nayaindia Sonia Gandhi भला भारत में राजनीति से संन्यास!
अपन तो कहेंगे

भला भारत में राजनीति से संन्यास!

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रायपुर के कांग्रेस अधिवेशन में सोनिया गांधी ने ‘पारी खत्म’ होने की बात कही। राजनीति से रिटायर होने का संकेत दिया। पर क्या यह संभव है? भारत में नेता न रिटायर होते हैं और न होने देते हैं। सोचें, आजाद भारत में पहले कब किस नेता ने रिटायर होने का ख्याल बताया? भारत में हिंदू संन्यासी भी जब भगवान बन कर सांसारिकता को नचाता है तो नेता का संन्यासी होना! आजाद भारत के कांग्रेस पुराण को पढ़ें या संघ पुराण को, इनमें नेताओं की रिटायरी का एक अध्याय नहीं मिलेगा। गांधी बुढ़ापे में सत्य के प्रयोग करते हुए थे तो अपने को भगवान बनाते हुए भी। नेहरू ने असफलताओं की निराशा-अस्वस्थता के बावजूद किसी दूसरे को सत्ता सुपुर्द करके आराम करने का ख्याल नहीं बनाया। देश के दूसरे प्रधानमंत्री (दिल्ली छोड़ कर गए मोरारजी के अपवाद को छोड़ कर) या पार्टी अध्यक्ष, मार्गदर्शक व देश-प्रदेश के सियासी कुल देवताओं में किसी ने भी दिमाग में राजनीति से रिटायर होने की नहीं सोची।

सो, संभव है सोनिया गांधी का कहा भी कांग्रेसी पूरा नहीं होने दें। ध्यान रहे सोनिया गांधी ने दिसंबर 2017 में अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद अपनी भूमिका को लेकर हुए सवाल पर कहा था कि “मैं रिटायर हो रही हूं’। मगर वे नहीं हुईं। वे कांग्रेस की चिंता करती रहीं। पार्टी 2019 का चुनाव हारी और राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया तो उन्होंने वापिस जिम्मेवारी संभाली। उस नाते रायपुर में उनका यह कहना मतलब वाली बात है कि मुझे इस बात की खुशी है कि मेरी पारी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के साथ समाप्त हो सकती है। साफ अर्थ है कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने या भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी की धमक के साथ उनमें जिम्मेवारी पूरे होने, पुत्रमोह में राहुल को ले कर जो सोचा था तो उसकी पूर्ति की खुशी के साथ पारी पूरी।

दिक्कत यह है कि 2023-24 के चुनाव सिर पर है। मोदी सरकार का अनुभव साक्षात है। ऐसे में न कांग्रेसी सोनिया गांधी के दस जनपथ की परिक्रमा छोड़ेंगे और न अन्य विरोधी पार्टियों के नेता एलायंस मामले में खड़गे-राहुल से कंफर्ट में होंगे और न कांग्रेसी नेता अनुशासित रहेंगे। सोनिया गांधी के कहे को जान कर कांग्रेसी रायपुर में ही कहने लगे कि भला राजनीति में कोई रिटायर होता है।

सत्य बात। यही हिंदू मनोविज्ञान है। मेरा मानना है कि हिंदू मानस भूख और भय के वे इतिहासजन्य मनोरोग लिए हुए हैं, जिसके कारण रिटायरी का आइडिया गुमनामी में खोने, अनाथ होने की कंपकंपी बनवा देता है। नेता हो या अफसर या सेठ या आम हिंदू, हर कोई जीवन के उस ढर्रे में विस्तार चाहेगा जिसमें उसने जिंदगी जी है। सभी का ध्येय ढर्रा बना रहे। रौब बना रहे। नाम बना रहे। सत्तावानों, सियासतदानों के मनोभाव में रिटायरी का अर्थ अपने आपको अप्रासंगिक बनाना है। जीवन की उन सुरक्षाओं-व्यवस्थाओं को छोड़ना है, जिनके बिना भारत में जीना, जीना नहीं है! यह मनोदशा न केवल हिंदुओं के मनोविज्ञान का मसला है, बल्कि भारत की व्यवस्था का कोढ़ भी है। तभी आश्चर्य नहीं जो दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक देशों में भारत संभवतया अकेला होगा जहां संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी, सुप्रीम कोर्ट के जज भी भूख में जिंदगी की पुण्यता, गरिमा को गंवा कर बेईमानी और जलालत से सांसदी, राज्यपाल जैसे पदों के लिए लपलपाते हैं।

दरअसल गुलाम इतिहास से भारत के कोर-कोर में सत्ता की वह महिमा और वह भूख है कि जिसने भी उसे पाया, राजनीति की तथा कुर्सी पर बैठा तो भीड़ (गुलामों) का राजा है। सत्ता के आले में विराजा मूर्तिवान है। कृपानिधान है। भक्ति और पूजा की आरती है। देश की बुद्धि, विमर्श, हेडलाइनों का जगदगुरू है। तभी भला कैसे कोई सब छोड़ बुढ़ापा (कल्पना करें, भारत के बीहड़ में अचानक कुर्सीवान और नेता का बिना बॉडीगार्ड, तामझाम, पहचान, हैसियत के निज जीवन हो) रिटायरी में गुजारेगा? सेवानिवृत्ति की जिंदगी क्या डरावनी नहीं लगेगी?

सचमुच भूख और भय ने भारत की भीड़ को, भारत के प्रभु वर्ग को, भारत के सत्तावानों को ठूंठ बनाया है। जिंदगी के उत्तरार्ध में भी इनकी इच्छा नहीं बनती कि अब वह करें जो पूर्वार्द्ध के ढर्रे की जिंदगी में, प्रोफेशनल एकरसता के बीच में देख-सुन और जानकर विचारा था कि वाह! क्या बात है। यही जीना है। मैं भी रिटायर होऊंगा। संस्मरण-किताब लिखूंगा। एडवेंचर करूंगा। प्रकृति को निहारूंगा। सुख-उल्लास के उन आत्मिक अनुभवों का जीवन रस भोगूंगा, जिनके बिना जिंदगी, जिंदगी नहीं। बकौल हिंदी साहित्य महामना हजारी प्रसाद द्विवेदी के -वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफ़ान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर, अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।’ या फिर उनका यह कथन कि जीना एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवन-रस के उपकरणों में!’

विषयांतर हो रहा है। असल बात इतिहास ने हिंदू दिल-दिमाग में भूख और भय को जीवन धुरी बनाया है। इसी से क्योंकि देश व्यवस्था में सुरक्षा-भयमुक्ति-तृप्ति-शक्तिमान जिंदगी है तो उससे बाहर हिंदू का सुख, आनंद, उल्लास है ही नहीं! इतना ही नहीं सत्ता के बोध व अहंकार में सत्तावान अपने आपको ईश्वर अवतार तथा कौम-देश के लिए अपरिहार्य मानने लगता है। देश का प्रधानमंत्री तो मानों श्रीकृष्ण जैसे सोलह ही कलाओं से युक्त जिंदगी का साक्षात अवतार। पंडित नेहरू अपने आपको भारत के लिए अपरिहार्य मानते थे। उनके साथ देश भी इस सवाल में अनुत्तरित था कि नेहरू के बाद है कौन? वहीं स्थिति सन् 2023 में मोदी के भारत में है। नरेंद्र मोदी खुद अपने आपको मोदी इज इंडिया मानते हैं तो हिंदू इस सवाल पर ठिठक जाते हैं कि मोदी का है कहां कोई विकल्प?

ऐसे ब्रिटेन, अमेरिका में न राजा सोचता है और न प्रजा। न ही वहां कोई ऐसी जिंदगी जीता है। हाल के दो उदाहरण गौरतलब हैं। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न और स्कॉटलैंड का आठ वर्षों से नेतृत्व कर रही प्रथम मंत्री निकोला स्टर्जन ने अचानक एक दिन रिटायर होने का फैसला किया। क्यों। कहना (स्टर्जन) था- मुझ से मेरा दिल और दिमाग कह रहा है कि अब समय आ गया है, और यह मेरे-मेरी पार्टी और देश के लिए सही होगा जो मैं पद से इस्तीफा दूं। अपनी पार्टी एसएनपी और सत्ता दोनों की आठ साल से चली आ रही जिम्मेदारी को छोड़ने का अब सही समय है। ऐसे ही न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने पद से इस्तीफा दिया। उनका कहना था बहुत हुआ। मेरे में अब और काम करने की ऊर्जा नहीं बची है। मैं इंसान हूं, राजनेता भी इंसान होते हैं।….मैंने गर्मियों की छुट्टी के दौरान विचार किया कि क्या मेरे पास काम का कोई आइडिया, और भूमिका की ऊर्जा बची है? मुझे लगा ऊर्जा नहीं है। इसलिए कोई वजह नहीं है जो पद पर बनी रहूं। सो मैं इस्तीफा दे रही हूं।…मैं अपनी फैमिली के साथ सामान्य जीवन जीना चाहती हूं। इस्तीफे के बाद जेसिंडा आर्डर्न राजधानी वेलिंग्टन के एक क्लब में एंजॉय करते हुए दिखीं। वे डीजे की जगह पर खड़ी थीं और उसके बजाए गाने की धुन पर लोग नाच रहे थे!

इस तरह सोच सकना, जीवन और जिंदगी को इस अंदाज-मिजाज में जी सकना क्या भारत में संभव है? अमेरिका पृथ्वी का सर्वाधिक ताकतवर और अमीर है। लेकिन वहां कोई राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री, कर्मचारी कभी यह नहीं सोचता कि कुर्सी यदि नहीं रही तो क्या होगा। मेरे से ही देश की रक्षा, सुरक्षा और विकास है। या बाइडेन इज अमेरिका एंड अमेरिका इज बाइडेन! अमेरिका में वह भय और भूख है ही नहीं, जिससे लोग सरकार को माईबाप मानें और राष्ट्रपति अपने को भगवान! सत्ता सहज और नेता सहज। राष्ट्रपति रहते हुए नेता लोक प्रशासक वाली काबलियत से सौ टका मेहनत व पूरी जिम्मेवारी से नेतृत्व करेगा और कुर्सी छूटने वरिटायर होने के बाद जिंदगी को अपनी दिलचस्पियों में जियेगा। ओबामा रिटायर हुए तो किताब लिखने, फिल्म प्रोडक्शन के शगल में रमे। जार्ज बुश ने रिटायर हो कर जवानी का पेंटिंग शौक पूरा किया। बिल क्लिंटन रिकार्डिंग आर्टिस्ट बने और दो दफा ग्रैमी पुरस्कार जीता। आइजनहावर ने फार्म बना उसमें पशु पाले और दूध बेचा। इन दिनों 98 वर्ष की उम्र के जिमी कार्टर ‘हॉस्पाइस केयर’ में हैं। अस्पताल से घर शिफ्ट हुए ताकि परिवार के बीच अंतिम सांस लें। तथ्य है कि 1977 से 1981 में एक टर्म के राष्ट्रपति (जनता सरकार के वक्त भारत भी आए थे) जिमी कार्टर राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद मानवाधिकार संगठनों और परोपकारी संस्थाओं से जुड़ कर काम करते रहे। लोकतंत्र और मानवाधिकारों की चिंता के लिए एमरी विश्वविद्यालय में कार्टर प्रेसिडेंशियल सेंटर बनाया। कोई राष्ट्रपति स्तंभकार, लिक्खाड़ हुआ तो अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने विहस्की की डिस्टिलिरी बनाई।

जाहिर है पश्चिमी दुनिया में जिंदगी, राजनीति और पॉवर के जो मायने हैं वे भारत में नहीं हैं। अपने यहां ईश्वर लाचार भी बना दे तब भी लालू यादव हों या लालकृष्ण आडवाणी, शरद पवार नरेंद्र मोदी, देवगौड़ा आदि में कोई भी किसी भी अवस्था में रिटायर इसलिए नहीं होगा क्योंकि इन्हें जिंदगी का वह भान कहां है जो विकसित समाजों में है।

उस नाते पश्चिम में जन्मी 76 वर्ष की सोनिया गांधी का सियासी पारी के खत्म होने का विचार स्वभाविक और सहजता में है। मगर न कांग्रेसियों को यह समझ आएगा और न बाकी पार्टियों के नेताओं को।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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