेस क्लब में पत्रकारों से बात की थी।

लंदन के अपने दो दौरों में राहुल गांधी ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित किय। उनके साथ खुली बातचीत भी की। वे बौद्धिकों से भी मिले और उनके सवालों का जवाब भी दिया। प्रवासी भारतीयों के साथ भी उनका संवाद अक्सर प्रायोजित नहीं होता है। सो, एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी का शक्ति प्रदर्शन है और प्रायोजित भीड़ के जरिए अपनी लोकप्रियता का प्रदर्शन है तो दूसरी ओर राहुल गांधी का पश्चिमी और सभ्य लोकतांत्रिक देशों की तासीर वाला सहज, स्वाभाविक संवाद है। मोदी के कार्यक्रमों को पश्चिमी और दूसरे सभ्य देशों के लोग कौतुक से देखते होंगे लेकिन राहुल का व्यवहार उनको ज्यादा अपना सा लगता होगा। उनके नेता भी इसी तरह उनके साथ सहज भाव से मिलते हैं, मीडिया से बात करते हैं और मुश्किल सवालों के जवाब देते हैं। वहां सिर्फ भाषण नहीं होते है, बल्कि दोतरफा संवाद की परंपरा है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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