सो तेरह वर्ष! भारत के बदलने के वर्ष। और उस बदलने पर बेबाक लिखते जाने वाला ‘नया इंडिया’। समय का यह संयोग सचमुच एक वह अनचाहा फल है, जिस पर मुझे और ‘नया इंडिया’ टीम को गौरव करना चाहिए। मेरा निश्चित विश्वास है कि ‘न्यू इंडिया’ के गुजरे 13 वर्ष आजाद भारत के पहले सौ वर्षों का वह इतिहास खंड बनेगा, जिसे याद करते हुए मौजूदा 140 करोड़ लोगों की पीढ़ियां बार-बार रोएंगी कि- लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई!
‘नया इंडिया’का यह अंक चौदहवें वर्ष का पहला है। कल सवेरे-सवेरे श्रीमतीजी ने याद दिलाया कि आज वर्षगांठ है और मुझे यह जान वैदिकजी याद हो आए। वे ‘नया इंडिया’ की वर्षगांठ पर लिखा करते थे।और बड़ा अच्छा मनभावक लिखते थे। मुझे वैसा लिखना आता नहीं है! डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने ‘नया इंडिया’ की शुरुआत से हर दिन लिखने का प्रण करते हुए हर दिन लिखा। वे जो चाहते लिखते और हर रोज छपते। मगर ‘नया इंडिया’ के तेरहवें वर्ष में उनकी कलम…! मैंउन्हें अक्सर शाम को उस वक्त याद करता हूं जब पहले पेज की सामग्री देखता हूं। श्रुति जब पाकिस्तान या खास विदेशी मामले पर लिखती है तो सोचने लगता हूं कि यदि वैदिकजी ने लिखा होता तो इमरान खान पर क्या लिखा होता? क्या होती कर्नाटक के चुनाव नतीजों पर उनकी टिप्पणी आदि, आदि।… पर फिर मैं सोचता हूं, ‘नया इंडिया’ में उनका लगातार तेरह वर्ष लिखना या मेरा, अजीत, श्रुति, अशोक, सत्येंद्र, शंकर, पंकज, शकील, अनिल, राकेश और अशोक आदि सबका लिखना, समाचार-विचार में खोए रहना क्या व्यर्थ और फितूरी नहीं है? सोचें, डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने कितना लिखा, हिंदी को लेकर, सार्क, विदेश नीति की चिंताओं में वे उम्र भर खपे रहे लेकिन भारत में अर्थ क्या है पत्रकारिता-वैचारिकता और बुद्धि का? क्या तो मायने और क्या मोल?
यदि वैदिकजी होते तो वे आज लिखते हुए हिंदी पत्रकारिता में ‘नया इंडिया’ के प्रयोग का अर्थ बताते। एक दफा उन्होंने ‘नया इंडिया’ को हिंदी पत्रकारिता का कंठहार बताया। जबकि मेरी दिक्कत है जो मैं भारतीय पत्रकारिता का बोरिया-बिस्तर बंधा मानता हूं। वह वक्त खत्म है, जब हजार साल की गुलामी के बाद हम हिंदुस्तानी अंग्रेजों की संगत में दुनिया को जानने लगे और उस दुनिया में अपना अर्थ खोजते हुए आजादी को समझा। पढ़-लिख कर घटनाओं को जानने-समझने के लिए सुबह-सुबह पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की एक आदत बनी। दिमाग खुला, स्वतंत्रता सेनानी पैदा हुए और स्वतंत्रता पाई।
विषयांतर हो रहा है। मोटी बात तेरह वर्ष पहले, सन् 2010 में जब ‘नया इंडिया’ निकालने का मैंने फितूर पाला तो वह वक्त अलग था। तब और अब के फर्क में ‘नया इंडिया’ और हम लोग भले न बदले हों लेकिन हिंदी, हिंदी पत्रकारिता, मीडिया, टीवी चैनल, साहित्य-संस्कृति और लोगों का मिजाज, देश का मिजाज तो हर तरह से बदल गया है। उस नाते हम कलमघसीट अप्रासंगिक और इररेलिविंट हैं। मेरा मानना है कि पिछले नौ वर्षों में दुनिया में किसी और देश (पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका में भी नहीं) में बुद्धि, शब्द, भाषा, संवेदना, सत्य, ज्ञान की मनुष्य चेतना पर उतनी गर्द जमा नहीं हुई, जितनी भारत के दिमाग को कुंद करते हुए जमी है।
उस नाते ‘नया इंडिया’ और मेरा यह सौभाग्य या दुर्भाग्य है जो आजाद भारत के इतिहास के उस कालखंड का ‘नया इंडिया’वह साक्षी बना है यावह दस्तावेज है, जिसमें इंडिया के इलहामी‘न्यू इंडिया’में बदलने की प्रक्रिया-रीति-नीति, फैसलों की लगातार विवेचना है, खुलासा है। हां, नौ वर्ष में वह ‘न्यू इंडिया’बना है जिसमें सबकुछप्रायोजित है। खबर, विचार, बुद्धि सब प्रायोजित। ‘न्यू इंडिया’में बुद्धि, तर्क और विचार-विमर्श का न कोई मान है और न इस सबकी जरूरत है।इसके व्यवहार में लोकतंत्र का अमृतकाल, जहां भक्तिकाल में परिवर्तित है वही अभिव्यक्ति की आजादी चुप्पी, भयाकुलता और चारणस्तुति के कर्तव्यपथ पर चलते हुए।
ऐसा भी भारत में होगा, इसका सन् 2010 की अक्षय तृतीया के दिन मुझे रत्ती भर भान नहीं था। अखबार, मीडिया, पत्रकारिता की जिंदादिली, बहादुरी और विचार-बौद्धिकता की खुद्दारी कभी किसी प्रधानमंत्री के आगे अपनी दुकान चलाने के लिए गिड़गिड़ाते मिलेगी, ऐसा सिनोरियो कभी सोचा नहीं। मेरा मानना था और है कि भारत में आजादी से पहले और आजादी के बाद तमाम अखबार मालिकों ने (बिड़ला, गोयनका, डालमिया से लेकर ‘दैनिक जागरण’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘नई दुनिया’ आदि के तमाम पूर्वज लाला मालिक) अखबार छापने का काम खबर देनेऔर खबर लेने तथा समाज-देश के सरोकार में ताकतवर से भिड़ने (अंग्रेज हो या नेहरू)जवाबतलबी के पत्रकारी धर्म से प्रेरित हो कर शुरू किया। सेठ डालमिया (टाइम्स ग्रुप के आजादी बाद के मालिक) ने पंडित नेहरू की नाक में दम कर दिया था तो गोयनका ने इंदिरा-राजीव सरकार को हैसियत दिखलाई। अखबार निकालना धंधा जरूर था लेकिन पेशेगत धर्म की ईमानदारी में। तभी सेठों की इज्जत थी, मान था। और आज उन्ही के वंशज शोभना, समीर-विनीत या अरूण पुरी की संतानें इन दिनों कैसे दुकान चलवाने के लिए प्रधानमंत्री के आगे घिघियाते हुए भी सरकार में बिना मान-सम्मान के हैं! सब मालिक-संपादक कातर भाव टकटकी लगाए प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के आगे घिघियाते हुए मिलेंगे कि जनाब हमारी ओर भी कृपादृष्टि करें। इतना ही नहीं पीएमओ के कारिंदे राष्ट्रीय अखबारों-चैनलों को दिन काशिड्यूल भेजते हुए डिक्टेट करते हैं कि आज यह दिखाना है और फलां हेडिंग व फलां फोटो छपेगी। इतनी जलालत के बावजूद लाखों-करोड़ों रुपए कमाने वाले लगभग सभी संपादक-मालिक हम धन्य हुए हुजूर के भाव में अपनी दुकान चलाने के लिए प्रधानमंत्री का धन्यवाद करते दिखेंगे!
इस सबकी मैंने न सन् 2010 में कल्पना की थी और न ही इमरजेंसी के वक्त में ऐसा होते देखा। मेरी पत्रकारिता के2014 तक के 38 वर्षों के अनुभव में आपातकाल के अखबारों का भी अनुभव है। तब इंदिरा गांधी की सेंसरशिप थी। ‘नई दुनिया’, ‘स्टेट्समेन’ जैसे समाचारपत्रों ने उस वक्त समाचार-संपादकीय की जगह खाली छोड़ विरोध प्रदर्शित किया। खबरें सेंसर हुईं तो उन्हें नहीं छापा।लेकिन यह तो तब भी नहीं था जोबिड़ला, साहू-जैन के अखबारों को इंदिरा गांधी, वीसी शुक्ला की मीडिया टीम सेऐसे मैसेज भेजे गए हो कि आज यह छपेगा या यह हेडिंग बनेगी और सरकार के ऐसे-ऐसे तराने बनाएं नहीं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें!
पर मैं किसी को दोषी नहीं मानता हूं। इसलिए कि मामला सभी हिंदुओं के डीएनए का है। नरेंद्र मोदी ने हम हिंदुओं के गुलाम, भयाकुल, भूखे और भक्ति भरे डीएनए को अपने कार्यकाल में इतना ओपन किया है किवैश्विक थिंकटैंक, चाइनीज-इस्लामी-पश्चिमीसभ्यताओं सभी को समझ आया होगा कि अरे, हिंदू तो वही है जो थे। भयाकुल, गुलाम, अंधविश्वासी और इलहामों में जीने वाले! मैंने एक दफा नरेंद्र मोदी का आभार व्यक्त करते हुए लिखा था कि आपका धन्यवाद जो हिंदुओं के डीएनए की गुलामी, भयाकुलता, दैन्यता, बुद्धिहीनता की इक्कीसवीं सदी में साक्षात अनुभूति करवाई। और इस विचार, इस शोध की जरूरत बनाई कि हिंदू होना भला क्या है?
हो सकता है मेरा इस तरह सोचना गलत हो। आखिर तेरह वर्षों के मेरे अनुभवों ने भी मेरे आग्रह-पूर्वाग्रह का इकोसिस्टम बनाया है। मैं और ‘नया इंडिया’ दोनों मुख्यधारा से कटे हुए हैं। मैं सचमुच उस सोशल मीडिया, सुबह-शाम के उस राष्ट्रीय नैरेटिव तथा उस प्रायोजित विश्वगुरूता से पूरी तरह कटा हुआ हूं जो ‘न्यू इंडिया” की उपलब्धि है। इसी से तेरह वर्षों की भारत क्रांति है। वह क्रांति, जिससे हिंदू मानस ने बुद्धि और सत्य का विकल्प बना डाला! क्या सत्य नहीं है कि आज 140 करोड़ लोगों का समाज अपनी दिमाग तंत्रिकाओं में सोशल मीडिया से अमृत पाता हुआ है और लोगउसकी खुशी व आभासी दुनिया में जी रहेहैं।
पिछले नौ वर्ष की एक खूबी यह भी है कि भारतीयों की शिक्षा-दीक्षा में ज्ञान-विचार की वह पुरानी शास्त्रीय, सृजनात्मक धुन खत्म है कि चलो आज कोई किताब पढ़ें! चलो कोई कहानी-कविता लिखें! किसी सम-सामयिक विषय पर तर्कपूर्ण लेख लिखें या पढ़ें। न लिखने को कुछ है और न पढ़ने को। 140 करोड़ लोगों की भीड़ में हिंदी की हजार किताबें नहीं बिकतीं तो पठनीय पत्र-पत्रिकाएं उंगलियों पर गिनने जितनी भी नहीं। न ही किसी भी माध्यम (पत्र-पत्रिकाओं से लेकर वेबसाइट्स) में वह पैसा, वह सामर्थ्य है, जो बेबाक-विचारवान लेखन या सृजनात्मकता को कायदे का पारिश्रमिक दे कर या मान-सम्मान बनवा कर वह पुराना इकोसिस्टम लौटाए, जो भारत के लेखन-साहित्य-पत्रकारिता के गोल्डेन दशकों में कभी था।जाहिर है इस सबको खत्म करना भी नौ वर्षो का प्रमुख उद्देश्य रहा है। ज्ञान, बुद्धि, पढ़ने-लिखने, जेएनयू, हार्वर्ड भला इन सबकी भारत समाज और नस्ल को जरूरत क्या जब सोशल मीडिया और हार्डवर्क से सब चलता हुआ है।
सो तेरह वर्ष! भारत के बदलने के वर्ष। और उस बदलने पर बेबाक लिखते जाने वाला ‘नया इंडिया’। समय का यहसंयोग सचमुच एक वह अनचाहा फल है, जिस पर मुझे और ‘नया इंडिया’ टीम को गौरव करना चाहिए। मेरा निश्चित विश्वास है कि ‘न्यू इंडिया’ के गुजरे तेरह वर्ष आजाद भारत के पहले सौ वर्षों का वह इतिहास खंड बनेगा, जिसे याद करते हुए मौजूदा 140 करोड़ लोगों की पीढ़ियां बार-बार रोएंगी कि-लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई!
और खता कैसी-कैसी, उसकी साल-दर-साल की दास्तां में ‘नया इंडिया’ का बतौर दस्तावेज बनते जाना यह धन्य भाग्य।मतलब किसी हिंदीभाषी में लम्हों की खता का सवाल हुआऔर पूछा या देखाकि जरा ‘नया इंडिया’ की पुरानी फाइल देखी जाए…आखिर उन्होंने तब क्या लिखा था, जब ऐसे आत्मघाती फैसले हुए थे!…
बहरहाल, ‘नया इंडिया’ के सभी उन पाठकों, शुभेच्छुओं का धन्यवाद और मन से आभार जो समय-समय पर अपनी राय, अपनी प्रतिक्रिया और हौसले की वह प्राणवायु देते हैं, जिसकी वजह से ‘न्यू इंडिया’ के वक्त में भी ‘नया इंडिया’ धड़कता हुआ और जिंदा है।