दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र के मामले में जारी अध्यादेश का संदेश यह है कि संविधान में कुछ भी लिखा हो और सुप्रीम कोर्ट चाहे उसकी जैसी व्याख्या करे, सरकार तो वही करेगी, जो वह चाहती है- और ऐसा करने के उपाय करने में वह सक्षम है!
दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र के मामले में हाल में आए सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच के फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया, उसे मीडिया के एक हिस्से में भारतीय जनता पार्टी बनाम आम आदमी पार्टी के बीच टकराव के रूप में पेश किया गया। लेकिन यह असल मुद्दे को पूरी तरह से भटकाना है। इसे केंद्र बनाम दिल्ली सरकार या नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल के रूप में पेश करना भी मामले की गंभीरता पर परदा डालना होगा। यहां कहीं ज्यादा गंभीर प्रश्न जुड़े हुए हैँ। सवाल यह है कि किसी संवैधानिक प्रावधान या कानून की व्याख्या का अधिकार किसे है? भारतीय संविधान ने यह हक सुप्रीम कोर्ट को दिया है। बल्कि संविधान की भावना यह है कि ऐसी सही व्याख्या करना सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी है। ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने सर्व-सम्मति से ने दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र की व्याख्या कर दी, तो कुछ दिनों के अंदर ही इस व्यवस्था को अध्यादेश से पलटने की कोशिश सीधे सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देना माना जाएगा।
इसे बेहिचक और बेखौफ संविधान की अवहेलना और संविधान की भावना का अनादर भी कहा जाएगा। बेशक दिल्ली सरकार इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। वह संभवतः इसे अदालत की तौहीन बताते हुए अर्जी दायर करेगी। लेकिन यह दिल्ली सरकार से अधिक सुप्रीम कोर्ट की परीक्षा है। आखिर सुप्रीम कोर्ट बेहतर ढंग से अवगत है कि उसने क्या फैसला दिया और शुक्रवार रात जारी अध्यादेश का असल मकसद क्या है? इसलिए अपेक्षित तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले का अपनी पहल पर संज्ञान ले। ऐसा करके ना सिर्फ वह अपने रुतबे की रक्षा करेगा, बल्कि संविधान की रक्षा की अपनी जिम्मेदारी भी वह निभाएगा। इस अध्यादेश का एक दिन भी जारी रहना संवैधानिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। इसका यह अर्थ होगा कि संविधान में कुछ भी लिखा हो और सुप्रीम कोर्ट चाहे उसकी जैसी व्याख्या करे, सरकार तो वही करेगी, जो वह चाहती है- और ऐसा करने के उपाय करने में वह सक्षम है!