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गारंटियां ठीक हैं, लेकिन…

विकसित होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाली किसी व्यवस्था में आवश्यकता लोगों को सक्षम बनाने की होती है। भारत में भी आजादी के बाद हुआ यह सीमित प्रयोग सफल रहा था। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में उलटी गंगा बह पड़ी है। 

कांग्रेस ने अपने चुनावी वायदे के मुताबिक सरकार बनने पर पहली कैबिनेट बैठक में पांच गारंटियां पर अमल की मंजूरी दे दी। यह निर्विवाद है कि इन गारंटियों से समाज एक बड़े तबके- खास कर महिलाओं को ऐसी सहायता मिलेगी, जिसकी इस समय बहुत जरूरत है। ऐसे उपायों को रेवड़ी कहकर उनका मजाक उड़ाना असल में आम जन के प्रति बैठे गहरे पूर्वाग्रहों और अपमान भाव की अभिव्यक्ति है। जिस समय हर सामाजिक सुरक्षा से संबंधित हर सेवा का व्यापारीकरण कर दिया गया है और पूरी अर्थनीति एकाधिकार जमा चुके पूंजीपतियों के हित में ढाल दी गई है, तात्कालिक राहत के तौर पर ऐसे उपायों की जरूरत बढ़ गई है। इसके बावजूद इन उपायों के जरिए राहत पहुंचाने की सोच पर बहस की आवश्यकता है। संसाधन का सवाल अप्रसांगिक नहीं है। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि अगर जन-कल्याण के लिए कोई सरकार जितने संसाधन बचा या जुटा सकती है, अगर उन्हें फौरी राहत पर ही खर्च कर दिया जाए, तो समाज की जड़ों के निर्माण तथा दीर्घकालिक विसा की बुनियाद को मजबूत करने के कार्यक्रमों के लिए धन कहां से आएगा?

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बुनियाद मजबूत करने वाले उपाय या योजनाएं आज चर्चा से ही बाहर हो गई हैं। जिस समय देश में हर सात में एक प्राइमरी स्कूल सिर्फ एक शिक्षक से चल रहा हो, तो यह सवाल कितना महत्त्वपूर्ण है, यह खुद जाहिर हो जाता है। कोरोना महामारी के समय संपूर्ण मुफ्त टीकाकरण की नीति छोड़ कर जिस तरह साधन संपन्न लोगों के लिए पैसा देकर आराम से वैक्सीन लगवाने की सुविधा दी गई हो, वह असल में देश में स्वास्थ्य व्यवस्था में बढ़े विभेदीकरण की मिसाल थी। इसी तरह सारे इन्फ्रास्ट्रक्चर की सेवा साधन संपन्न लोगों के लिए सीमित करने की नीति भी देश के समग्र विकास में बाधक बनी हुई है। अगर ऐसी परिस्थितियां ना हों, तो संभवतः तात्कालिक राहत की जरूरत ही नहीं रहेगी। विकसित होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाली किसी व्यवस्था में आवश्यकता लोगों को सक्षम बनाने की होती है। भारत में भी आजादी के बाद हुआ यह सीमित प्रयोग सफल रहा था। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में उलटी गंगा बह पड़ी है।

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