अगर संसद सामान्य ढंग से चलती, सामान्य अवधि तक चलती और सरकार उसके प्रति अपने को जवाबदेह दिखाती, तो प्रश्न नहीं उठते। अब जबकि आम चुनाव में लगभग एक साल का ही वक्त बचा है, बजट सत्र में इस पर नजर होगी कि क्या सत्ता पक्ष का कोई अलग व्यवहार देखने को मिलता है।
अब संसद के हर सत्र की शुरुआत पर संसद की गरिमा का सवाल चर्चा में आता है। जाहिरा तौर पर इसकी वजह गुजरे वर्षों में संसद के अंदर दिखी प्रवृत्तियां हैं। अगर कोई सरकार या सत्ताधारी पार्टी संसद की मर्यादाओं में बंधे रहना पसंद ना करती हो, वह वहां अपनी जवाबदेही निभाने को तैयार ना हो, तो इस तरह के प्रश्नों का उठ खड़ा होना लाजिमी है। यह ध्यान में रखने की बात है कि आजादी के बाद भारत ने जिस राजनीतिक व्यवस्था को अपनाया, उसे संसदीय लोकतंत्र के नाम से जाना जाता है। स्पष्ट है कि इस व्यवस्था के केंद्र में संसद है। संसद की रचना में पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिकाएं तय रहती हैं। किसी एक पार्टी (या गठबंधन) को सरकार चलाने का जनादेश प्राप्त होता है, तो बाकी दल या दलों को सरकारी फैसलों की खामियों को बेनकाब करने, उनका विरोध करने और सरकार को सत्ता से हटाने की रणनीति बनाने का अधिकार होता है। इन तीनों गतिविधियों से सत्ता पक्ष को जवाबदेह बनाने में मदद मिलती है।
आखिरकार एक तय कार्यकाल के बाद बात जनता की अदालत में जाती है, जहां मतदाता दोनों पक्षों के रिकॉर्ड पर अपना फैसला सुनाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि लोकतंत्र में जितना महत्त्वपूर्ण सत्ता पक्ष होता है, उतना ही विपक्ष भी। दरअसल, दोनों शासन व्यवस्था का हिस्सा होते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान सत्ताधारी ने विपक्ष को दुश्मन के रूप में पेश करने की संस्कृति अपनाई है। इसीलिए यह आरोप लगा है कि भारतीय जनता पार्टी लोकतांत्रिक सीमाओं के भीतर सरकार चलाने के बजाय सिस्टम पर कब्जा करने की रणनीति पर चल रही है। अगर संसद सामान्य ढंग से चलती, सामान्य अवधि तक चलती और सरकार उसके प्रति अपने को जवाबदेह दिखाती, तो ऐसे प्रश्न नहीं उठते। अब जबकि संसद का बजट सत्र शुरू हुआ है, तो नजर यह देखने पर होगी कि जब अगले आम चुनाव में लगभग एक साल का ही वक्त बचा है, तब सत्ता पक्ष का कोई अलग व्यवहार देखने को मिलता है।