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विपक्षी फॉर्मूला जीत की गारंटी नहीं

राष्ट्रीय गठबंधन एक मिथक-2: कर्नाटक के चुनाव नतीजों के बाद विपक्षी पार्टियां ज्यादा जोर-शोर से राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की बात करने लगी हैं। ममता बनर्जी ने आगे बढ़ कर बयान दिया कि कांग्रेस जिन राज्यों में मजबूत है वहां वे उसकी मदद करने को तैयार हैं और बदले में कांग्रेस दूसरी पार्टियों को उनकी ताकत वाले राज्यों में मदद करे। यह वही वन ऑन वन फॉर्मूला है, जिसकी चर्चा नीतीश कुमार ने दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मुलाकात में की थी। हकीकत यह है कि हर राज्य में यह फॉर्मूला न बन सकता है और न काम कर सकता है। एक तो यह व्यावहारिक नहीं है और दूसरे इससे जीत की गारंटी नहीं होती है। कुछ राज्यों की मिसाल से इसे समझा जा सकता है। कर्नाटक की मिसाल सबके सामने है, जहां कांग्रेस और जेडीएस साथ मिल कर लड़े थे और उनको 28 में से सिर्फ दो सीटें मिली थीं। दूसरे कई राज्यों में भी गठबंधन का ऐसा नतीजा हो सकता है। कर्नाटक के अलावा कुछ और राज्यों की स्थिति के आकलन से राजनीतिक तस्वीर और साफ होगी।

अगर केरल में देखें तो वहां पहले से सभी 20 सीटें भाजपा विरोधी पार्टियों के पास हैं, 19 सीट  कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के पास और एक सीट सीपीएम के नेतृत्व वाले एलडीएफ के पास। वहां अगर कांग्रेस और लेफ्ट दोनों मिल कर चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं तो सोचें, क्या होगा। अव्वल तो दोनों के बीच सीटों का बंटवारा ही संभव नहीं दिखता है, लेकिन अगर हो भी गया तो क्या फायदा होगा? हो सकता है कि विपक्ष को फिर सभी सीटें मिल जाएं, लेकिन वह तो पहले से उसके पास है। लेकिन दूसरी ओर भाजपा को विपक्ष का पूरा स्पेस मिल जाएगा, ध्रुवीकरण का उसका एजेंडा कामयाब होगा और अगर कोई सीट नहीं भी मिल पाई तो उसके वोटों में बड़ा इजाफा होगा। जाहिर है वहां अगर गठबंधन हुआ तो एकमात्र लाभार्थी भाजपा होगी।

इसी तरह तेलंगाना में भी अगर भाजपा विरोधी पार्टियों का गठबंधन बनता है तो उसका लाभ भाजपा को होगा। सांप्रदायिक रूप से पहले से विभाजित तेलंगाना में भाजपा बहुत कामयाब इसलिए भी नहीं हो पाती है क्योंकि केसीआर की पार्टी बीआरएस, कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी एमआईएम अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं। बीआरएस और कांग्रेस को मुस्लिम वोट मिलता है तो साथ ही हिंदू वोट भी मिलता है। ध्रुवीकरण कराने के लिए भाजपा को खुला मैदान नहीं मिल पाता है। ध्यान रहे ओवैसी की पार्टी सिर्फ हैदराबाद तक सीमित है। राज्य के बाकी हिस्सों में कांग्रेस और बीआरएस की लड़ाई होती है। पिछले चुनाव में बीआरएस को 47 फीसदी और कांग्रेस को 28 फीसदी वोट मिले थे, जबकि भाजपा सिर्फ सात फीसदी वोट ले पाई थी। जरूरी नहीं है कि कांग्रेस और बीआरएस मिल जाएं तो दोनों को 75 फीसदी वोट मिल जाएंगे। इनके वोट का अच्छा खासा हिस्सा भाजपा के साथ जा सकता है, जिससे वह सीटें तो पता नहीं कितनी जीत पाएगी लेकिन कर्नाटक की तरह दक्षिण के एक और राज्य में उसके पांव मजबूती से जमेंगे और सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस का होगा।

लगभग ऐसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल में है, जहां भाजपा ने काफी हद तक हिंदू एकजुटता बना दी है। उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी वोट और 18 सीटें मिली थीं। दो साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने बांग्ला अस्मिता के नाम पर चुनाव लड़ा था और बाहरी-भीतरी की लड़ाई बनवाई थी तब भी भाजपा को 38 फीसदी वोट मिले थे। कहने की जरूरत नहीं है कि यह लगभग पूरा हिंदू वोट है। ध्यान रहे राज्य में 70 फीसदी के करीब हिंदू आबादी है और भाजपा को लोकसभा में 41 व विधानसभा में 38 फीसदी वोट मिले, इसका मतलब है कि लोकसभा में लगभग 60 फीसदी हिंदुओं ने भाजपा को वोट दिया था। यह तब हुआ था, जब कांग्रेस और वामपंथी मोर्चा अलग अलग लड़े थे। कांग्रेस को 5.67 और लेफ्ट को 6.34 फीसदी वोट मिला था। दोनों को मिला कर 12 फीसदी वोट था। अगर ये दोनों पार्टियां नहीं होतीं और मुकाबला आमने सामने का होता तो सोचें, कैसा ध्रुवीकरण होता? प्रशांत किशोर पश्चिम बंगाल में 2021 में ममता बनर्जी की पार्टी को चुनाव लड़ा रहे थे और उनका कहना था कि जिस राज्य में 30 फीसदी के करीब अल्पसंख्यक वोट हों वहां भाजपा को जीतने के लिए 70 फीसदी हिंदू कंसोलिडेशन की जरूरत है। अगर तृणमूल कांग्रेस, लेफ्ट और कांग्रेस एक होते हैं तो बंगाल में यह कंसोलिडेशन हो सकता है। इसलिए बंगाल का चुनाव विपक्ष के लिए तलवार की धार पर चलने जैसा है। वहां विपक्षी एकजुटता उलटा असर डाल सकती है। वहां 60 फीसदी तक हिंदू कंसोलिडेशन हो चुका है अब अगर मोदी के खिलाफ मुस्लिम ध्रुवीकरण की चिंता में थोड़े से और हिंदू वोट भाजपा की ओर शिफ्ट हुए तो नतीजे हैरान करने वाले होंगे।

चौथी मिसाल झारखंड की है, जहां 2019 में कांग्रेस, जेएमएम, राजद और बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम चारों मिल कर लड़े थे और सिर्फ दो सीट जीत पाए। भाजपा और आजसू गठबंधन को 56 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम और राजद गठबंधन को सिर्फ 35 फीसदी वोट मिले। अब जेवीएम का विलय भाजपा में हो गया है। बाबूलाल मरांडी की घर वापसी हो गई है। तभी सवाल है कि अब क्या ऐसा स्थिति बन गई है, जिससे यह माना जाए कि जेएमएम, कांग्रेस और राजद गठबंधन भाजपा को हरा देगा? हालांकि झारखंड का मामला कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना से अलग है। उन राज्यों में तालमेल करना बहुत अच्छी रणनीति नहीं है लेकिन झारखंड में तालमेल अच्छी रणनीति होगी। इसी तरह बिहार में और अगर संभव हो सके तो उत्तर प्रदेश में भी तालमेल एक अच्छी रणनीति होगी।

असल में जहां भी भाजपा एक बड़ी ताकत है वहां अगर उसको हराने के लिए विपक्ष एकजुट होता है तो भाजपा को विक्टिम कार्ड खेलने में आसानी होती है। याद करें कैसे 1971 के लोकसभा चुनाव में सत्ता में होते हुए इंदिरा गांधी ने विक्टिम कार्ड खेला था। उन्होंने कहा था कि ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, विपक्ष कहता है इंदिरा हटाओ’। इसके बाद क्या हुआ था, सबको पता है। इसी तरह जैसे ही विपक्ष एकजुट होगा प्रधानमंत्री मोदी को कहने का मौका मिलेगा कि समूचा विपक्ष मिल कर उनको हटाने की कोशिश कर रहा है, जबकि वे भारत को विश्वगुरू बनाने की बात कर रहे हैं। यह नारा निश्चित रूप से पूरे देश में काम नहीं करेगा लेकिन एक बड़े हिस्से में यह नारा चलेगा। कुछ विशेषज्ञ राज्यों में गठबंधन की विफलता की संभावना को इस तर्क से खारिज करते हैं कि 2019 का चुनाव पुलवामा के बाद हुआ था और पूरा देश भावना के ज्वार में था। सवाल है कि 2024 से पहले देश धर्म और राष्ट्रवाद के ज्वार में नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है?

सो, यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि विपक्षी गठबंधन और हर सीट पर एक उम्मीदवार की बात व्यावहारिक सचाई से ज्यादा एक मिथक की तरह है। निश्चित रूप से इस पर बात होनी चाहिए, एक गठबंधन बनना भी चाहिए लेकिन सिर्फ उन्हीं राज्यों में आमने सामने का चुनाव बनाना चाहिए, जहां ध्रुवीकरण की संभावना कम है और विपक्ष के सामाजिक समीकरण बनाने की संभावना ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में मजबूत सामाजिक समीकरण की संभावना है लेकिन सपा और बसपा का साथ आना कई अराजनीतिक कारणों से संभव नहीं है। जिन राज्यों में पहले से कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है, जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि, वहां किसी गठबंधन की जरूरत ही नहीं है। केजरीवाल के असर वाले दो राज्यों- दिल्ली और पंजाब के साथ साथ महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु जैसे गिने चुने राज्यों को छोड़ दें तो बाकी देश में आमने सामने का चुनाव बनाना न संभव है और न व्यावहारिक।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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