अब जरा करोलबाग-रैगरपुरा के सोमवार बाजार को देंखे। सोमवार की छुट्टी के दिनतीस साल पहले भी फुटपाथ बाजार लगाता था। पर कुछ सडकों पर ही। अलग-बगल का मध्य वर्ग तब खरीददारी करता था। प्रमुख तौर पर कपड़ों की खरीददारी। और अब? …पूरा इलाका मानों मेले का हाट बाजार… इतनी भीड की यह सोच दिमाग चकरा जाएगा कि करोलबाग इलाके में कहां जगह है जो झुग्गी-झोपड़ी बस्ती वाली ऐसी भीड… कपडे अभी भी बिकते है जैसे दो सौ-ढाई सौ रू की जिंस या गरम कपड़े… प्लास्टिक का सामान,तेल-मसाले, और रोजमर्रा की जरूरतों व साग-सब्जी और आउटिग के लिए भठूरे, चाईनीजी के रेहड़ी मतलब गांव के हाट बाजार का वह नजारा जिससे लगेगा कि देश की राजधानी का एक पॉश इलाका सतह के नीचे की जिंदगी का कैसाविशाल हाट बाजार है। पहले रैगरपुरा में जूते बनते थे मगर न अब बनाने वाले है और न बनवाने वाले। कहते है चीन और आगरा की फैक्ट्रीयों में बने बेहद सस्ते सामानों और जूतों का यह इलाका नामी बाजार है।
तीसरा उदाहरण इंडिया गेट का। रैगरपुरा की भीड और हाट बाजार के साये में धीरे-धीरे ढलता नया इलाका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडियागेट पर तिरंगी लाइट, नई लाईटिग और कर्तव्यपथ का ऐसा प्रचार बनवाया कि जो इंडिया गेट तीस-पैतीस साल पहले दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवारों, सरकारी कर्मचारियों, नौकरीपेशा और बाहर से आए टूरिस्टों के चेहरों से भरा होता था अब वह उन झुग्गीझोपडियों, गरीब-कच्ची-पकी बस्ती के लोगो कीआऊटिंग से भरा है जो कनाट पैलेस, आलीशान मॉल्स की बजाय देखने-घूमने, बच्चों को बहलाने के लिए, चाट-आईसक्रीम खाने व टाइमपास में इंडिया गेट को पसंद करने लग है। सो चालीस साल की हिंदू विकास दर की यह उपलब्धि है जो दिल्ली का मध्यमर्ग, सरकारी कर्मचारी परिवारों को मॉल जैसे नए ठिकाने मिलेतो कच्ची-पक्की पुरानी-नई बस्तियों के दरिद्रनारायणों के लिए इंडियागेट घूमने के अवसर का विकास!
अब दिल्ली के एम्स इलाके को देंखे। अस्सी-नब्बे के दशक की मरीज भीड के मुकाबले अब भीड भारी। वह तब जब पूरे देश में जगह-जगह एम्स खुल गए है। बहरहाल इलाके में दरिद्रनारायण मरीजों और उनके परिवारोंको फुटपाथ पर बैठे, सोते, खाते हुए देखेंगे। तब और अब के बीच की हिंदू विकास दर की उन्नति यह है कि पहले लोगों के लिए केवल फुटपाथ था। विकास हुआ और उससे सर्दियों में तिरपाल के रैन-बसेंरे बने। चाहे तो इसे केजरीवाल-मोदी राज के अमृत काल में हुई प्रगति माने कि अब सफेद रंग की प्लास्टिक के आधुनिक केनोपी टेंट के रेनबसरे है। कुछ कंटेनर भी रख दिए गए है। बावजूद इसके फुटपाथ, चौराहे के बीच घास के सर्कल में लोग सुबह, रात, दिन सोए मिलेगें। एम्स इलाका अब इसलिए भी जाना जाता है कि शहर में पुण्य करने और पाने की अच्छी जगह है एम्स। गाडी में खाने-पीने का सामान भर कर ले जाओं।…जैसे ही धर्मादा करने पहुंचे लोग पूड़ी-दाल, खाना लेने के लिए लाईन लगाए हाजिर। सो एम्स इलाके के विकास का साइड विकास पैसे वालों को झटपट पुण्य दिलवाने का भी!
यही वह हिंदू विकास दर है जिसे मैं इंदिरा गांधी के वक्त भारत के दरिद्रनारायण चेहरों का शहरों में आने शुरू मानता हूं…झुग्गी-झोपडिया बनी, वे फिर गरीबी हटाओं की राजनीति की भीड हुई। भीख-राशन तथा घरों में कामकाज से लोगों का गरीबी उन्मूलन शुरू हुआ। इनके नामपर तब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। राशन के बाद रेवडियां चालू हुई। गरीब तक फ्री बिजली, फ्री पानी का इंफ्रास्टक्चर पहुंचा…महानगरों में देहात के हाट बाजार लगने शुरु हुए… बिना पढ़ाई के बच्चों को सेकेंडरी पास के सर्टिफिकेट बंटे। आयुष्मान, जनधन, सस्ते फोन, साईकिल, कपड़े, मनरेगा आदि के सामाजिक कल्याणों से एक तरफ वेलफेयर समाज बना तो दूसरी और मेरे इन चारों उदाहरणों के अगल-बगल के ही वसंतविहार से ले कर तमाम तरह के वे शपिंग मॉल, एयर ट्रैफिक, विदेश यात्राओं तथा विश्व के पांच सौ खरबपतियों में अपने अंबानी-अडानी का क्रोनी एपांयर बना। और जीडीपी के आंकडे उछलते हुए। बावजूद इसके अंतिम सत्य कि देश में वायरस आया तो 140 करोड लोगों की भीड के करोड़ों प्रतिनिधी चेहरे महानगरों से भागते हुए करोंडों की संख्या मेंभरी गर्मी में भूखे-नंगे हाईवे पर गांव लौटते दिखाई दिए… इतना ही फिर महामारी की शिकार लाशे गंगा में बहती, गंगा किनारे लावारिश जलती भी दिखलाई दी। इतिहास में अमृतकाल का सत्य दर्ज करवाते हुए।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी के जीडीपी के साढे चार- छह-आठ प्रतिशत विकास आईने में देखें या रघुराम राजन के याद कराए गए ढाई से साढे तीन प्रतिशत की कछुआई विकास दर के आईने को देंखे, असल सत्य हम बूझ ही नहीं सकते। मगर हां, दुनिया सदियों से जानती है!