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17-06-2025 Vol 19

चार सौ दिन बनाम 31 सौ दिन!

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लोकसभा चुनाव में चार सौ दिन बचे हैं, इस बात में यह भी अंतर्निहित है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साढ़े तीन हजार दिन भी पूरे होंगे, जिसमें से अब तक 31 सौ दिन गुजर चुके है। तो सवाल है गुजरे 31 सौ दिनों में क्या हुआ? बतौर प्रधानमंत्री 31 सौ दिन केअपने कार्यकाल में मोदी ने कई संकल्प किए। कई टारगेट फिक्स किए। लेकिन अफसोस की बात जो उनमें से एक भी संकल्प पूरा नहीं हुआ। इसलिए क्योंकि जिस शिद्दत से उन्होंने चुनाव के चार सौ दिन बचे होने की बात कही और वे अबऔर उनकी पार्टी व सरकार जैसे जुटेंगे वैसे कभी भी दूसरे संकल्पों को पूरा करने के लिए नहीं जुटे।

याद करें कैसे नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने देश के लोगों से 50 दिन का समय मांगा था। आठ नवंबर 2016 को नोटबंदी का ऐलान करने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री मोदी ने गोवा में एक कार्यक्रम में कहा था- भाइयों, बहनों मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं, 50 दिन, 30 दिसंबर तक मौका दीजिए मेरे भाइयों, बहनों अगर 30 दिसंबर के बाद कोई कमी रह जाए, मेरी कोई गलती निकल जाए, मेरा कोई इरादा गलत निकल जाए, आप जिस चौराहे पर मुझे खड़ा करेंगे, मैं खड़ा होकर, देश जो सजा करेगा वह सजा भुगतने को तैयार हूं। उन्होंने इसके साथ यह भी कहा था कि 50 दिन तक आपको परेशानी होगी लेकिन उसके बाद जैसे हिंदुस्तान का सपना आपने देखा है, वैसा हिंदुस्तान आपको देने का वादा करता हूं।

अब सोचें, उस संकल्प का क्या हुआ? 50 दिन नहीं, बल्कि 50 महीने से ज्यादा बीत गए लेकिन क्या वैसा हिंदुस्तान मिला है, जैसा लोगों ने सोचा था? क्या काला धन खत्म हो गया, भ्रष्टाचार रूक गया, जाली नोट खत्म हो गए. देश में कैशलेस इकोनॉमी बन गई, आतंकवादियों और नक्सलियों की कमर टूट गई?

इसी तरह प्रधानमंत्री की ओर से बताए गएदूसरे संकल्पों व टाइमलाइन को देखें,तो तस्वीर और साफ होगी। उन्होंने 2022 को लेकर एक बड़ा लक्ष्य तय किया था। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल के पांच साल का कोई लक्ष्य तय नहीं किया, बल्कि सारे लक्ष्य 2022 के तय किए। उन सबको देश की आजादी के अमृत महोत्सव से जोड़ा। उन्होंने बार बार कहा कि देश की आजादी के 75 साल होंगे, तब तक देश बदल चुका होगा। आजादी की 75वीं वर्षगांठ के लिए कई लक्ष्य तय किए। लेकिन क्या सरकार उन लक्ष्यों को हासिल कर सकी? हकीकत है कि उनमें से एक भी लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। कारण यह है कि सरकार ने उन्हें हासिल करने के लिए उस शिद्दत से काम ही नहीं किया, जिस शिद्दत से चुनाव लडे गए। या चुनाव के लिए अगले चार सौ दिन में काम होगा! पार्टी, सरकार और पूरी मशीनरी जिस अंदाज में चुनाव में लगती है वह अभूतपूर्व होता है लेकिन सरकार के इरादों को हासिल करने के काममें जोश गायब होता है।

यदि ऐसा नहीं होता तो घोषणा-वायदे के मुताबिक आज देश के हर नागरिक के सिर पर अपनी छत होती। प्रधानमंत्री ने 2016 में वादा किया था कि 2022 तक देश के हर नागरिक को उसका घर मिल जाएगा। वह समय सीमा बीत चुकी है और सरकार टारगेट से कोसों दूर है। आज वास्तविकता है कि सिर्फ इस सीजन की ठंड में देश के अलग-अलग हिस्सों में सड़कों पर सोने वाले हजारों लोगों की मौत की खबरें हैं। देश की विशाल आबादी झुग्गियों में रहती है। उनको कब घर मिलेगा यह तय नहीं है लेकिन लाखों लोग बेघर हैं, जिनको रैन बसेरा चाहिए, वह भी सरकार मुहैया नहीं करा पाई है।

इसी तरह 2016 में ही प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि देश के किसानों की आय 2022 तक दोगुनी हो जाएगी। कुछ दिन पहले सरकार के मंत्री ने ऐलान भी किया कि सरकार ने अपना वादा पूरा कर दिया। लेकिन हकीकत यह है कि यदि कृषि लागत में हुई बढ़ोतरी से हिसाब करें तो किसानों की आय एक चौथाई से ज्यादा नहीं बढ़ी है। इसके अलावा 2022 में बुलेट ट्रेन दौड़ने वाली थी, भारत माता की किसी संतान को अपने यान से अंतरिक्ष में जाना था, सौ स्मार्ट सिटी बन जाने थे, गंगा की सफाई हो जानी थी लेकिन इनमें से क्या किसी काम का टारगेट पूरा हुआ?

कह सकते हैं सरकारी वादों के साथ ऐसा ही होता है। कई फैक्टर होते हैं, जिनकी वजह से लक्ष्य समय पर पूरा नहीं हो पाता है। जैसे 2022 से पहले दो साल कोरोना महामारी में निकल गए। लेकिन ये बहाने नरेंद्र मोदी की सरकार पर लागू नहीं होते हैं क्योंकि उनका खुद का वादा है कि वे जो कहते हैं वह करके दिखा देते हैं, जबकि पहले की सरकारें सिर्फ कहती थीं। दूसरी बात यह है कि जब कोरोना के बीच सेंट्रल विस्टा का प्रोजेक्ट नहीं रूका, नए संसद भवन का प्रोजेक्ट नहीं रूका, सरकारी एजेंसियों और अदालत से विशेष अनुमति ले कर कोरोना के बीच भी ऐसे प्रोजेक्ट में तीन शिफ्ट में काम होता रहा, सर्दियों में एनवायरमेंटल इमरजेंसी के समय भी इन पर काम नहीं रूका तो वैसे ही बाकी प्रोजेक्टों पर काम क्यों नहीं हुआ? क्या किसी ने प्रधानमंत्री को यह कहते हुए सुना कि सबको घर देने का टारगेट पूरा करने में अब सिर्फ इतने दिन बचे हैं और उतने दिनों में लक्ष्य पूरा करना है? मगर ऐसा सिर्फ चुनाव के मामले में सुनने को मिलता है।

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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