nayaindia karnataka assembly election results बांध फूटा! क्या मोदी मानेंगे?

बांध फूटा! क्या मोदी मानेंगे?

रणनीति

कोशिश हरसंभव हुई। नरेंद्र मोदी-योगी आदित्यनाथ, अमित शाह ने सब कुछ दांव पर लगाया। जय श्रीराम, बजरंग बली और महादेव याकि हिंदू देवी-देवताओं की आन-बान-शान भी दांव पर लगाई गई। बावजूद सबके कर्नाटक में भाजपा का घड़ा फूटा। भाजपा बह गई। मतदाताओं ने भाजपा को कांग्रेस से अधिक महाभ्रष्ट करार देकर उसे प्रदेश से बेदखल किया। पर मोदी क्या ऐसा मानते हुए होंगे? क्या उन्हें लगा होगा कि जनता में उनका तिलिस्म खत्म होता हुआ है? सवाल मुश्किल है। इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी अपने आपको जितना शक्तिमान दिखलाते हैं उतनी ही भयाकुलता व असुरक्षा में सांस लेते हैं। मैं नरेंद्र मोदी को जितना जानता-समझता हूं उसमें मेरा मानना है वे चिंता में होंगे तो लाचार भी। इसलिए क्योंकि उन्होने नौ वर्षों में सत्ता का अपना वह मकड़जाल बनाया है, जिसमें सोचने-विचारने, नया कुछ रचने की गुजांइश नहीं है। अपने इकोसिस्टम में वे आत्ममुग्धता में जहां अपने को सर्वशक्तिमान मानते हैं तो सर्वज्ञ और ईश्वर का अवतार।इस स्वनिर्मित मकड़जाल से बाहर निकल कर वे नए सिरे से शासन और चुनाव लड़ने के तरीके नहीं बना सकते। गौर करें, पिछले नौ वर्षों में उनका चुनाव लड़ने का अंदाज किस तरह डेवलप हुआ है। सौ टका आत्मकेंद्रित। उन्होंने कर्नाटक में करोड़ों रुपए के फूल अपने और अपने लंगूरों पर बरसवाए होंगे। भला क्यों? इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी अब प्रचारक, नेता और प्रधानमंत्री से ऊपर अपने को अवतारी देवता मानते हैं। वे चुनावी रंगमंच-सभा मंच पर, शोभा यात्रा में सभी शृंगारों के साथ एकत्र की गई भीड़ से इस भाव जयकारा लगवाते हैं, फूल बरसवाते हैं, जैसे भगवानीजी की अमृतवाणी, शोभा यात्रा और भगवानजी के दर्शनों का जनता के लिए मौका हो।

दूसरी बात, कर्नाटक में 36 प्रतिशत भक्तों के वोट मिले हैं तो इसकी संतुष्टि से मोदी यह सोचते हुए होंगे कि बसवराज बोम्मई कुपात्र था इसलिए मेरी मेहनत और बजरंग बली के बावजूद नहीं जीते। मगर जब प्रधानमंत्री चुनाव का 2024 में समय आएगा तो आकाश से उन पर जहां रामजी, शिवजी, बजरंग बली फूलों की वर्षा करेंगे तो फ्लोटिंग वोट भी लौट आएंगे। सो, हार के झटके के बावजूद नरेंद्र मोदी आश्वस्त होंगे। वैसे ही जैसे मकड़ी को यह कभी अहसास नहीं होता कि उसका गुंथा जाल अंततः उसे जकड़ने वाला है।

मेरा मानना है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री निवास और प्रधानमंत्री दफ्तर के इकोसिस्टम में एकतरफा फीड़बैक की व्यवस्था नोटबंदी के वक्त से चली आ रही है। जैसे नोटबंदी की सबने उनके आगे वाह की और यह हल्ला बनवाया कि असंभव तो मोदी से ही संभव है। इसलिए मोदी ने इलहाम में आर्थिकी के साफ-सुथरी, भ्रष्टाचार मुक्त होने का ख्याल लगातारपाला हुआ है। ऐसे ही वे कर्नाटक पर कुछ इस तरह के इलहाम में विचार करते हुए हो सकते हैं कि कर्नाटक में चुनाव इसलिए हारे हैं क्योंकि जेपी नड्डा और अमित शाह ने उन पर फूलों की बरसात कम करवाई। उनकी महिमा को गालियों में बदलने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे व उनके बेटे को पहले क्यों नहीं ईडी-सीबीआई से दबा दिया? कांग्रेसियों के पास पैसा कैसे था? आरएसएएस के कार्यकर्ताओं और प्रचारकों ने ढिलाई बरती। इन्हें कसना होगा। लहर सिंह ने क्यों नहीं येदियुरप्पा-बोम्मई और बेंगलुरू के मीडिया को कायदे से हैंडल किया? क्यों अमित शाह ने बीएल संतोष और प्रहलाद जोशी से सही ढंग से काम नहीं कराया? कर्नाटक की नस-नस जानते हुए भी दतात्रेय होसबोले ने संघ की मशीनरी से हलाल, हिजाब, टीपू की घर-घर में चर्चा क्यों नहीं बनवाई? कैसे बूथ-पर्चा प्रमुख लापरवाह रहे, आदि, आदि।

मतलब सवर्ज्ञ मोदीजी को उस हर कमी का इलहाम हो गया होगा, जिससे भाजपा के वोट 36 प्रतिशत पर अटके और कांग्रेस चुनाव जीती। तभी नरेंद्र मोदी के वैयक्तिक इलहाम के अलावा भाजपा-संघ परिवार में कर्नाटक चुनाव पर न समीक्षा संभव है और न रीति-नीति व रणनीति में परिवर्तन मुमकिन है। आखिर मकड़ी का मकड़जाल स्ट्रक्चर जब बना हुआ है,उससे जीना व सुरक्षा है तो सब कुछ वैसे ही चलेगा जैसे चलता

आया है।

दरअसल नरेंद्र मोदी 2014 की छप्पर फाड़ जीत के दिन से स्थायी तौर पर बौराए हुए हैं। उनका मानना है कि सब कुछ मेरे कारण है। मैं यह पहले भी लिखता था और अब भी मानता हूं कि परिस्थितियों और समय ने मोदी को प्रधानमंत्री का अवसर दिया। लेकिन नरेंद्र मोदी ने जीतने के बाद धार लिया कि मैं भाग्यशाली और हिंदू मेरे भक्त हैं तो वजह ईश्वरीय अवतार। ऐसा उन सब समाजों के हर नेता के साथ होता है जो धर्म-आईडेंटिटी-विचार की पोपुलिस्ट राजनीति में मौका पाते हैं। मौके के बाद वे आत्मकेंद्रित-आत्ममुग्धता में जाने-अनजाने आत्मघाती मकड़जाल बनाते हैं। भाजपा के मामले में जानकारों-पार्टी नेताओं को भ्रम है कि मोदी के इकोसिस्टम में मोहन भागवत, जेपी नड्डा, अमित शाह, राजनाथ सिंह याकि भाजपा-संघ परिवार के फलां-फलां लोगों का मतलब है। तथ्य नोट रखें इनमें किसी की चिंदी भर भी मजाल नहीं है जो मोदी के आगे उन्हें आईना दिखाने वाला एक वाक्य बोलें! नोटबंदी को गलत बताएं या अडानी से बिगड़ी इमेज का जिक्र करें! कर्नाटक में घड़ा फूट गया हो, भलेफ्लडगेट खुल गया हो लेकिन न कैबिनेट का कोई बंदा मोदी को समझा सकता है और न भाजपा संसदीय बोर्ड में मोदी के आगे किसी में बेबाक विचारने की हिम्मत है। हां, मोदी की कृपा पा कर उनसे दुकान चलवा सकते हैं। सूबेदार-सिपहसालार, चाणक्य आदि बन सकते हैं लेकिन किसी में हिम्मत नहीं है जो उनके आगे यह कहे कि अब हम भ्रष्टाचारी माने जा रहे हैं। या क्यों कर्नाटक में दूसरी पार्टी से दलबदलू नेता को लेकर उसे मुख्यमंत्री बनाया? या संघ-भाजपा के स्वदेशी, चीन से निर्भरता खत्म करने जैसे एजेंडे पर काम क्यों नहीं हो रहा है?

कहते है इन दिनों संघ के आला पदाधिकारियों याकि मोहन भागवत, दतात्रेय आदि से नरेंद्र मोदी का सीधा संवाद लगभग नहीं के बराबर है। मोदी की तरफ से बीएल संतोष अकेले सब कोऑर्डिनेट करते हुए हैं। आरएसएस सिर्फ गर्दन हिलाता है। इस एक संभावना को नोट रखें कि संघ के गढ़ मध्य प्रदेश में अपने इलहाम में नरेंद्र मोदी ने संघ को कहा है कि अपनी मंडल बैठकों में ज्योतिरादित्य के अनुकूल चर्चा करवाओ। इसलिए संभव है कि एक दिन अचानक नरेंद्र मोदी के इस आदेश पर अमल हो कि शिवराज सिंह चौहान या प्रदेश का दूसरा कोई नेता लायक नहीं है जो आगे चुनाव जीता सके। इसलिए ज्योतिरादित्य की बतौर मुख्यमंत्री शपथ हो।

सो, कुल मिलाकर सवर्ज्ञ नरेंद्र मोदी के ही सब फैसले हैं। समय ने उन्हें मौका देकर उनमें वह अहम भरा कि वे अपने को वक्त का बादशाह मानते हैं। यह कुल मिलाकर समयचक्र का मामलाहै। एक वक्त समय सचमुच नरेंद्र मोदी के लिए सब कुछ बनाता हुआ था। घटनाएं होती थी। पर अब वक्त बदलता हुआ है। मेरा ऑब्जर्वेशन है कि नंवबर 2022 से घटनाएं औरउनके फैसले विपरित परिणामों के हैं। अडानी समूह का भांडा फोड़ने वाली हिंडनबर्ग रिपोर्ट, संसद में राहुल गांधी का भाषण, और राहुल की ताबड़तोड़ सांसदी खत्म करने, राहुल गांधी को उनके वास्तु दोष वाले घर से बेदखल करने (एक वास्तु जानकार के अनुसार देखिए उसके बाद राहुल को क्या फायदा हुआ!) से लेकर मनीष सिसोदिया, अरविंद केजरीवाल पर ईडी-सीबीआई के जाल और जेल भेजने की घटनाओं का परिणाम क्या होता दिख रहा है? नरेंद्र मोदी जो चाह रहे हैं उससे उलटा हो रहा है। राहुल गांधी सजा पा कर बेघर हो कर कतई खत्म और बदनाम नहीं हुए।

पता नहीं 13 मई 2023 के दिन मोदी और शाह ने बेंगलुरू में भाव-विह्वल डीके शिवकुमार का चेहरा देखा या नहीं। वे शिवकुमार जिन्हें भ्रष्ट करार देते हुए मोदी-शाह ने न केवल उन्हें जेल में डाला, बल्कि अपनी लंगूर सेना से परिवारजनों, बहू-बेटियों सबको प्रताड़ित कर कर्नाटक के घर-घर यह हल्ला बनवाया कि शिवकुमार महाभ्रष्ट! उसकी कांग्रेस पार्टी और राहुल-सोनिया गांधी सब भ्रष्ट। लेकिन 13 मई को क्या घटा? कर्नाटक की जनता ने 73.3 प्रतिशत का रिकार्ड मतदान करके उसी शिवकुमार की अध्यक्षता वाली कांग्रेस को पूर्ण बहुमत के साथ जिताया। शिवकुमार के सिर पर विजय का सेहरा बंधा! सोचें, यदि लोग रिकॉर्ड तोड़ मतदान नहीं करते तो भाजपा 36 प्रतिशत वोटों से मजे से 80-90 सीटें जीत लेती। लेकिन जनता को बतलाना था कि भ्रष्ट, अत्याचारी भाजपा है न कि कांग्रेस या विपक्ष तो 73 प्रतिशत से अधिक मतदाता घरों से बाहर निकले।

और ऐसा आगे जेलों में डाले गए एनसीपी-उद्धव सेना के नेताओं के प्रदेश महाराष्ट्र में होना है। लालू-तेजस्वी के बिहार में होना है। ममता-अभिषेक बनर्जी के बंगाल में होना है। भूपेश बघेल के छतीसगढ़ में होना है। हेमंत सोरेन के झारखंड में होना है!

उस नाते समय यह कमाल दिखलाने लगा है कि भाजपा रखे अपने 37-40 प्रतिशत भक्त वोट अपने पास। मगर कर्नाटक से फूट पड़ा है अहंकार निर्मित वह बांध, जिसमें नोटबंदी के बाद से लोगों के सिसकते आंसू लगातार जमा होते हुए है। गरीबी, बेरोजगारी, बदहाली और सब कुछ चौपट होने के ये वे आंसू हैं, जो प्रायोजित मीडिया में दबे हैं और जिनकी झूठ के आगे जुबान भले नहीं हो लेकिन जिन्हे वोट का अधिकार तो है। यह भी सबको मालूम है कि दुखी-बदहाल-भयाकुल भारतीयों की भीड़ की तादाद, उनके वोटों की संख्या 55-60 प्रतिशत तो है ही!

इन्हीं साठ प्रतिशत लोगों की भीड़ के माहौल ने कर्नाटक के 43 प्रतिशत मतदाताओं ने 13 मई को नरेंद्र मोदी का तिलिस्म तोड़ा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह का यह भ्रम तोड़ा की वे अजेय और अमर हैं। उन्हें बजरंग बली काएकाधिकारी आशीर्वाद प्राप्त है। वे फिर पुलवामा जैसा शौर्य दिखा देंगे। वे कर्नाटक में हारे कोई बात नहीं आगे अपने जादू-टोने की मायावी शक्तियों को धारदार बना कर विपक्ष को पूरी तरह कुचल डालेंगे। न विपक्ष एकजुट होगा और न उसके पास चुनाव लड़ने के साधन होंगे जो वे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, तेलंगाना और फिर 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने लायक रहे।

ठीक वही अहंकार जो कभी इमरजेंसी में इंदिरा गांधी को भी था। लेकिन याद करे जेलों में बंद, बिना पैसे वाले नेताओं ने तब क्या वैसे ही चुनाव नहीं लड़ा और जीता था जैसे झूठे आरोपों, झूठी बदनामी, जोर-जबरदस्ती से सत्ता के दुरूपयोग में मोदी-शाह के तंत्र ने शिवकुमार, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी, हेमंत सोरेन आदि न जाने कितने नेता-कार्यकर्ता-आलोचकों को जेल में डाला और बावजूद इसके वे लड़ते हुए है। और यह तो हर हिंदू मानता है कि बजरंग बली के यहां देर है अंधेर नहीं!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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